Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 165
________________ १५६ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय लाभ करने की चेष्टा करता है । परन्तु दर्शन का ऐसा कोई सीमित क्षेत्र नहीं है । वस्तुतः इस प्रकार का कोई विषय ही नहीं है, जो दर्शन की परिधि से बाहर रह सकता हो । इस दृष्टिकोण से प्रत्येक विज्ञान दर्शन की एक शाखा है, और अपने सीमित क्षेत्र में वह दर्शन का ही कार्य करता है । 1 दर्शन विज्ञानों द्वारा अपने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में संचित ज्ञान का समन्वय करता है और इस समग्र ज्ञान का धर्म ( religion) और नीतिशास्त्र ( ethics) द्वारा प्राप्त उस ज्ञान से समन्वय करता है, जो विज्ञानों की सीमा के बाहर है । इस प्रकार दर्शनशास्त्र सम्पूर्ण विश्व का समन्वयात्मक चित्र खींच कर उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । इसीलिए प्लेटो (pato) ने कहा है कि दार्शनिक सम्पूर्ण विश्व का दर्शक है - The Philosopher is the Spector at all time & all existence. प्लेटो की इस परिभाषा के अनुसार दार्शनिक सार्वभौमिक और सार्वकालिक तत्त्व का चिन्तन करके विश्व के सामने प्रस्तुत करता है । अतः दर्शन की किसी सीमा में आबद्ध करना उपयुक्त नहीं है । दर्शन को किसी क्षेत्र में बाँध के रखना यह मानव को चिन्तन धारा के साथ न्याय नहीं होगा । दार्शनिक विचारों की स्वाभाविकता : दर्शन के विषय के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है उससे यह स्पष्ट है कि दर्शन मनुष्य की स्वाभाविक क्रिया है । इस प्रकार का कोई भी मनुष्य नहीं है, जिसने आत्मा और परमात्मा तथा जगत एवं जीवन के चरम लक्ष्य के सम्बन्ध में कभी कुछ विचार न किया हो। यह हो सकता है कि इस दिशा में किसी के विचार स्पष्ट हों, और किसी के न हों । फिर भी प्रत्येक व्यक्ति भले ही वह मन्दबुद्धि क्यों न हो, पर प्रत्यक्ष रूप में अथवा परोक्ष रूप में वह अतीन्द्रिय पदार्थों पर अवश्य ही विचार करता है । उसके जीवन की परिस्थिति उसे इन विषयों पर विचार करने के लिए बाध्य करती है, जैसा कि कहा गया है। Philosophy that grows directly not of life and its needs. Every one who lives, if he lives at all reflectively is in some degree a philosopher.' अरस्तू का कहना है - Whether we philosophy or not, we must phiolsophise. दार्शनिक विचार हमारी इच्छा अथवा अनिच्छा पर १ J. W. Cunmies ham Problums of Philosophy, P. 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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