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५२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
कर्म के स्थान पर वहां अदृष्ट शब्द का प्रयोग किया है । अदृष्ट का अर्थ है - पुण्य एवं पाप, अथवा शुभ और अशुभ कर्मों का वह समुदाय जो समयानुकूल फल प्रदान करता है । यही है, संसार के चक्र की वह स्थिति जिसको बन्ध कहा गया है । क्योंकि प्रत्येक जन्म में कर्म करने से वर्तमान तथा अनागत जन्मों में फल - भोग का चक्र नित्य निरन्तर चलता रहा है, जिसको षोडश पदार्थों के तथा द्वादश प्रमेयों के तत्त्वज्ञान से रोका जा सकता है । यही है. अपवर्ग तथा मोक्ष । संसार के कारण चार हैं - राग, द्वेष, मोह और प्रवृत्ति । तत्त्वज्ञान से इनका अभाव हो जाता है । वैशेषिक दर्शन में पाँच कर्म स्वीकृत हैं - उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन । कर्म के अन्य प्रकार से दो भेद होते हैं- सत्प्रत्यय तथा असत्प्रत्यय | प्रयत्नजन्य कर्म सत्प्रत्यय कहा जाता है, और अप्रयत्न जन्य कर्म असत्प्रत्यय कहा गया है ।
सांख्ययोग दर्शन :
योग-सूत्र के व्याख्याकारों ने योगी और अयोगी के भेद से कर्म का विभाजन किया है । पुण्य या शुभ कर्म शुक्ल और पाप या अशुभ कर्म कृष्ण कहलाता है । योगी के कर्म अशुक्ल अकृष्ण होते हैं। उनसे योगी को संमार का बन्धन नहीं होता । अयोगी के कर्म तीन हैं-शुक्ल, कृष्ण एवं शुक्लकृष्ण । अतः वे बद्ध जीव कहे जाते हैं । कर्मों का मूल कारण संक्लेश है । कर्मों से क्लेश एवं क्लेशों से कर्म उत्पन्न होते हैं । कर्म, वासना, आशय एवं संस्कार ये शब्द पर्याय वाचक हैं, सबका एक ही वाच्य है ।
सांख्य दर्शन भी भारत का प्राचीन दर्शन रहा है । इसमें पच्चीस तत्त्वों की मान्यता रही है, लेकिन मुख्य रूप में दो हो तत्त्व हैं - पुरुष और प्रकृति | पुरुष है, चेतन । प्रकृति है, जड़ । दोनों का अनादि काल से संयोग है । यह संयोग हो तो सांख्य में संसार कहा गया है । भेद विज्ञान से प्रकृतिपुरुष का वियोग हो जाता है । यही है, अपवर्ग अथवा मोक्ष | सांख्य दर्शन ज्ञान प्रधान दर्शन है । पुरुष भोक्ता है । प्रकृति कर्ता है । पुरुष निष्क्रिय तथा निर्लेप है । बन्धन प्रकृति का होता है । पुरुष को न बन्धन है, और न मोक्ष है । जब बन्धन ही नहीं, तो मोक्ष किसका ? सांख्य दर्शन में कर्म नहीं, उसके स्थान पर प्रकृति को माना गया है । क्रिया प्रकृति में मानी है, पुरुष तो कूटस्थ नित्य है |
मीमांसा दर्शन :
मीमांसा दर्शन का प्रधान विषय है- यज्ञ, होम तथा वेद विहित
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