Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 167
________________ १५८ अध्यात्म-प्रवचन : भाग तृतीय सूक्ष्म तत्त्वों का जितना स्पष्ट एवं गम्भीर होता है, वह जाति और देश उतना ही महान होता हैं । यही कारण है कि दर्शन शास्त्र मानव जाति का मार्गदर्शक रहा है । विज्ञान आदि का विकास भी मानव के दर्शन मूलक चिन्तन में से हुआ है, यह एक परम सत्य है । पाश्चात्य दर्शन के विभाग : जैसे-जैसे दर्शन का क्षेत्र विशाल और व्यापक होता जाता है, उसके विभाग की समस्याएं भी हमारे सामने उपस्थित होती जाती हैं । जिस प्रकार भारतीय दार्शनिकों ने भारत के दर्शन का एक विभाग निश्चित किया है, उसी प्रकार पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी अपने दर्शन का एक विभाग निश्चित किया है। दर्शन का व्यापकत्व इस बात से भी सिद्ध होता है, कि ज्ञान का और कोई भी क्षेत्र नहीं जिसका दार्शनिक पक्ष न हो । जब हम किसी भी विषय के मूल स्वरूप और मनुष्य जीवन के लिए उसके अन्तिम मूल्य पर विचार करने लगते हैं, तब दर्शन के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। अतः ज्ञान और विज्ञान के जितने विषय हैं अथवा जितने क्षेत्र हैं, उतने ही विषय एवं क्षेत्र दर्शन शास्त्र के हो जाते हैं। यहाँ पर दर्शन शास्त्र के छह विभाग प्रस्तुत किये जा रहे हैं १. विज्ञान का दर्शन (Philosophy of Science) २. इतिहास का दर्शन (Philosophy of History) ३. अर्थशास्त्र का दर्शन (Philosophy of Economics) ४. राजनीति का दर्शन (Philosophy of Politics) ५. समाजवाद का दर्शन (Philosophy of Socialism) ६. साम्यवाद का दर्शन (Philosophy of Communism) इस प्रकार दर्शन शास्त्र की अनेक शाखाएं एवं प्रशाखाएँ आज योरुपीय दर्शन में विकास पर रही हैं, और अपने-अपने क्षेत्र में नवीनता प्रदान करने का प्रयास कर रही हैं। प्रत्येक शाखा आज इतनी समर्थ हो चुकी है, कि वह अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कायम रख सके । योरुप के विश्वविद्यालयों में आज प्रत्येक शाखा का सर्वांगीण अध्ययन करने की परम्परा चल पड़ी है । यही कारण है कि योरुपीय दर्शन आज भी गतिशील और विकासशील माना जा रहा है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस विकास का अन्तिम परिणाम क्या होगा। पर इतना कहा जा सकता है कि मानव जाति ने आज तक जो प्रगति की है और विकास का जो एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194