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८२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय होती है । इस प्रकार का एक भी सम्प्रदाय नहीं है, जो कार्य और कारण के नियमों को स्वीकार न करता हो । दर्शन-शास्त्र के ये ही सब मुख्य विषय रहे हैं। भारतीय दर्शनों के केन्द्रीय विचार :
। जैसा कि अभी कहा था, प्रत्येक दर्शन का अपना मुख्य विचार होता है । उस परम्परा के दार्शनिक विद्वान इधर-उधर घूम कर भी अपने उसी विचार का पोषण करते हैं । और यह प्रमाणित करने का प्रयत्न करते हैं, कि हमारा मन्तव्य ही सत्यभूत है और उस सिद्धान्त को तर्क और वितर्को से खूब परिपुष्ट किया जाता है। जैसे उपनिषदों की विचार-धारा का मुख्य उद्देश्य आत्मवाद है। जो कुछ है सो आत्मा ही है, आत्मा के अतिरिक्त अथवा चेतन के अतिरिक्त इस जगत में अन्य कुछ नहीं है। इसको प्रतिक्रिया में चार्वाक का जड़वाद प्रसिद्ध है। चार्वाक-सम्प्रदाय का मुख्य सिद्धान्त जड़वाद ही है। उसने आत्मा के अस्तित्व से स्पष्ट इन्कार किया और कहा कि चार भूत के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । सब कुछ उसी का खेल है। गीता और महाभारत में इन विचारों के सूक्ष्म बीज उपलब्ध होते हैं। गीता ने समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया और निष्काम कर्मयोग पर विशेष बल दिया। जैन-दर्शन का मूल दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही समन्वयास्मक अथवा अनेकान्तमय रहा है । जैन-दर्शन में जो कुछ लिखा गया, वह सब अनेकान्तमय एवं स्याद्वादमय ही होता है। अतः जैन-दर्शन का अन्तिम परिणाम अनेकान्तवाद ही रहा । बौद्ध-दर्शन का परिपाक उसके शून्यवाद और विज्ञानवाद में हुआ। सांख्य-दर्शन की चरम परिणति को परिणामवाद कहा जा सकता है। योग-दर्शन में ध्यान और समाधि पर विशेष बल दिया गया है। न्याय-दर्शन का अपना उद्देश्य ईश्वरवाद रहा। ईश्वर का अस्तित्व पुष्ट प्रमाणों के आधार पर न्याय-दर्शन प्रस्तुत करता है । वैशेषिक दर्शन की विशेषता परमाणुवाद अथवा पदार्थ-मीमांसा रही है। मीमांसादर्शन ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति वेद के कर्मकाण्ड पर लगा दी थी। अतः मीमांसा-दर्शन की विशेष विचार-शक्ति वेदविहित कर्म एवं अनुष्ठान को सिद्ध करने में ही लगी । वेदान्त वेद के ज्ञानकाण्ड को ले कर चला। इस लिए वेदान्त का मुख्य सिद्धान्त अद्वैतवाद, मायावाद अथवा ब्रह्मवाद रहा। वेदान्त-दर्शन की अन्तिम एवं चरम परिणति अद्वैतवाद में होती है ।
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