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कर्म-तत्व-मीमांसा
सुख एवं दुःख, हानि तथा लाभ, जीवन और मरण, यश अथवा अपयश - ये सब कर्म के फल हैं। संसार चक्र सदा घुमता रहता है। बीज से अकुर, अंकुर से फल और फल से फिर बीज । कर्म, कर्म से बन्ध, बन्ध से सुख-दुःख का भोग । पुनः पुनः जन्म, फिर-फिर मरण । प्रयत्न करने पर भी हानि, न करने पर भी कभी लाभ । भला करने पर भी अपयश, और बुरा करने पर भी कभी यश । विचित्र कथा है, कर्म की । विश्व की विविधता का, विचित्रता का आधार कर्म ही है । प्रत्येक धर्म में, सम्प्रदाय में, मत में किसी न किसी रूप में कर्म की सत्ता को स्वीकार किया है ।
मनुष्य का वर्तमान जीवन, उसके अतीत का प्रतिबिम्ब है, और अनागत का आलोक । एक ही माता-पिता के चार पुत्र भिन्न-भिन्न स्वभाव के क्यों हो जाते हैं । क्योंकि सबके संस्कार अलग-अलग हैं। संस्कार ही तो कर्म हैं । क्रिया होकर समाप्त हो जाती है, लेकिन वह अपना प्रभाव एवं प्रताप, अपने कर्ता के जीवन पर अंकित कर जाती है । यह अंकन ही संस्कार है, संस्कार ही कर्म है । कर्म बिना कर्ता के कभी होता नहीं । कर्ता की हर हलचल कर्म बन जाती है । वह हल चल शरीर में हो, वाणी में हो, मन में हो । तीनों के स्पन्दन में यदि राग, द्वेष, मोह तथा अज्ञान का चेप उत्पन्न हो जाए, तो वह हरकत कर्म बन जाती है । चेप है, कषाय । चेप है, संक्लेश । अतः कषाय का योग मिल जाने पर, शरीर, वाणी और चित्त की क्रिया कर्म रूप में परिणत हो जाती है । क्रिया जीव की भी होती है, और अजीव की भी । जीव और अजीव :
जैन दर्शन में प्रख्यात सप्त तत्वों में, नव पदार्थों में, षड् द्रव्यों में और पञ्च अस्तिकायों में, जीव-अजीव प्रधान हैं। क्योंकि ये दोनों क्रियावान हैं । धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये चारों निष्क्रिय हैं। ये चारों एक-एक हैं । जीव और अजीव के अनेक भेद हैं, उनमें से एक भेद पुद्गल है । जीव कर्ता
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