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कर्म तत्त्व मीमांसा ६१ शक्तिमान है । अनन्त ज्ञानवान है। नित्य ज्ञानवान है। सृष्टि का रचनाकार है । नित्य है, विभु है और जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के फल का प्रदान करने वाला है।
ईश्वर नहीं है । जगत् अनादि-अनन्त है । जो अनादि और अनन्त होता है, उसका कोई कर्ता, धर्ता तथा संहर्ता नहीं होता, सृष्टि की रचना किसी ने भी नहीं की है। वह कृत्रिम नहीं है, अकृत्रिम है । जीवों के कर्मों का फल स्वयं कर्म हो प्रदान करते हैं। फल देने के लिए ईश्वर की कल्पना करना व्यर्थ है । एक ईश्वर की कल्पना भी मिथ्या है। यदि ईश्वर हो सब कुछ कर सकता हो, तो कर्म को मानने की आवश्यकता ही क्यों हो । जोव के कर्म के अनुसार ही फल देता है, तो कर्म की शक्ति ईश्वर से प्रबल माननी होगी। इस स्थिति में ईश्वर सर्व शक्तिमान नहीं है। ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं :
कर्मवाद की मान्यता यह है, कि सुख और दुःख, सम्पत्ति और विपत्ति, ऊंच और नीच, के भाव जो संसार में नजर आते हैं उनका कारण कर्मवाद है । कालवाद स्वभाववाद और पुरुषार्थवाद भी कारण हैं। जैन दर्शन अन्य दर्शनों की भांति उक्त भावों का कर्ता और सृष्टि की उत्पत्ति का कारण नहीं मानता। दूसरे दर्शनों में सृष्टि का उत्पन्न होना माना जाता है । अतः उसके उत्पादक के रूप में ईश्वर का सम्बन्ध जोड़ दिया गया है।
___ भारतीय दर्शनों में न्याय दर्शन ही ईश्वरवाद का प्रबल पोषक रहा है । उसके अनुसार शुभ-अशुभ कर्म का फल ईश्वर को इच्छा के अनुसार मिलता है । वैशेषिक दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानकर भी परमाणुओं को भी सृष्टि का कारण माना है । योग दर्शन में ईश्वर के अधिष्ठान से प्रकृति का परिणाम, जड़ जगत् का फैलाव माना है। वेदान्त दर्शन में, ब्रह्म को सृष्टि का उपादान कारण सिद्ध किया है। इन दर्शनों में, एक न्याय दर्शन को छोड़कर, ईश्वर की सत्ता, एकमात्र सहायक के रूप में स्वीकृत है। परन्तु न्याय दर्शन ने समग्र सत्ता ईश्वर के हाथों में ही सौंप दी है । अतः वह स्पष्ट रूप में ईश्वरवादी है।
जैन दर्शन जीवों के फल भोगवाने के लिए ईश्वर को कर्म का प्रेरक नहीं मानता। क्योंकि कर्मवाद की मान्यता के अनुसार जिस प्रकार जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, उस प्रकार कर्म के फल को भोगने में भी जीव
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