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भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त
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आदि को मुख्य गुण माना था । परमाणुओं में मुख्य और गौण दोनों ही प्रकार के गुण होते हैं । जैन दर्शन के अनुसार परमाणु में चार गुण हैंवर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श । जब दो परमाणुओं से मिलकर एक पदार्थ बनता है, तब उसे द्वणुक कहा जाता है । वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्वणुक का समवाथि कारण दो परमाणु है, और असमवायि कारण उनका संयोग है, तथा निमित्त कारण अदृष्ट है । इस प्रकार परमाणु के संयोग और वियोग से स्थूल एवं सूक्ष्म पर्याय बदलती रहती है । पर्याय भले ही बदले, पर परमाणुओं का कभी विनाश नहीं होता । परमाणु इतना सूक्ष्म होता है, कि हम उसे देख नहीं सकते, लेकिन योगी, ऋषि और ईश्वर उन्हें देख सकते हैं । सामान्य मनुष्य को त्रसरेणु का ही चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है । प्रकाश में जो कण हमें नजर आते हैं, वे परमाणु नहीं हैं, बल्कि त्रसरेणु हैं । इस प्रकार परमाणु के स्वरूप का प्रतिपादन और व्याख्या की जाती है । अस्तित्व में प्रमाण :
जब यह पूछा जाता है, कि परमाणु है ? इसमें क्या प्रमाण है ? इस प्रश्न के उत्तर में वैशेषिक - दार्शनिकों का कहना है, कि आकाश का परिमाण परम- महत्व होता है । अतः यह स्वाभाविक है, कि परम- महत्व परिमाण के विपरीत सर्वाति लघु परिमाण भी होना चाहिए। परमाणु का परिमाण सबसे लघु अथवा लघुतम कहा गया है। जैसे - विस्तार की एक निश्चित सीमा आकाश में नजर आती है, वैसे ही विभाजन की भी परमाणुओं में एक निश्चित सीमा होनी चाहिए दूसरा प्रमाण यह दिया जाता है, कि जितने भी सावयव द्रव्य होते हैं, वे सब अनित्य होते हैं, और जो अनित्य होते हैं, उनकी उत्पत्ति भी होती है और विनाश भी होता है । वे परिवर्तनशील और विभाज्य होते हैं । अतः वे इस प्रकार के घटकों के बने हुए हैं, जो नित्य, अपरिवर्तनशील और अविभाज्य है । वास्तव में, ये घटक ही परमाणु है । तीसरा प्रमाण यह है, कि मूर्त द्रव्य विभागों में विभाजित होते हैं, और ये भाग और भी लघुतम भागों में, लेकिन विभाजन की यह प्रक्रिया अनन्त काल तक नहीं चल सकती । अनवस्था दोष से बचने के लिए हमें कहीं न कहीं रुकना होगा, और जहाँ हम रुकते हैं, वे ही परमाणु हैं, जिनका विभाजन नहीं हो सकता । यदि मूर्त-द्रव्यों के विभाजन का कोई अन्त न माना जाए, तो उनमें से हर एक के अनन्त
१ भारतीय दर्शन, पृष्ठ ६५
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