________________
कर्म तत्त्व मीमांसा ५१ कभी न कभी उसका अन्त भी होगा । जैन दर्शन की अवधारणा है, कि भव्य वह होता है, जिसमें मोक्ष जाने की योग्यता हो, जिस जीव में योग्यता न हो, तो वह अभव्य होता है । अपने विकार, विकल्प एवं विषय को जीतकर, प्रत्येक आत्मा, परमात्मा बन सकता है। कर्म-ग्रन्थि को तोड़ने भर को देर है।
जैन दर्शन में, जीव और कर्म के संयोग की एक विशेष पद्धति रही है, एक विशेष प्रक्रिया रही है। इस पद्धति को आस्रव एवं बन्ध कहा जाता है । कर्म सूक्ष्म पुद्गल परमाणु-पुञ्ज के रूप में होते हैं । उनका जीव की ओर आना आस्रव है, और कर्म पुद्गलों का तथा जीव का एक-दूसरे में आश्लेष हो जाना, बन्ध कहलाता है । जैसे स्नेह-सिक्त शरीर पर धूलिकणों का आना और फिर चिपक जाना। बन्ध तत्त्व, मोक्ष तत्त्व का भावात्मक विरोधी तत्व है, उसके चार भेद होते हैं--प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । प्रकृति बन्ध के आठ भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष, नाम, गोत्र और अन्तराय । स्थिति बन्ध, जीव के साथ कर्म पुद्गलों के रहने के समय को कहा गया है। अनुभाग बन्ध, कर्मों के फल-भोग को कहते हैं। विपाक भी कहते हैं । प्रदेश बन्ध का अर्थ है, जीव के प्रदेशों पर कर्म-परमाणुओं की संख्या अनन्तानन्त कर्म-परमाणुओं को जीव ग्रहण करता है, इसको कर्म दलिक कहा गया है। कर्म बन्ध का हेतु है, आस्रव । आस्रव का परिणाम है, बन्ध । संवर और निर्जरा मोक्ष के हेतु हैं मूल तत्त्वों के परिज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है । तत्त्वों के अपरिज्ञान से तथा अनाचरण से जीव बन्ध में पड़ जाता है। बौद्ध दर्शन:
___ बौद्ध विद्वानों ने कषाय-प्रेरित कर्मों को बन्धन का कारण माना है। मानसिक, वाचिक और कायिक ये तीनों प्रकार के कर्म विपाक द्वादश निदान के अन्तर्गत आते हैं। वैभाषिक बौद्धों ने कर्म के दो भेद स्वीकार किए हैं-चेतना और चेतनाजन्य । चेतना में मानसिक कर्मों का तथा चेतनाजन्य में वाचिक और कायिक कर्मों का समावेश होता है । चेतनाजन्य कर्म भी दो प्रकार के होते हैं-विज्ञप्ति एवं अविज्ञप्ति । जिन कर्मों का फल प्रकट रूप में होता है, वे विज्ञप्ति कर्म होते हैं । अविज्ञप्ति कर्म अदृष्ट रूप में रहते हैं, और कालान्तर में अपना फल प्रदान करते हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन :
न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन के अनुसार कर्म का रूप है, अदृष्ट ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org