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७६ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
(२) इसमें शास्त्र श्रवण, सत्संग और वैराग्य का अभ्यास एवं निरन्तर सदाचार में प्रवृत्ति बढ़ती जाती है।
(३) इसमें शुभ इच्छा और विचारणा के कारण विषयों में आसक्ति कम होती है।
(४) इसमें सत्य एवं शुद्ध आत्मा में स्थिति होती है।
(५) इसमें असंग रूप परिपाक से चित्त में निरतिशय आनन्द का प्रकटीकरण होता है।
(६) इसमें बाह्य और आभ्यन्तर सभी पदार्थों को अनिच्छा हो जाती है।
(७) इसमें जीवन्मुक्त जैसी अवस्था होती है । भेदभाव नहीं रहता। विदेह मुक्ति की अवस्था इसके बाद में तर्यातीत दशा है।
योग सूत्र में अन्य प्रकार से भी चित्त विकास की भूमिकाओं का वर्णन है । जैसे कि चित्त की पाँच अवस्थाएँ होती हैं-मूढ, विक्षिप्त, क्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध । बौद्ध दर्शन में गुण-विकास :
जैन दर्शन और वैदिक दर्शन की भाँति वौद्ध दर्शन में भी आत्मा के विकास क्रम के विषय में विचार किया गया है। उसमें भी आत्मा को संसार और मोक्ष दशाएँ मानी हैं। वहाँ विकास की षट् दशाओं का वर्णन है
१. अन्ध पृथक् जन २. कल्याण पृथक् जन ३. स्रोतसापन्न ४. सुकृदागामी ५. औपपातिक ६. अर्हन् ।
पृथक्जन का अर्थ होता है-सामान्य मनुष्य । बौद्ध साहित्य में दश प्रकार के बन्धनों का वर्णन किया है। अन्ध पथक जन और कल्याण पृथक जन में दश प्रकार की संयोजनाएँ होती हैं। दोनों में अन्तर यह है. कि पहले को आर्य दर्शन और सत्संग की प्राप्ति नहीं होती हैं। दूसरे को प्राप्त होती हैं। दोनों निर्वाण मार्ग से पराङ मुख हैं। निर्वाण को प्राप्त करने
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