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कर्म तत्त्व मीमांसा ५३ अनुष्ठान कर्म । उसके अनुसार वेद विहित कम, धर्म है। वेद निषिद्ध कर्म, अधर्म है । वेद विहित कर्म चार प्रकार का माना गया है-नित्य, नैमित्तिक, काम्य और निषिद्ध कर्म । मीमांसक विद्वानों का मत है, कि धर्म का परिपालन अवश्य ही करना चाहिए, क्योंकि धर्म करने वाले को फल की प्राप्ति अवश्य होती है। वह धर्म क्या है ? उनका उत्तर है, कि यज्ञ कर्म और होम कम । कम क्रिया रूप होता है, क्रिया कुछ क्षणों में नष्ट हो जाती है। इस लोक में कृत कर्म से एक अदृष्ट शक्ति प्रकट होती है, इस शक्ति को मीमांसा-शास्त्र में, अपूर्व कहा गया है। जन्मान्तर में यही कर्म का फल प्रदान करता है । मीमांसा दर्शन के परम पण्डित कुमारिल भट्ट ने भोगायतन, भोग-साधन और भोग्य विषय-इन त्रिविध बन्धनों को जीव के भवबन्धन का कारण कहा है। भोगायतन है शरीर । भोग-साधन है, इन्द्रियाँ । भोग के विषय हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द । अज्ञानवश जीव अनेक योनियों में भ्रमण करता है। वेदान्त दर्शन :
___ वेदान्त को अद्वैत दर्शन कहा है। अद्वैत का अर्थ है-जहाँ पर दो तत्त्व नहीं, एक ही तत्त्व माना है। वह एक तत्त्व है, ब्रह्म। ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् में अन्य कुछ भी नहीं है । जगत् की विचित्रता, विश्व की विविधता, अविद्या जन्य है । माया के कारण है, जगत भ्रम है, माया है। सर्वत्र चेतन है, जड कहीं है ही नहीं। यह सिद्धान्त ही अद्वैत के नाम से विख्यात है । अविद्या से काम उत्पन्न होता है । काम से कर्म उत्पन्न होता है। काम, इच्छा, आसक्ति से प्रेरित होकर प्राणी क्रिया करता है-कर्म-हेतुः कामः स्यात् । यही संसार-चक्र है, जो दिवा-निशा'घूमता रहता है । यही है, बंधन, जिसमें जीव बद्ध होकर अपने स्वरूप को भूल बैठा है । क्षणिक विषय सेवन में आसक्ति के कारण, उसके चित्त में कभी प्रसन्नता, तो कभी खिन्नता भो होती है । यही संसार का सुख-दुःख है। जो जीव के अपने शुभ-अशुभ कर्म के परिणाम रूप उसको इस जीवन में, जन्मान्तर में प्राप्त होता रहता है। वेदान्त में कर्म के तीन प्रकार हैं-संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध । प्रकारान्तर से भी कम के तीन अन्य भेद हो सकते हैं-विहित, निषिद्ध तथा उदासीन । चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत के अन्य दर्शन कम की सत्ता को किसी न किसी रूप रूप में स्वीकार करते हैं। प्रक्रिया सब को अलगअलग है । इस मत में सब एक है, कि आसक्ति बन्धन का मूल है । कषायमूलक कर्म अवश्य अपना फल देता है ।
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