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भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त १०३ योग्य है। इसके अतिरिक्त अन्य आचार्यों ने भी समय-समय पर विधि-निषेध, उभय और अनुभय को लेकर वस्तुस्थिति पर विचार किया था। आचार्य शंकर एवं धर्मकीर्ति आदि ने स्याद्वाद में विरोध, संशय और अज्ञान आदि जिन दोषों की उद्भावना की थी, उन सभी का निराकरण अपने-अपने युग के सभी जैनाचार्यों ने किया था। जैनाचार्यों ने तो बार-बार इस बात को उद्घोषणा की थी, कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, और साथ में यह भी कहा, कि इस प्रकार का एक भी दर्शन नहीं है, जो किसी न किसी रूप में स्यावाद को स्वीकार न करता हो । सभी दर्शनों में स्याद्वाद को अपने-अपने ढंग से स्वीकार किया है। परन्तु इसका जितना क्रमबद्ध और व्यवस्थित वर्णन जैन-दार्शनिक-साहित्य में उपलब्ध है, वैसा अन्यत्र नहीं। कुछ आधुनिक विद्वानों ने भी इस सिद्धान्त की समालोचना की है। उस समालोचना पर से ज्ञात होता है, कि कुछ ने तो इसको समझा ही नहीं, और कुछ ने इसे समझकर भी इसके साथ न्याय नहीं किया। किसी भी सिद्धान्त को सम्यक्तया न समझा जाए, तब तक उसकी आलोचना का अधिकार कैसे हो सकता है । वेदांत-परम्परा एकांत नित्यवाद पर बल देती रही है, जबकि दूसरी ओर बौद्ध-परम्परा एकांत क्षणिकवाद पर। इन दोनों का समन्वय ही अनेकांतवाद अथवा स्याद्वाद है। वैशेषिक-दर्शन का परमाणुवाद :
वैशेषिक दर्शन में पदार्थ-मीमांसा पर बड़ा बल दिया गया है । पदार्थमीमांसा जैसी वैशेषिक-दर्शन में हई है, वैसी अन्य किसी दर्शन में नहीं। इसकी पदार्थ-मीमांसा व्यवस्थित और विस्तृत है। इसी पदार्थ-मीमांसा के अन्तर्गत परमाणुवाद भी आया है। भारतीय-दर्शन में सर्वप्रथम परमाणवाद पर कणाद ऋषि ने ही विस्तार के साथ विचार किया था । यही कारण है, कि वैशेषिक दर्शन परमाणुवादी अथवा पदार्थवादी कहा जाता है। पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणु नित्य होते हैं, जिनके संयोग से अनित्य मूर्त द्रव्य उत्पन्न होते हैं । आकाश एक, विभु और नित्य है । इसके परमाणु नहीं होते । पृथ्वी, जल. तेज और वायु के बने हुए मूर्त द्रव्य सावयव होते हैं। क्योंकि उन्हें खण्डों में विभक्त किया जा सकता है, और उन खण्डों को फिर और छोटे-छोटे खण्डों में विभक्त किया जा सकता है। और अन्त में विभाजन की यह प्रक्रिया करते-करते हम परमाणु में जा पहुँचते हैं, जोकि अविभाज्य हैं । परमाणु वस्तुओं के सूक्ष्मतम अवयव है। वे अविभाज्य और
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