Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 160
________________ पाश्चात्य दर्शन को पृष्ठभूमि १५१ मध्य काल में मुख्य प्रश्न आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध बना । इस काल के विचारक प्लेटो और अरस्तू के विचारों से प्रभावित थे । ईसाई मत को भी वे स्वीकार कर चुके थे । उनका प्रयत्न यह था कि sfer की शिक्षा को इन दार्शनिकों की शिक्षा के अनुकूल सिद्ध करें । यही कारण है, कि इस काल के विद्वानों के विचार स्वतन्त्र नहीं रहे । क्योंकि वे जकड़ों में जकड़े हुए थे - एक अरस्तू के विचारों को, और दूसरी बाइबिल की । वास्तव में इस मध्यकाल के चिन्तन को दर्शन नहीं कहा जा सकता, उसकी व्याख्या ही कहा जा सकता है । नवीन काल का प्रारम्भ १५ वीं शती से होता है । इस युग की मुख्य विशेषता विचारों की स्वाधीनता है । तत्त्व-ज्ञान को धर्म से अलग किया गया । प्लेटो और अरस्तू को भी आलोचना का विषय बना दिया गया । इस कार्य को करने का मुख्य श्रेय बेकन को है । बेकन का मौलिक सिद्धान्त यह था - वास्तविकता को देखो, और अपनी कल्पना से आरम्भ न करो। वह कहता है, कि देखो तथ्य क्या है ? जानलॉक ने वर्षों अपनी मानसिक अवस्थाओं का परीक्षण करके अपनी विख्यात पुस्तक लिखी । बर्कले और ह्य ूम ने इसे चरम सीमा तक पहुँचा दिया। फिर जर्मनी विद्वानों ने उसके चार चाँद लगा दिए। इस प्रकार पाश्चात्य दर्शन का इतिहास तैयार होता गया । पाश्चात्य दर्शन का जन्म यूनान की धरती पर हुआ । रोम की धरती पर वह पालित और पोषित हुआ । यूरोप की जमीन पर पहुँच कर उसमें यौवन उभर आया । जर्मनी में पहुँचकर उसमें प्रौढ़ता और गम्भीरता का समावेश हुआ । और अमेरीका में पहुँचकर उसमें वृद्धत्व आ गया । इस प्रकार पाश्चात्य दर्शन का इतिहास प्रत्येक युग में विचारों का केन्द्र बना रहा । उसका प्रतिपादन और व्याख्यान क्रम बद्ध होता रहा । यह तो नहीं कहा जा सकता, कि इसी में सदा से ही एक जैसी गतिशीलता रही हो, किन्तु इतना निश्चित है, कि इसमें कहीं पर स्थिरता नहीं आ पाई, और गति चालू रही । दर्शन का क्षेत्र और लक्ष्य : दर्शन शास्त्र का क्षेत्र अन्य सभी ज्ञान एवं विज्ञानों से विस्तृत एवं व्यापक है | दर्शन का लक्ष्य है, सत्य का साक्षात्कार करना । केवल साक्षात्कार ही नहीं करना, जो कुछ देखा और परखा है, उसे जीवन का अंग किस प्रकार बनाया जाए, इसका चिन्तन करना और उस चिन्तन को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194