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भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त
११५ त्मा के मोक्ष की अवस्था है । यह ध्यान में रखने योग्य बात है, कि असंप्रज्ञात समाधि निरालंबन होती है, क्योंकि इसमें चित्तवृत्तियों का पूर्णतया निरोध हो जाता है। फिर भी उनके संस्कार चित्त में शेष रह जाते । इस प्रकार की समाधि को परम वैराग्य से सिद्ध किया जा सकता है । परम वैराग्य के निरन्तर अभ्यास से चित्त निरालम्बन हो जाता है, क्योंकि तब विषयों की सारी इच्छाएं नष्ट हो जाती हैं । जब चित्त इस स्थिति में आ जाता है, कि वह विषयाकार नहीं होता, तब उसमें वृत्तियाँ उत्पन्न नहीं होतीं । जब वृत्तियाँ उत्पन्न नहीं होतीं, तब चित्त का अभाव हो जाता है । यही असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था है । इसमें चित्त ज्ञान, वेदना और वृत्ति से शून्य होता है । लेकिन संस्कार उसमें बने रहते हैं । फिर अपर वैराग्य से असम्प्रज्ञात समाधि का लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें विषयों की इच्छा का पूर्णतया निरोधाभाव नहीं होता । अपर वैराग्य
सम्प्रज्ञात समाधि का लाभ हो सकता है और पर वैराग्य से असम्प्रज्ञात समाधि का लाभ होता है । इस प्रकार योग-दर्शन में समाधि का स्वरूप, उसके भेद आदि का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है । साधक अपनी योग्यता और शक्ति के अनुसार उसकी साधना कर सकता है ।
सांख्य और योग :
गोता में भी बहुत कुछ
सांख्य और योग के सम्बन्ध में कहा गया है । वहाँ सांख्य को बुद्धि कहा गया है, और योग को कर्मयोग कहा गया है । वास्तव में जीवन की साधना के लिए ज्ञान और क्रिया दोंनों की आवश्यकता है । सांख्य दर्शन ज्ञान प्रधान है, और योग दर्शन क्रिया-प्रधान है । सांख्य दर्शन भेद-विज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताता है, जबकि योग दर्शन चित्त की वृत्तियों का निरोध करके क्रियात्मक योग को साधना के द्वारा मोक्ष का विधान करता है । भारतीय दर्शनों में एक वेदान्त दर्शन ही एकमात्र ज्ञान पर बल देता है, इसके अतिरिक्त अन्य सभी दर्शन ज्ञान के साथ क्रिया एवं साधना का भी उतना हो अधिक महत्त्व स्वीकार करते हैं । सांख्य दर्शन ने ज्ञान पर अधिक बल दिया तो योग दर्शन ने क्रिया पर अधिक जोर दिया ? जैन-दर्शन भी ज्ञान-क्रिया के समन्वय से ही मोक्ष की प्राप्ति स्वीकार करता है। उसका कहना है, कि ज्ञान के साथ क्रिया और
१ भारतीय दर्शन, पृ. २३६
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