Book Title: Adhyatma Pravachana Part 3
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 157
________________ १४८ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय अन्दर की ओर देखो, ऊपर की ओर देखो। भौतिक विज्ञान कहता हैबाहर की ओर देखो। बाहर की ओर हम देखते तो रहते ही हैं, विज्ञान कहता है, कि जो कुछ देखें उसे व्यवस्थित और गठित करें। मनोविज्ञान कहता है-अन्दर की ओर देखो। अन्दर की ओर भी हम देखते ही रहते हैं, पर अनियमित रूप में । मैं नदी के किनारे बैठा है-उसके विस्तार, उसके आकार, उसकी लहरें और उसके प्रवाह को देख रहा है। पीछे से एक मित्र आता है, और कहता है-क्या कर रहे हो ? मैं कहता हूँ-नदी का आनन्द ले रहा है । मित्र के आने से पहले मैं बाहर की ओर देख रहा था, और उसके प्रश्न पूछने पर मैंने अन्दर की ओर देखना प्रारम्भ किया, और देखा कि अन्तर में क्या चिन्तन चल रहा है ? मनोविज्ञान कहता है, कि जो कुछ मन के विषय में देखो, उसे व्यवस्थित करो। इस प्रकार भौतिक-विज्ञान और मनोविज्ञान दोनों मनुष्य को तथ्यों की दुनिया में रखते हैं । धर्म कहता है-ऊपर की ओर देखो। तब हम तथ्य की दुनिया से ऊपर उठते हैं, और आदर्शों को दुनिया में पहुंच जाते हैं । हम अपने अल्प स्वत्व को विश्व का केन्द्र नहीं, उसका एक तुच्छ भाग समझते हैं। धर्म हमें वैसा करने का आदेश देता है। धर्म केवल मन्तव्य नहीं, जीवन का ढंग है । प्रकाश नहीं, आत्म-सिद्धि इसका लक्ष्य है। इस लक्ष्य में मंतव्य और कर्तव्य दोनों सम्मिलित हैं। यहां हमें देखना है, कि धर्म और तत्त्वज्ञान के दष्टिकोण में क्या भेद है । फ्रांस के विचारक आगस्ट कामट का विचार है, कि अपने मानसिक विकास में समस्त मानव जाति तीन स्तरों से गुजरी है। जिस जगत में हम जीवन व्यतीत करते हैं, उसे समझना आवश्यक है। उसे समझने के लिए कामट ने तीन स्तरों का उल्लेख किया है - १. प्रथम स्तर में विश्व की घटनाओं को चेतन शक्तियों की क्रिया समझा जाता था। जब अनेक देवी-देवताओं के स्थान में एक ईश्वर की पूजा होने लगी, तब भी प्रकृति की घटनाओं के समाधान में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। इसको आस्तिकवाद कहा जाता है। २. द्वितीय-स्तर में चेतन-देव अथवा देवों का स्थान अचेतन शक्तियों ने लिया । प्रथम स्तर में लोग विश्वास करते थे, कि ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन चन्द्र पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। द्वितीय स्तर में १ तत्त्व-ज्ञान, पृष्ठ ७-८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194