Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 177
________________ १६८ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय महातिमहा ज्ञानियों द्वारा जिज्ञासु साधकों को परिबोध देने की दृष्टि से उनकी समान जातीयता के रूप में परिगणना की है । और, उक्त परिगणना में उन लेश्या शब्द वाच्य भावों की संख्या संक्षेपतः छह है-कृष्ण, नील, कापोत, तेजस्, पद्म और शुक्ल । स्वरूप निर्देशन की दृष्टि से उत्तराध्ययन सूत्र आदि में जो कुछ निर्देशन किया गया है, उसे ही हम यहां और भी अधिक संक्षेप शब्दों में अंकित कर रहे हैं१. कृष्ण-लेश्या: यह सर्वाधिक अधम लेश्या है। इसमें भाव अत्यन्त ऋर एवं कठोर होते हैं । इस लेश्या की प्रवृत्ति वाला व्यक्ति हिंसा, असत्य, चौर्य, व्यभिचार एवं परिग्रह रूप पांच आस्रवों में हर्षोन्मत्त होता हुआ मर्यादाहीन कुप्रवृत्ति करता है। उसका मन, वचन और काय सर्वथा गुप्तिहीन अर्थात् नियन्त्रण रहित होता है । वह किसी भी प्राणी के प्रति किसी भी तरह की संयममूलक दया से रहित होकर अन्धाधुन्ध आरम्भ-समारम्भ की दुष्क्रिया करता है। यह व्यक्ति अत्यन्त क्षुद्र मनोवृत्ति का होता है। किसी भी कार्य को करते समय उसके गुणों और दोषों का कुछ भी विचार नहीं रखता। न इसे इस लोक का कोई भय होता है और न परलोक का । मूलतः उसकी दृष्टि नास्तिकता को दृष्टि होती है । जैसे भी हो, उसका एकमात्र ध्येय अपना स्वार्थ सिद्ध करना ही होता है। उसका दूसरे का हिताहित के प्रति कुछ भी लक्ष्य नहीं होता। वह भोग-विलास की दृष्टि से स्वच्छन्द इन्द्रियों का एक प्रकार से क्रीतदास होता है । कहाँ तक गिनाएँ इसका नाम ही कृष्ण लेश्या है । अभद्र, काली एवं कलुषित दुर्वृत्ति । भारतीय-चिन्तन में क्रूर वृत्ति वाले हिंसाप्रिय राक्षसों, पिशाचों एवं भूतों को इसीलिए अत्यन्त घृणित एवं भयभीत करने वाले कृष्ण-काय के रूप में चित्रित किया गया है। मनुष्य भी यदि ऐसा ही क्रूर कर्मी है, तो वह भी मनुष्य के आकार में भूतल पर राक्षस ही है । महर्षि व्यास इसी दृष्टि से कहते हैं ___"प्राणिनो येवमन्यन्ते तेव भवन्तीह राक्षसाः।" -जो प्राणियों की यों ही निष्कारण अवमानना करते हैं, वे राक्षस होते हैं। २. नील लेश्या : उक्त लेश्या वाला व्यक्ति पूर्व कृष्ण लेश्या से कुछ अंश में अभद्र कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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