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कर्म तत्त्व मीमांसा ५५ सभी मतों में, पुनर्जन्म एवं पुनर्भव के कारण रूप से कर्म तत्त्व को स्वीकार किया है। कर्म का स्वरूप और भेद :
लोक भाषा में कहा जाता है, कि यथा बीजं तथा फलं, जिस प्रकार का बीज होता है, उसी प्रकार का उसका फल भी होता है। न्याय-शास्त्र की भाषा में इसको कार्य-कारण भाव कहना संगत होगा। अध्यात्म शास्त्र में, इसको क्रियावाद अथवा कर्मवाद कहते हैं। भगवान महावीर अपने को क्रियावादी कहते थे । क्रिया ही कर्म बन जातो है। जो कर्मवादी होगा, वह लोक-परलोकवादी होगा। परलोकवादी आत्मवादी अवश्य होगा । कर्म-शास्त्र पर जैन विद्वानों ने पर्याप्त लिखा है, क्योंकि कर्मवाद जैन दर्शन का मुख्य विषय रहा है । आधुनिक भाषा में इसे हम कर्म विज्ञान कह सकते हैं।
जीव जैसा कर्म करता है, शुभ या अशुभ उसको वैसा ही फल मिलता है, सूख अथवा दुःख । सूख-दुःख को भोग कहते हैं, वह प्रिय भी होता है, अप्रिय भी । अनुकूल भी होता है, प्रतिकूल भी । कर्म सिद्धांत की यह एक सर्वगम्य और सर्वग्राह्य, परिभाषा है । कर्म सिद्धांत का प्रतिपादन, सभी ने किया है । महावीर ने, बुद्ध ने, कपिल ने, पतञ्जलि ने, गौतम ने, कणाद ने, जैमिनि ने और व्यास ने । ये सब अध्यात्मवादी युग-पुरुष हैं। आत्मवादी होने के नाते इन के द्वारा कर्म सिद्धान्त का स्वीकार करना परम आवश्यक था । ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने वाले, और उसकी सत्ता का निषेध करने वालों को भी कर्मवाद स्वीकार करना पड़ा है। वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान, कर्मवाद के बिना सम्भव नहीं । नास्तिक चार्वाक के समक्ष, न भूत है, न अनागत है। क्योंकि उसे त्रैकालिक सत्ता पर रंच भर भी विश्वास नहीं है।
परलोक में विश्वास करने वाले विद्वानों का मत है, कि प्रत्येक शुभाशुभ कर्म अपना संस्कार छोड़ता है, क्योंकि प्रत्येक कर्म के मूल राग अथवा द्वष होता ही है । अल्पकाल की क्रिया हो, या दीर्घकाल की। उस का संस्कार फलोदय तक स्थायी रहता है। क्रिया, क्रिया से संस्कार, संस्कार से प्रवृत्ति, प्रवृत्ति से कर्म बन्ध-यह संसार-चक्र है। कर्म, संस्कार मात्र ही नहीं होता, वह जैन दर्शन को अवधारणा के अनुसार वस्तु भूत पदार्थ भो है । कर्म केवल भावना रूप ही नहीं, एक भौतिक पदार्थ भी है। जीव की राग-द्वेष रूप क्रिया से आकर्षित होकर, वह जीव से बंधता है,
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