Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 174
________________ अन्तर्-भावनाओं का लेश्याओं के रूप में चित्रण प्राणि-मात्र के जीवन में भाव एवं भावना की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थिति है । मानवीय-जगत् में तो भाव की सुस्थिति और दुःस्थिति का काफी विश्लेषण हुआ है। कोन व्यक्ति कैसा है ? उसका अतीत, वर्तमान एवं भविष्य कैसा हुआ था, हो रहा है या होगा-यह सब तोलने की तुला भावना की तुला ही है। इसी सम्बन्ध में यह प्राचीन सक्ति काल के चिरंतन प्रवाह में प्रवाहित होती आई है और होती रहेगी “यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति तादृशी।" -जिसकी अच्छी-बुरी जैसी भावना होती है, उसी के अनुरूप उसकी प्रतिफल के रूप में सिद्धि अर्थात् निष्पत्ति होती है। ___ लोक-जगत् में ही नहीं, धार्मिक-जगत् में भी भावना की हो महत्ता है । बाहर में व्यक्ति धार्मिक क्रिया-काण्डों के परिपालन में कितना ही उच्च एवं उग्र क्यों न रहा हो, किन्तु उस क्रिया-काण्ड का यथार्थ मूल्यांकन उसकी आन्तरिक भावना पर से ही निर्धारित होता है। पवित्र भावना से की हुई साधारण-सी धार्मिक-क्रिया भी अधिक फलवती सिद्ध होती है और कभी दुर्भावना से की हुई उग्र-से-उग्रतर एवं उच्च-से-उच्चतर रूप में दिखाई देने वाली धार्मिक क्रियाएं भी निष्फल हो जाती हैं। निष्फल ही नहीं, अपितु कभी-कभी पाप-बन्ध का हेतु भी बन जाती हैं। आचार्य सिद्धसेन ने इसी विचार को लक्ष्य में रखकर भगवद्-भक्ति के सम्बन्ध में कहा है "आकणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । ( १६५ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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