________________
७८ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
(४) इसमें अपने पैरों से बिना किसी के सहारे के चलने की शक्ति प्राप्त करता है।
(५) इसमें शिल्पकला आदि का अध्ययन करने की योग्यता प्राप्त करता है।
(६) इसमें घर एवं परिवार छोड़कर श्रमण बन जाता है, संन्यास ग्रहण करता है।
(७) इसमें राग-द्वेष को जीतकर जिन बन जाता है । गुरु की उपासना भी वह करता है । विकास की पूर्ण भूमिका है।
(८) इसमें प्राज्ञ होकर बन्धनों से मुक्त हो जाता है। निर्वाण प्राप्त करता है।
__इन अष्ट सोपानों में, प्रथम के तीन अविकास के हैं, और शेष पाँच आत्म-विकास के सूचक हैं। पातञ्जल, बौद्ध और आजीवक मत मान्य विकास भूमिकाओं में और जैन दर्शन में दशित गुणस्थानों में बहुत अन्तर है। गुणस्थानों में जो क्रमबद्धता, व्यवस्था और स्पष्टता है, वह अन्यत्र नहीं है । गुणस्थानों में आत्म विकास की जिस पद्धति का वर्णन किया जाता है, वह जैन विद्वानों का अपना मौलिक चिन्तन कहा जा सकता है, जो परंपरा से आज भी उपलब्ध है । इसके सम्बन्ध में विपुल साहित्य है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org