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जैन दर्शन का अध्यात्मवाद ७७ वालों के चार प्रकार हैं। जिन्होंने तीन संयोजनाओं का क्षय किया, वे सोतापन्न होते हैं । जिन्होंने तीन संयोजनाओं का क्षय, और दो को शिथिल किया, वे सकदागामी, और जिन्होंने पाँच का क्षय किया, वे औपपातिक हैं। जिन्होंने दश का क्षय किया, वे अर्हन् ।
। इनमें प्रथम स्थिति आध्यात्मिक अविकास काल की है। दूसरी में विकास का अल्प अंश में परिस्फुरण होता है, लेकिन विकास की अपेक्षा अविकास का प्रभाव विशेष रहता है। तीसरी से छठी स्थिति आध्यात्मिक विकास के उत्तरोत्तर अभिवृद्धि की है। विकास छठी स्थिति में परिपूर्ण हो जाता है, वह अर्हन् अथवा अरहा बन जाता है। बाद में निर्वाण को प्राप्त हो जाता है। आजीवक मत में विकास :
आजीवक मत में भी आत्म-विकास की स्थितियों का संकेत मिलता है। गोशालक ने भी गुणस्थानों जैसी अष्ट दशाओं की परिकल्पना की है। उसका बौद्ध साहित्य में उल्लेख भी है। आत्म-विकास के अष्ट सोपान आजीवक मत में कहे गए हैं, जो इस प्रकार हैं
१. मन्द २. खिड्डा ३. पद वीमंसा ४. उज्जुगत ५. सेख ६. समण ७. जिन ८. पन्न।
(१) इसमें जन्मदिन से लेकर सात दिन तक गर्भ-निष्क्रमणजन्य दुःख के कारण आत्मा मन्द स्थिति में रहता है।
(२) इसमें दुर्गति से आकर जन्म लेने वाला बालक बार-बार रुदन करता है, सुगति से आने वाला वहाँ का स्मरण करके हास करता है। यह खिड्डा अर्थात् क्रीड़ा भूमिका है ।
(३) इसमें माता-पिता के सहारे अथवा अन्य किसी का सहारा पाकर बालक भूमि पर कदम रखता है, चलना सीखता है ।
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