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भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त ९५ है ? इसको समझने के लिए अथवा इसका विश्लेषण करने के लिए विभज्यवाद का प्रयोग किया जाता था। सूत्रकृतांग सूत्र में भिक्षु कैसी भाषा का प्रयोग करे, इस प्रश्न के प्रसंग में कहा गया है, कि विभज्यबाद का प्रयोग करना चाहिए। विभज्यवाद का अभिप्राय ठीक रूप में समझने के लिए हमें जैन टीका ग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थ भी सहायक होते हैं । बौद्ध-परम्परा के मज्झिम निकाय में शुभ माणवक के प्रश्न के उत्तर में भगवान बुद्ध ने कहा था-हे माणवक, मैं यहाँ विभज्यवादी हूँ, एकांतबादी नहीं । माणवक का प्रश्न था, कि मैंने सुन रखा है, कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रवजिन आराधक नहीं होता? इसमें आपका क्या विचार है ? इस प्रश्न का एकांश उत्तर हां अथवा ना में न देकर भगवान बुद्ध ने कहा, कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है तो निर्वाण मार्ग का आराधक नहीं, और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो वह भी आराधक नहीं है । परन्तु यदि वे दोनों सम्यक्-दृष्टि हैं, तभी आराधक होते हैं। अपने इस प्रकार के उत्तर के बल पर बुद्ध अपने को विभज्यवादी कहा करते थे ।। इस प्रकार बौद्ध सूत्र में एकांशवाद और विभाज्यवाद का परस्पर विरोध सूचित हो जाता है । जैन टीकाकार विभाज्यवाद का अर्थ-स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद करते हैं। एकान्तवाद और अनेकान्तवाद का भी परस्पर विरोध स्पष्ट ही है । इस प्रकार की स्थिति में सूत्रकृतांग गत विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद, नयवाद, अपेक्षावाद अथवा कथंचितवाद हो हो सकता है । अदेक्षा भेद से स्यात् शब्दांकित प्रयोग आगम में देखे जाते हैं । एकाधिक भंगों का स्याद्वाद भी आगम में मिलता है। अतः आगमकालीन अनेकान्तवाद अथवा विभज्यवाद को स्याद्वाद कहना ही अधिक उपयुक्त है । इतना अन्तर अवश्य है, कि बुद्ध का विभज्यवाद मर्यादित क्षेत्र में था, और भगवान महावीर के विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक था। यही कारण है, कि जैन-दर्शन आगे चलकर अनेकान्तवाद में परिवर्तित हो गया, और बौद्ध-दर्शन किसी अंश में विभज्यवादी होते हुए भी एकान्तवाद की ओर आगे बढ़ता हुआ एकान्त क्षणिकवादी हो गया । इस प्रकार अनेकान्त की आराधना एकान्त में बदल गई । जैन-परम्परा का और बौद्ध-परम्परा का विभज्यवाद केवल इन दो परम्पराओं तक ही सीमित नहीं था। आगे चलकर अन्य दर्शनों पर भी इस विभज्यवाद की छाप पड़ी। न्यायसूत्र पर भाष्य रचना करने वाले वात्स्यायन ने कहा है-“यथादर्शन १ आगम युग का जैन दर्शन, पृ० ४३, पं० दलसुखजी कृत ।
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