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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
हो जाती है । फिर जीव गुण स्थानातीत होकर, सिद्ध, परमात्मा, परब्रह्म हो जाता है । त्रयोदश गुणस्थान सयोगी केवली का और चतुर्दश गुणस्थान अयोगी केवली का होता है ।
गुणस्थानों का संज्ञाकरण : १. मिथ्यादृष्टि
२. सास्वादन सम्यग्दृष्टि
३. मिश्र दृष्टि ( सम्यग् - मिथ्यात्व )
४. अविरत सम्यग्दृष्टि ५. देश विरत
६. प्रमत्त संयंत
७. अप्रमत्त संयत निवृत्ति बादर ६. अनिवृत्ति बादर
८.
१०. सूक्ष्म संपराय ११. उपशान्त मोह
१२. क्षीण मोह १३. सयोगी केवली
१४. अयोगी केवली
अन्य मतों में जीवन विकास क्रम :
जैन दर्शन को भाँति अन्य दर्शनों में भी आत्म-विकास के सम्बन्ध में विचार किया गया है । उनमें भी कर्म बद्ध आत्मा को क्रमिक विकास करते हुए पूर्ण मुक्त दशा को प्राप्त होना माना गया है। योग वाशिष्ठ और पातञ्जल योग सूत्र आदि ग्रन्थों में आत्म विकास की भूमिकाओं का विस्तार से कथन किया गया है। योग वाशिष्ठ में सप्त भूमिकाएँ अज्ञान की और सप्त ज्ञान की मानी हैं ।
१. बीज जागृत
२. जागृत
३. महाजागृत
४. जागृत स्वप्न ५. स्वप्न
६. स्वप्न जागृत
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