Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 175
________________ १६६ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय जातोऽस्मि तेन जन-बान्धव ! दुःख-पात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः॥" -हे लोक-बन्धु भगवन् ! पूर्व जन्मों में सम्भवतः मैंने अनेक बार आपका पवित्र नाम भी सुना है, पूजा-अर्चना भी की है, किन्तु निश्चित हैमैंने शुद्ध भक्ति-भावना के साथ अन्तर्मन में कुछ नहीं धारण किया, अर्थात यह सब दिखावा ही रहा, शुद्ध हृदय से कुछ भी नहीं किया गया । यही कारण है, कि मैं अब भो दुःख का पात्र हूँ, पीड़ाएं भोग रहा है। क्योंकि भाव-शून्य क्रियाएँ कदापि अच्छा फल नहीं देती हैं। महान दार्शनिक आचार्य सिद्धसेन का उक्त वचन प्रमाणित करता हैहमारे उत्थान एवं पतन का मूल कारण कर्ता का भाव होता है। बाह्य क्रियाएँ एवं वेश आदि कुछ अर्थ नहीं रखते हैं। भारत के क्रान्त-द्रष्टा आचार्यों एवं महर्षियों का निम्नोक्त कथन सर्वतो भाव से अप्रतिहत है "न लिंग धर्म-कारणम् ।" भारत के तत्त्व-द्रष्टा ऋषि अन्तर्जगत् के द्रष्टा हैं । अतः वे भाव को, भावना को, विचार को, चिन्तन को, उद्देश्य को, सदा काल से महत्त्व देते आए हैं । वे मुक्त दृष्टि से सत्य को देखते हैं और उसका मुक्त-वाणी से उद्घोष करते हैं सावधान रहो, जागृत रहो, अपने विचारों को हमेशा पवित्र रखो, उन्हें किसी भी काल में एवं किसी भी रूप में दूषित न होने दो। तुम्हें यदि पतित धरातल पर से ऊपर उठना है, पवित्रता के उच्च शिखरों को स्पर्श करना है, तो तुम्हें सदा अपने भावों का परिमार्जन करते रहना चाहिए। प्रातः एवं सायंकाल के रूप में प्रत्येक धर्म-सम्प्रदाय में किसी न किसी रूप में आत्मालोचन की एक साधना होती है, जिसमें स्वयं का, स्वयं के अच्छे-बुरे मन, वचन और कर्म का निरीक्षण किया जाता है, कि वह विकार-ग्रस्त तो नहीं है। यदि विकार-ग्रस्त है, तो क्यों है ? किस भूल के कारण वह रोगी हुआ है ? उसे किस प्रकार शुद्ध किया जाए ? कौन-सी आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति अपनाई जाए। भूल से या अहंकार आदि के कारण, जो कुछ बुरा हुआ है, उसके लिए सच्चे भाव से पश्चात्ताप किया जाता है । जैन-परम्परा में इसी क्रिया को प्रतिक्रमण के नाम से अभिहित किया गया है। भाव, अन्तश्चेतना की एक तरंग है। वह कभी अच्छे रूप में उठती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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