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पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १४७ है । गति एक स्थान से दूसरे स्थान को होती है। किसो वैज्ञानिक से जब यह पूछा जाता है, कि तुम्हें कैसे मालूम है, कि प्रकृति का अस्तित्व है ? तुम्हें कैसे पता है, कि देश और काल सत्ता के भाग हैं, और भ्रम-मात्र नहीं ? वह उत्तर देता है, कि मैं इन झमेलों में नहीं पड़ता। जो कुछ मेरे सामने प्रस्तुत है, मैं उसी पर विचार करता है, उसी का प्रयोग करता है और उसी का परीक्षण करता हूँ। इसके विपरीत तत्त्व-ज्ञान किसी भी उलझन से बचने का प्रयत्न नहीं करता, बल्कि वह उन्हें सुलझाने का ही प्रयत्न करता है । जब हम बाहर की ओर देखते हैं, तो घटनाओं को ही देखते है । परन्तु कभी-कभी हम अन्दर की ओर भी दृष्टि को फेरते हैं, वहाँ हम ज्ञान के साथ पसन्द और ना-पसन्द भावों को भी देखते हैं। हम नीच और ऊँच में भेद करते है । भौतिक-विज्ञान के लिए राग और कोलाहल दोनों शब्द मात्र हैं । तत्त्व-ज्ञान आदर्शों को अपने अध्ययन क्षेत्र में उच्च स्थान देता है । यह आदर्श सत्य, सुन्दर और शिव के रूप में अभिव्यक्त होता है । इस प्रकार विज्ञान और तत्त्व-ज्ञान में मुख्य रूप से तीन भेद हैं--
१. विज्ञान की प्रत्येक शाखा अपने लिए एक सीमित क्षेत्र निश्चित करती है, तत्त्व-ज्ञान का विषय समस्त सत्ता है ।
२. विज्ञान की प्रत्येक शाखा अपना अध्ययन कुछ धारणाओं के आधार पर प्रारम्भ करती है, जबकि तत्त्व-ज्ञान समस्त धारणाओं पर विचार करता है, और अपना निर्णय देता है।
३. विज्ञान प्रकटनों की दुनिया से परे नहीं जाता, वह यह भी नहीं पूछता, कि इस दुनिया से परे कुछ दूसरा है भी, या नहीं, तत्त्व-ज्ञान के लिए यह प्रश्न अतीव महत्त्व का है ।।
इस प्रकार विज्ञान और तत्त्व-ज्ञान एक-दूसरे से अलग रहकर भी सत्य की शोध करते हैं, और अपनी-अपनी पद्धति से उसकी व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं । विज्ञान का क्षेत्र सीमित है, जबकि तत्त्व-ज्ञान की किसी भी प्रकार की सीमा नहीं है । धर्म और तत्त्व-ज्ञान :
मैं आपके सामने तीन वाक्य बोल रहा हूँ-बाहर की ओर देखो,
१ तत्त्व-ज्ञान, पृष्ठ ६
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