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१३० अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय और पाश्चात्य दार्शनिकों में कुछ समानता भी उपलब्ध होती है। जैसे अरस्तु और न्याय-वैशेषिक में, ब्रडले और नागार्जुन में, वर्कले और वसुबन्धु में, स्पीनोजा और शंकर में, हेगेल और रामानुज में । इस प्रकार कुछ समानता का आधार भी दोनों में अवश्य रहा है। इस समानता का अर्थ यह नहीं है कि पश्चिमी दार्शनिक भारतीय दर्शन की धाराओं से सर्वथा सहमत रहे हों, अथवा उसके अनुगामी रहे हों । बुद्धि का कार्य है, चिन्तन करना, और उस चिन्तन में कुछ सूत्र यदि एक जैसे उपलब्ध हों, तो इसका अर्थ अनुगामिता अथवा प्रभावित होना नहीं है। भारत में जो महत्त्व गंगा और यमुना का हो सकता है, वह योरुप में नहीं माना जाएगा । इसी प्रकार पश्चिमी जगत में टेम्स और हाईन नदी का हो सकता है उतना भारत में नहीं होगा। टेम्स और हाईन में, तथा गंगा और जमना में जितना भेद है, इतना भेद तो भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन में अवश्य ही रहेगा। क्योंकि दोनों की मूल प्रकृति और संस्कृति भिन्न भिन्न है। प्रत्येक देश की विचारधारा पर उसकी प्रकृति और संस्कृति का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ता है। दर्शन की उपयोगिता:
मानव जीवन में दर्शनशास्त्र का क्या उपयोग है ? यह एक प्रश्न है, जो आज से नहीं अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है। उपयोगितावादी व्यक्ति की दृष्टि एकमात्र उपयोग में रहती है। परन्तु दर्शनशास्त्र और उपयोगितावाद दोनों भिन्न-भिन्न वस्तु हैं। फिर भी यह विचार तो उपस्थित होता ही रहा है और होता ही रहेगा कि दर्शन-शास्त्र का अध्ययन क्यों किया जाए? और उसके करने से क्या लाभ हैं ? तथा नहीं करने से क्या हानि है ? एक पाश्चात्य विद्वान ने कहा है, कि दर्शन एवं अध्यात्म विद्या आकर्षक और आनन्द रूप है। प्लेटो कहा करता था, कि दर्शन का प्यारा आनन्द । उसे जितना आनन्द दर्शनशास्त्र के चिन्तन एवं मनन में आता था, उतना अन्य किसी विषय में नहीं। ब्राउनिंग कहता है कि जीवन का एक विशिष्ट अर्थ होता है और उस अर्थ की खोज ही मेरे लिए भोजन और जल के समान है। जीवन का वह विशिष्ट अर्थ दर्शन एवं चिन्तन ही है। ब्राउनिंग का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार शरीर को भोजन एवं जल की आवश्यकता है, उसी प्रकार आत्मा को चिन्तन की रोटी और मनन का जल चाहिए। दर्शनशास्त्र के सम्बन्ध में विभिन्न युग के विचारकों ने विभिन्न प्रकार से अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है। फिर भी इतना
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