________________
भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त १०७ है । वह जगत का निमित्त कारण है, और परमाणु जगत के उपादान कारण हैं । जगत नैतिक प्रयोजन का साधक है । ईश्वर जीवों के सुख-दुःख के लिए उनके धर्माधर्म के अनुसार परमाणुओं से जगत को उत्पन्न करता है। धर्म सुख भोग का कारण है, और अधर्म दुःख भोग का । इस प्रकार वैशेषिक परमाणुवाद को सर्वथा भौतिकवादी नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार वैशेषिक-दर्शन में परमाणुवाद पर अनेक दृष्टिकोणों से गम्भीर विचार किया गया है। न्याय-दर्शन का ईश्वरवाद :
न्याय-दर्शन में दो सिद्धान्तों पर विशेष विचार किया गया हैप्रमाण और ईश्वर । प्रमाण के सम्बन्ध में जितना सूक्ष्म विवेचन न्यायदर्शन में किया गया है, उतना अन्यत्र नहीं। प्रमाण का विभाजन, उसका लक्षण, और उसके स्वरूप का प्रतिपादन विस्तार के साथ किया गया है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम-इन चार प्रकार के प्रमाणों का, जो वस्तुतः हमारे ज्ञान के मूल आधार हैं, न्याय-दर्शन में इनका विश्लेषण और विवेचन अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका है। अन्य प्रमाणों की अपेक्षा भी अनुमान प्रमाण पर विशेष बल दिया गया है। न्याय दर्शन का दूसरा विषय है-ईश्वरवाद । वास्तव में ईश्वरवाद न्याय-दर्शन का केन्द्रीय विचार कहा जा सकता है। न्याय-सूत्र प्रणेता गौतम, उसके भाष्यकार, वृत्तिकार और टीकाकार सभी ने ईश्वरवाद पर अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दी है। 'न्याय-कुसुमांजलि' ग्रन्थ में तो ईश्वर सिद्धि एकमात्र विषय रखा गया है। इस प्रकार न्याय-दर्शन में विभिन्न तर्कों के आधार पर ईश्वर की सिद्धि का प्रयत्न किया गया है। इसी आधार पर यह कहा जाता है, कि न्याय-दर्शन का मुख्य विषय ईश्वरवाद ही है ।
____ गौतम ने ईश्वर का उल्लेख अपने मूल-सूत्रों में किया था । वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र, उदयन, जयन्त भट्ट और गंगेश तथा अन्य उत्तरकालीन नैयायिकों ने ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण-विस्तार से दिये हैं, और उसके स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया है। न्याय-वैशेषिक के संयुक्त दर्शन के ग्रन्थकार ईश्वरवादी रहे हैं। नैयायिक लोगों का यह मानना है, कि ईश्वर की कृपा से जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन के साथ-साथ ईश्वर की कृपा को भी आत्म-ज्ञान का साधन न्याय-दर्शन में माना गया है। न्याय-ग्रन्थों में दो प्रश्नों पर विचार किया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org