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पाश्चात्य दर्शन की पृष्ठभूमि १२६ कि भारतीय दर्शन की धारा अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित होती रही है, जबकि पश्चिमी दर्शन की धारा विच्छिन्न होती रही है। पश्चिमी दर्शन में जितने परवर्ती दार्शनिक होते हैं, वे अपने सभी पूर्ववर्ती दार्शनिकों का आलोचनात्मक अध्ययन करते हैं और किसी भी दार्शनिक के सभी मतों को सही नहीं मानते । भारतीय दर्शन में जितने परवर्ती दार्शनिक होते हैं, वे अपने सम्प्रदाय के पूर्ववर्ती आचार्यों के समस्त मतों को मानते हैं। इससे पश्चिमी दार्शनिक भारतीय दार्शनिकों की तुलना में अधिक शंका-शील रहे हैं। क्योंकि पश्चिमी दार्शनिक अपनी मौलिकता और नवीनता को जितना महत्त्व देते रहे हैं, उतना सत्य की स्थिरता को नहीं। विचारों का जितना क्रमबद्ध विकास भारतीय दर्शन में हुआ है, उतना पश्चिमी दर्शन में नहीं। क्योंकि वहां का प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों में स्वतन्त्र रहा है, जबकि भारतीय दार्शनिक को अपनी परम्परा में रहकर विचार एवं चिन्तन करना पड़ता है।
पश्चिमी दर्शन और पूर्वी दर्शन में एक महत्त्वपूर्ण भेद यह भी है कि पश्चिमी दर्शन विज्ञान से प्रभावित होता रहा है। विज्ञान की स्थापनाओं का वह समर्थन नहीं करता, बल्कि उनका प्रतिपादन भी करता है। इसके विपरीत भारतीय दर्शन में विज्ञान का प्रवेश नहीं हो सका अथवा वह विज्ञानवाद की मान्यताओं से प्रभावित नहीं हो सका। भारतीय दर्शन की यह मान्यता रही है, कि विज्ञान एकांगी ज्ञान है, और दर्शन सर्वांगीण चिंतन है। दूसरी बात पश्चिमी दर्शन राजनीति का भी विवेचन करता है और वहाँ के दार्शनिक राजनीति में सक्रिय भाग लेते रहे हैं। किन्तु भारतीय दार्शनिकों ने कभी यहां की राजनीति में न सक्रिय भाग लिया और न राजनीति का समर्थन ही किया। पश्चिमी दर्शन में गणित का भी समावेश हुआ है, जबकि भारतीय दर्शन में गणित के लिए जरा भी स्थान नहीं है । भारतीय दर्शन में जितना दर्शन एवं चिन्तन का महत्त्व माना गया है, उतना ही धर्म और आचार का भी। पश्चिमी दर्शन में विचार पर ही बल दिया गया है, आचार पर नहीं। यदि आचार पर विचार किया भी गया है, तो स्वतन्त्र रूप में किया गया है, जिसे नीतिशास्त्र कहा जाता है । पश्चिमी दर्शन में जितना ज्ञान एवं बुद्धि का विवेचन हुआ है, उतना तत्त्व का नहीं, जबकि भारनीय दर्शन में ज्ञान एवं तक, तत्त्व एवं पदार्थ का विवेचन समान भाव से किया जाता रहा है। इतना होने पर भी भारतीय दार्शनिकों में
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