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भारतीय दर्शन के विशेष-सिद्धान्त
भारतीय-दर्शनों में प्रत्येक दर्शन का अपना एक विशिष्ट दृष्टिकोण होता है और यह दृष्टिकोण ही उसके दर्शन का केन्द्रीय विचार अथवा मुख्य विचारण कही जाती है। भारत में जितने भी दार्शनिक सम्प्रदाय हए है, प्रत्येक सम्प्रदाय अपने एक विशेष विचार को लेकर ही चला है। और अपनी सम्पूर्ण शक्ति उसी को पुष्ट करने में लगा दी थी। यद्यपि भारतीय-दर्शनों में कुछ सामान्य बातें इस प्रकार की अवश्य है, जो सभी में समान रूप से कुछ हेर-फेर के साथ मिल जाती हैं। जैसे प्रमाण-मीमांसा प्रायः सभी की एक जैसी रहती है। लक्षण और स्वरूप में कोई भेद होने पर भी उसके उद्देश्य और उसके ध्येय में कुछ अन्तर नहीं रहता। आचारमीमांसा भी भारतीय-दर्शनों में कुछ अन्तर के साथ एक जैसी ही चलती है । जैसे जैन परम्परा में जिसको पंच महाव्रत कहा गया, वैदिक परम्परा में पांच यम और बौद्ध परम्परा में उसी को पंचशील कहा गया है । भारतीय आचार-शास्त्र के मूल मन्तव्य यही है और शेष जो कुछ है इसी का विशेष विश्लेषण अथवा विस्तार है। तत्त्व-मीमांसा के सम्बन्ध में भारतीय-दर्शनों में पर्याप्त मतभेद दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु उसमें भी समानता न हो, यह नहीं कहा जा सकता। तत्त्वों की संख्या में मतभेद हो सकता है, उनके स्वरूप के प्रतिपादन में भी मतभेद हो सकता है, पर यह सत्य है, कि भारत की प्रत्येक दाशनिक-परम्परा ने तत्त्व के सम्बन्ध में विचार किया है। उन सभी तत्त्वों को कम से कम दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-जड़ और चेतन । इसमें किसी ने जड़ पर अधिक विश्लेषण प्रस्तुत किया, तो किसी ने चेतन पर अधिक बल दिया। किसी ने इसको प्रकृति और पुरुष कहा, तो किसी ने इसे जोव और अजीव कहा, परन्तु इन दो तत्त्वों का ही विकास और विस्तार भारतीय-तत्त्व-मीमांसा में किया गया है। कार्यकारण-मीमांसा के सम्बन्ध में भी भारतीय-दर्शनों में समानता दृष्टिगोचर
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