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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
वर्तमान गुणों का ज्ञान नहीं रहता और न देश, काल और कारणता की प्रतीति रहती है । इसमें सूक्ष्म तन्मात्राओं का ज्ञान सब विकल्पों से रहित होता है । इसमें ज्ञान की चेतना भी लुप्त रहती है । इसमें ध्येय वस्तु न केवल कोई तन्मात्रा होती है, बल्कि अहंकार, बुद्धि अथवा प्रकृति भी हो सकती है । पाँचवीं आनन्दानुगन समाधि में चित्त की समापत्ति किसी स्थूल इन्द्रिय से होती है, जो कि अहंकार का परिणाम होती है, जिसमें सत्त्व और उसके आनन्द का आधिक्य रहता है । इसमें मैं सुखी हूँ, इस प्रकार की साक्षात्कारी प्रतीति होती है । इस समाधि में सानन्द और निरानन्द का भेद नहीं होता । छठी अस्मितानुगत समाधि में चित्त को अस्मिता से समापत्ति होती है । इसमें मैं हूँ इस तरह की साक्षात्कारी प्रतीति होती है । इसमें सास्मिता और निरस्मिता का भेद नहीं होता । इस प्रकार संप्रज्ञात समाधि के भेदों का वर्णन यहाँ पर किया गया है। योग दर्शन के अनुसार सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचार समाधियाँ सबीज समाधि कही जाती हैं । इनमें अर्थों से समापत्ति होती है, जो कि उसके आलंबन होते हैं । प्रथम दो समाधियों में ध्येय विषय का स्थूल अर्थ होता है । शेष दो में ध्येय विषय का सूक्ष्म अर्थ होता है । ये संप्रज्ञात -समाधि के प्रकार हैं । इन्हें सबीज इसलिए कहा जाता है, कि इनमें बन्ध के बीज, संस्कार वर्तमान रहते है । और इनमें विवेक ख्याति का अभाव रहता है, जो कि अविद्या का नाश करने वाली है । संप्रज्ञात समाधि के सम्बन्ध में जो वर्णन योग - शास्त्र में अथवा उसके भाष्य में उपलब्ध है, उसका संक्षिप्त सार इतना ही है ।
असंप्रज्ञात समाधि :
असंप्रज्ञात समाधि को निर्बीज समाधि भी कहा जाता है । निर्बीज कहने का अभिप्राय यह है, कि उसमें वस्तु को चेतना का और बन्ध की बीज रूप अविद्या का अभाव रहता है । यह संप्रज्ञात समाधि और उसके अत्यधिक निरोध के बाद होती है । असंप्रज्ञात समाधि के संस्कार संप्रज्ञान समाधि के संस्कारों को अभिभूत करके उनका निषेध कर देते हैं । असंप्रज्ञात समाधि के चित्त का प्रकृति में लय हो जाने पर नष्ट हो जाते हैं । जब चित्त नष्ट हो जाता है, तब आत्मा स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है । यही
१ भारतीय दर्शन, पृ. २३७ २ भारतीय दर्शन, पृ. २३८
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