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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
११८
वेद की अपौरुषेयता :
वाक्य दो प्रकार के होते हैं- पौरुषेय और अपौरुषेय । पौरुषेय वाक्य की प्रमाणता तभी मानी जाती है, जब वह आप्त-पुरुष के द्वारा व्यवहृत किया गया हो । अपौरुषेय स्वयं श्रुति है । हमारे आप के वचन पौरुषेय वाक्य हैं, परन्तु वेद अपौरुषेय है । इसके लिए मीमांसा दर्शन में तीन प्रकार से तर्क प्रस्तुत किया जाता रहा है
१. नैयायिक लोग वेद को ईश्वर की रचना मानते हैं, इसलिए वेद उनकी दृष्टि में पौरुषेय होता है । परन्तु मीमांसा दर्शन ईश्वर की सत्ता नहीं मानता। अतः ईश्वर के अभाव में उसकी रचना का प्रश्न ही नहीं उठता । इस तर्क से ईश्वर का निषेध किया गया है ।
२. वेद में किसी कर्ता का नाम नहीं पाया जाता । कतिपय मन्त्रों में ऋषियों के नाम अवश्य पाये जाते हैं । परन्तु वे मन्त्रों के दृष्टा हैं, कर्ता नहीं । ऋषि शब्द का अर्थ ही दृष्टा है ।
३. वेद की नित्यता का सर्वाधिक प्रबल प्रमाण है - शब्द की नित्यता, और दार्शनिक दृष्टि से मीमांसकों का यह शब्द - नित्यतावाद बड़े ही महत्त्व का है । वेदों की नित्यता का सर्वश्रेष्ठ साधक प्रमाण शब्दों की नित्यता है । वेद नित्य शब्द समूहात्मक हैं ।
इस प्रकार मीमांसा दर्शन में मुख्य रूप से दो ही विषयों का वर्णन किया जाता है । मीमांसा - दर्शन में पहले ईश्वर को नहीं माना गया था, किन्तु बाद में नवीन मीमांसा दर्शन में ईश्वर को मान लिया गया । कार्यकारण नियम को जिस प्रकार अन्य दर्शन स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी स्वीकार करता है, परन्तु उसकी अपनी एक नयी दृष्टि भी है । इस का तर्क है, कि कार्य की उत्पत्ति के लिए कारण के अतिरिक्त शक्ति भी होनी चाहिए। बीज से अंकुर होते हैं, यह सत्य बात है, परन्तु यदि कारण से बीज की शक्ति नष्ट हो जाए, तो कितना भी परिश्रम करने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता । जब तक यह शक्ति अक्षुण्ण बनी रहती है, तभी तक बीज से अंकुर उत्पन्न हो सकते हैं, अन्यथा नहीं । इस प्रकार शक्ति एक विशिष्ट पदार्थ है । संक्षेप में मीमांसा दर्शन की यही मान्यता रही है । मीमांसा दर्शन सबसे प्राचीन दर्शन है, और वेदों की नित्यता इसका मुख्य विषय रहा है ।
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