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६४ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय हैं, उसके स्वरूप के विषय में भिन्नता अवश्य है। परमाणवादी वैशेषिक दर्शन कर्म को चेतननिष्ठ मानकर, उसे चेतन धर्म कहता था । प्रधान एवं प्रकृतिवादी सांख्य दर्शन उसे अन्तःकरण स्थित मानकर, जड़ धम कहता था। परन्तु जैन दर्शन की प्रक्रिया दोनों से ही भिन्न है । क्योंकि जैन दर्शन परिणामवादी है । अतः वह कर्म को चेतन और जड़ उभय रूप मानता है। जैन दर्शन कर्म की इस स्थिति को भाव कर्म और द्रव्य कर्म कहता है।
__ जैन दर्शन में कम तत्त्व के उभय रूप आज भी मान्य हैं, और बहुत पुरातन युग में भी मान्य था। जैन दर्शन में कर्म तत्त्व का चिरकाल से विशेष स्थान रहा है। भारत के महान दार्शनिक पण्डित प्रवर श्री सुखलाल जी के विचार में जैन दर्शन की विशिष्ट कम -विद्या भगवान पार्श्वनाथ के पहले अवश्य रह चुकी थी। इस विद्या के धारक को कर्म-शास्त्रज्ञ कहा जाता था। कर्म-तत्त्व का मूल-स्रोत जैन सिद्धान्त में मान्य चतुर्दश पूर्वो से आग्रायणीय पूर्व तथा कर्म-प्रवाद पूर्व कहा जाता है । पूर्व शब्द का अभिप्राय भगवान महावीर के पहले से चला आने वाला शास्त्र विशेष हैं। कर्म शब्द के पर्याय :
___ जैन शास्त्र में कम शब्द के दो अर्थ होते हैं-प्रथम राग-द्वेषात्मक परिणाम, जिसे कषाय कहते हैं, ये ही भाव कम कहे जाते हैं । द्वितीय कामण जाति के पुद्गल विशेष, जो कषाय के निमित्त से आत्मा के साथ साथ सम्बद्ध होते हैं, ये ही द्रव्य कर्म कहे जाते हैं। कर्म के स्थान पर वेदान्त में माया, बौद्ध में अविद्या, सांख्य में प्रकृति, योग में आशय एवं वासना, जैमिनि में अपूर्व और न्याय में तथा वैशेषिक में धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव और भाग्य कहे जाते हैं। जितने आत्म-वादी दर्शन हैं, वे सब पुनर्जन्म तथा उत्तर जन्म को मानते हैं, उनकी सिद्धि के लिए कर्म मानना ही पड़ता है। भाव कम के होने में द्रव्य कर्म निमित्त है, और द्रव्य कम में भाव कम निमित्त है। इस प्रकार दोनों का परस्पर बीजांकुर की भांति कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध अनादि काल से है। कार्मण की अपेक्षा कम, अनादि, प्रवाह रूप में अनादि है, परन्तु व्यक्ति रूप में सादि भी कहा जा सकता है।
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