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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
है । एक कुशल किसान बीज के कार्य-कारण भाव को पहचानता है । एक चतुर वैद्य रोग और रोग के कार्य-कारण भाव को जानता है। कृषक और वैद्य, बीज और रोग नाश के कार्य-कारण के भाव को उत्पन्न नहीं करते । इस पर से यह सिद्ध हो जाता है, कि प्रत्येक व्यवस्थापक किसी 'वस्तु के स्वभाव में प्रकृत रूप से विद्यमान व्यवस्था को जानकर उस वस्तु का उपयोग एवं प्रयोग करता है । वह उसके स्वरूप को, स्वभाव को और व्यवस्था को उत्पन्न नहीं कर सकता । जड़वाद अपने समर्थन में इसी प्रकार के अन्य तर्क भी प्रस्तुत करना है, और कहता है, कि जगत में जो कुछ था, वही आज है और भविष्य में वही रहने वाला है ।
परिवर्तनशीलता :
जड़वादी चार्वाक का कहना है, कि इसका अर्थ इतना ही है कि जड़ से भिन्न चेतन जैसी वस्तु अन्य नहीं है । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है, कि जगत में किसी प्रकार का परिवर्तन न होता हो । परिवर्तन तो जगत का स्वभाव है, और वह रात-दिन होता ही रहता है । हम इच्छा करें अथवा न करें, पर परिवर्तन होता ही रहता है । प्रत्येक मनुष्य के सामने वस्तुओं के परिवर्तन के स्वरूप नित्य ही प्रकट होते रहते हैं । आज का विज्ञान कहता है, कि इस धरती पर पहले न तो कोई प्राणी था, और न वनस्पति ही । फिर धीरे-धीरे वनस्पति और प्राणी उत्पन्न हुए। सब से अन्त में मनुष्य आया । मनुष्य के उत्पन्न हो जाने से इस विश्व में अनेक परिवर्तन उसकी बुद्धि के कारण ही हुए। उसने समाज और जगत के अनेक नियम बनाए और उसमें भी समय-समय पर परिवर्तन होता रहा। आज हम जिस विश्व में रहते हैं, उस विश्व का आदि स्वरूप आज से सर्वथा भिन्न था । वस्तु की इसी परिवर्तनशीलता का नाम ही वस्तुतः विश्व है । इस परिवर्तन के कारण विश्व का चक्र चल रहा है, जैसे यन्त्र का एक पहिया घूमा कि दूसरा स्वयं ही घूमने लगता है । अणु-रूप द्रव्यों से निर्मित इस जगत के अणुओं के आपस में मिलने, और उनके एक दूसरे से अलग हो जाने से ही गति का प्रारम्भ होता है । यही गति अथवा परिवर्तन प्रत्येक वस्तु का स्वाभाविक धर्म है । इस परिवर्तन का इतिहास कब से और कहाँ से प्रारम्भ होता है, इसका उत्तर इन जड़वादी दार्शनिकों के पास नहीं है । भौतिकवादी अथवा जड़वादी दार्शनिकों ने अपने ढंग से जगत का जो चिन्तन प्रस्तुत किया, उसी का यह परिणाम है, कि उन्होंने इस जगत की व्यवस्था को बदलने का प्रयत्न किया, और चेतनवाद से इन्कार करके जड़
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