Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 166
________________ पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १५७ निर्भर नहीं रहते बल्कि वे हमारे स्वभाव में ही हैं । वे न तो आकस्मिक हैं और न अप्राकृतिक । वे हमारे जीवन का अंग हैं, और उनके बिना हमारा काम नहीं चल सकता । क्योंकि चिन्तन करना, मनुष्य का सहज स्वभाव है । इसीलिए मनुष्य को विवेकशील एवं चिन्तनशील कहा गया है । जब चिन्तन एवं विचार उसका मूल स्वभाव है, तब यह आवश्यक है कि दर्शन उसका स्वभाव है । वह अपने मूल रूप में ही एक दार्शनिक है । इस सम्बन्ध में हॉकिंग ने एक बड़ी सुन्दर बात कही है । उसने कहा है कि जंगल से लकड़ी काटकर अपना पेट भरने वाला लकड़हारा भी कभी कभी श्रान्त एवं क्लान्त होकर पेड़ के नीचे बैठ जाता है और सुख एवं दुःख, जन्म तथा मरण, आत्मा और परमात्मा, आदि के सम्बन्ध में अपने ढंग से विचार करने लगता है । गाँव का बनिया भी जो दिन-रात अपनी तराजू में लगा रहता है, इस विषय में अपने कुछ न कुछ विचार अवश्य रखता है । इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य का जीवन अपनी मूल समस्याओं के समाधान के लिए आतुर रहता है । वही उसका दर्शन है । उसके व्यावहारिक जीवन का चित्र उसके दर्शन पर निर्भर करता है । जैसा उसका दर्शन होता है, वैसा उसका जीवन भी होता है । हाँकिंग ( Hocking ) महोदय ने चेष्टर्टन (Chesterton) के वाक्य को उद्धृत करते हुए कहा हैThe most practical & importent thing about a man is his view of the alsiverse his philosophy. The employee is at the mercy of the philosophy of his employer and the employer stakes his business on the philosophy of his employees1 -- इस सम्बन्ध में पर्याप्त विचार किया जा चुका है, कि दर्शन शास्त्र जीवन की एक स्वाभाविक पद्धति है । जिस प्रकार विद्वान प्रयोग और परीक्षण पर आधारित रहता है, उस प्रकार का प्रयोग और परीक्षण भले ही दर्शन के क्षेत्र में न किया जाता हो, परन्तु यह निश्चित है, कि दर्शन शास्त्र अपने चिन्तन के बल पर ही उस सत्य का साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है, जो वास्तविक रूप में मानव जाति के जीवन का ध्येय हो सकता है, और जिसके अभाव में मानव जाति अपनी प्रगति एवं विकास नहीं कर सकती । जिस जाति का अथवा जिस देश का दर्शन शास्त्र एवं १ Hocking : Types uf Philosophy, 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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