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पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १३५ है, जिसके परिणामस्वरूप वैज्ञानिक गम्भीरतापूर्वक विश्व के मूल स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करने लगे हैं। पाश्चात्य जगत का महान दार्शनिक पेट्रिक (Patrick) का कथन है-"Although Philosephy among the ancients began in wonder, in modern times it usually begins in doubt" यद्यपि प्राचीन दर्शन का प्रारम्भ विस्मय की भावना में होता था, तथापि आधुनिक दर्शन का प्रारम्भ शंका की भावना में होता है। इस प्रकार पाश्चात्य विचारकों में दर्शन की उत्पत्ति को लेकर अनेक प्रकार के विचार हैं । पर सब में मुख्य संशय की भावना ही है।
भारतीय दार्शनिक फिर वे किसी भी परम्परा के रहे हों, दर्शन का मूल आधार वे सत्य की जिज्ञासा और तत्त्व जानने की प्रबल भावना को ही मानते हैं । सत्य का साक्षात्कार करना ही यहाँ एकमात्र दर्शन का प्रयोजन माना गया है। भारतीय दर्शन में दर्शन की उत्पत्ति का दूसरा कारण दुःख-निवृत्ति भी माना गया है। वर्तमान जोवन दुःख पूर्ण एवं क्लेशमय है । दुःख एवं क्लेश से निवृत्त होना ही यहां जीवन का प्रयोजन माना गया है। भारत की वैराग्यवादी विचारधारा अथवा संन्यासवादी विचारधारा में मुख्य रूप से दुःख-निवृत्ति को ही दर्शन का उद्देश्य एवं ध्येय माना गया है। किन्तु उसके मूल में सत्य का साक्षात्कार ही रहा हुआ है । भारतीय दार्शनिकों ने संशय को अथवा शंका को दर्शन की उत्पत्ति का मूल कारण नहीं माना, क्योंकि यहाँ की प्रत्येक दार्शनिक परम्परा अपने द्वारा स्वीकृत तत्त्व में आस्था एवं श्रद्धा रखती है। संशय एवं शंका को वह एक प्रकार का दूषण ही मानती है। जबकि पाश्चात्यविचारक उसे एक भूषण के रूप में स्वीकार करते हैं । दर्शन की परिभाषा:
दर्शन-शास्त्र की परिभाषा क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में पाश्चात्य विद्वानों का कहना है, कि जीवन की आलोचना (Critisim of Life) ही वस्तुतः दर्शन-शास्त्र का परिभाषा है । यहाँ पर पश्चिमी विद्वानों ने दर्शन के सम्बन्ध में, उसकी व्याख्या एवं परिभाषा के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त किए हैं, वे इस प्रकार से हैं
१. दर्शन का विषय सम्पूर्ण विश्व है ।
२. दर्शन का सम्बन्ध विश्व की साधारण समस्याओं से नहीं, बल्कि उसकी मूल और सामान्य समस्याओं से है ।
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