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भारतीय-दर्शन के विशेष सिद्धान्त ८५ प्रत्यक्ष देखने में आती हैं, वे सभी शरीर के विकास पर निर्भर हैं। शरीर का जितना ही कम विकास होगा, ज्ञान भी उतनी ही कम मात्रा में विकसित होगा । सम्पूर्ण मनोवृत्तियाँ ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर हैं । इन ज्ञानेन्द्रियों के विकसित हए बिना ज्ञान एवं आत्मा के विकास का मार्ग सीमित ही है। अतः शरीर से भिन्न न आत्मा का अस्तित्व है, और न मन का ही अस्तित्व है । देहात्मभाव के सम्बन्ध में आचार्य,शंकर ने अपने शाकर भाष्य की प्रस्तावना में और समन्वय-सूत्र भाष्य के अन्त में कहा है, कि देह ही आत्मा है, यह प्रतीति समस्त जीव व्यापारों के मूल में कार्य करती है। उनका तो यहाँ तक कहना है, कि आत्मा को देह से भिन्न मानने वाले तत्त्ववेत्ता भी व्यावहारिक दृष्टि से स्वयं देहात्मवादी होते हैं। जैसा कि देखने में आता है, चार्वाक को छोड़कर भारतीय-तत्त्ववेत्ताओं ने यही स्वीकार किया है, कि आत्मा देह से अलग है, किन्तु चार्वाक का कहना है, कि देह आत्मा से भिन्न नहीं है। आधुनिक युग में जीव-शास्त्र और मानसशास्त्र ने जो कुछ विश्लेषण एवं विचार किया है, उसके आधार से यही कहा जा सकता है, कि चार्वाक का जड़वाद अथवा भौतिकवाद ही उससे सिद्ध होगा । उक्त दोनों विद्याओं के आधार पर शरीर में शरीर से भिन्न चेतन की सिद्धि अभी तक नहीं हो सकी है। आज के भौतिकवादियों का विश्वास है, कि वे दिन अब दूर नहीं है, जबकि सभी लोग यह स्वीकार करने लगेंगे, कि जड तत्त्व के अतिरिक्त इस संसार में अन्य कोई तत्त्व सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार जड़वादी-दर्शन जड़ के आधार पर ही विश्व, जीवन और अन्य समस्याओं का समाधान आज तक करते आ रहे हैं। द्रव्य का स्वरूप और स्वभाव :
जिस एक वस्तु से दूसरो वस्तु उत्पन्न होती है, और जिसके गुण एवं धर्म होते हैं, उसे द्रव्य कहा जाता है। यह समस्त जगत द्रव्य और गुणों का ही पिण्ड है । ये भोतिक द्रव्य, जिनमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श होते हैं, उनमें यह अनेकता किसी के द्वारा निर्मित न होकर अपनी स्वाभाविक है । वास्तव में इसी को द्रव्यों का स्वरूप कहा गया है। संख्या, परिमाण और कार्यकारण भाग उसके अंग हैं। उनका निर्माण नहीं किया जा सकता, बल्कि उनमें प्रकृत रूप से वर्तमान रहने के कारण उनको पहचाना जाता है, उनकी संख्या की जाती है, और उनके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाता
१ भारतीय दर्शन-वाचस्पति गैरोला, पृ० ८०
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