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जैन दर्शन का अध्यात्मवाद
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३. अप्रमाद
धर्म में प्रीति की तीव्रता ४ अकषाय
मोक्ष लाभ का कारण ५. अयोग
क्रिया का अभाव अध्यात्मवाद के आधार चार तत्त्व हैं-जीव, कर्म, बन्ध और मोक्ष । बन्ध के अभाव में मोक्ष कैसा ? बन्ध है, तभी मोक्ष भी है। मोक्ष है, तो बन्ध कैसा? मोक्ष में बन्ध का अभाव है। संसार में मोक्ष का अभाव है । जीव की सत्ता अनादि-अनन्त है। कर्म की सत्ता भी प्रवाह रूपेण, सन्तति रूप में अनादि-अनन्त है, अभव्य जीव की अपेक्षा से । भव्य की अपेक्षा से अनादि-सान्त भी है। प्रवाह से कर्म अनादि-अनन्त है। व्यक्ति की अपेक्षा से कर्म सादि-सान्त भी कहा जा सकता है । अध्यात्मवाद को समझने के लिए जीव के गुणों के क्रमिक विकास को समझना आवश्यक है। कर्म के विकार और संस्कार को समझने के लिए लेश्या का जानना भी अपेक्षित रहता है। गुणस्थान के परिबोध से जीव के भावों के उत्थानपतन का पता चलता है । लेश्या के परिज्ञान से कर्म के स्वरूप का और आत्मा पर उसके प्रभाव का प्रबोध हो जाता है ।
भारत के दाशनिक विद्वानों ने चार प्रकार के पुरुषार्थ की स्थापना बहुत प्राचीन काल से ही कर दी थी। तदनुसार जीवन को मधुर, रुचिर और सुन्दर बनाने की चार पद्धतियाँ हैं, इन को ही शास्त्र भाषा में पुरुषार्थ, पुरुष प्रयोजन तथा आत्मा के संलक्ष्य कहे गए हैं-काम और अर्थ तथा मोक्ष और धर्म हैं। इनमें से धर्म और मोक्ष का तो सोधा सम्बन्ध आत्मा के साथ होने के कारण अध्यात्म भाव कहा गया है। भारत के चिन्तकों ने अर्थ और काम के सम्बन्ध में कहा है, कि ये दोनों भी धर्मपूर्वक, मर्यादापूर्वक होने चाहिए । आस्तिक दर्शनों में इस स्थापना को एक स्वर से स्त्रीकार किया है, लेकिन नास्तिक दर्शन अर्थ और काम को स्वीकार करके भी धर्म और मोक्ष को अस्वीकार करते हैं । परलोक और पुनर्जन्म में, सुख की प्राप्ति, धर्म और मोक्ष रूप पुरुषार्थ बिना सम्भव नहीं। उनके कथन का सार है, कि यदि जीव के कर्म संबद्ध न हो, तो भव, भवान्तर, लोक परलोक तथा दुःख सुख की व्यवस्था ठीक नहीं बैठ पाती। अतः अध्यात्म साधना में पुरुषार्थवाद का महत्त्व कम नहीं है। भारत के विद्वानों में कभी दो पुरुषार्थ, कभी तीन पुरुषार्थ और कभी चार पुरुषार्थ की मान्यता पर वाद, विवाद तथा संवाद होता रहा है । वस्तुतः पुरुष के प्रयोजन तो दो ही हैं-काम और मोक्ष । शेष दो-अर्थ और धर्म-साधन हैं ।
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