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पाश्चात्य दर्शन को पृष्ठभूमि
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मध्य काल में मुख्य प्रश्न आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध बना । इस काल के विचारक प्लेटो और अरस्तू के विचारों से प्रभावित थे । ईसाई मत को भी वे स्वीकार कर चुके थे । उनका प्रयत्न यह था कि
sfer की शिक्षा को इन दार्शनिकों की शिक्षा के अनुकूल सिद्ध करें । यही कारण है, कि इस काल के विद्वानों के विचार स्वतन्त्र नहीं रहे । क्योंकि वे जकड़ों में जकड़े हुए थे - एक अरस्तू के विचारों को, और दूसरी बाइबिल की । वास्तव में इस मध्यकाल के चिन्तन को दर्शन नहीं कहा जा सकता, उसकी व्याख्या ही कहा जा सकता है ।
नवीन काल का प्रारम्भ १५ वीं शती से होता है । इस युग की मुख्य विशेषता विचारों की स्वाधीनता है । तत्त्व-ज्ञान को धर्म से अलग किया गया । प्लेटो और अरस्तू को भी आलोचना का विषय बना दिया गया । इस कार्य को करने का मुख्य श्रेय बेकन को है । बेकन का मौलिक सिद्धान्त यह था - वास्तविकता को देखो, और अपनी कल्पना से आरम्भ न करो। वह कहता है, कि देखो तथ्य क्या है ? जानलॉक ने वर्षों अपनी मानसिक अवस्थाओं का परीक्षण करके अपनी विख्यात पुस्तक लिखी । बर्कले और ह्य ूम ने इसे चरम सीमा तक पहुँचा दिया। फिर जर्मनी विद्वानों ने उसके चार चाँद लगा दिए। इस प्रकार पाश्चात्य दर्शन का इतिहास तैयार होता गया ।
पाश्चात्य दर्शन का जन्म यूनान की धरती पर हुआ । रोम की धरती पर वह पालित और पोषित हुआ । यूरोप की जमीन पर पहुँच कर उसमें यौवन उभर आया । जर्मनी में पहुँचकर उसमें प्रौढ़ता और गम्भीरता का समावेश हुआ । और अमेरीका में पहुँचकर उसमें वृद्धत्व आ गया । इस प्रकार पाश्चात्य दर्शन का इतिहास प्रत्येक युग में विचारों का केन्द्र बना रहा । उसका प्रतिपादन और व्याख्यान क्रम बद्ध होता रहा । यह तो नहीं कहा जा सकता, कि इसी में सदा से ही एक जैसी गतिशीलता रही हो, किन्तु इतना निश्चित है, कि इसमें कहीं पर स्थिरता नहीं आ पाई, और गति चालू रही ।
दर्शन का क्षेत्र और लक्ष्य :
दर्शन शास्त्र का क्षेत्र अन्य सभी ज्ञान एवं विज्ञानों से विस्तृत एवं व्यापक है | दर्शन का लक्ष्य है, सत्य का साक्षात्कार करना । केवल साक्षात्कार ही नहीं करना, जो कुछ देखा और परखा है, उसे जीवन का अंग किस प्रकार बनाया जाए, इसका चिन्तन करना और उस चिन्तन को
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