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जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा ३५ मानता है। एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और स्थूल अथवा सूक्ष्म और बादर । आज के वैज्ञानिक लोग वनस्पति में चेतना स्वीकार करते हैं। भारत के महान् वैज्ञानिक जगदीश वसू ने इस विषय में गहन अध्ययन करके जो निष्कर्ष निकाला है, उससे समस्त देशों के वैज्ञानिक अपनी सहमति प्रकट करते हैं।
जैन दर्शन में स्वीकृत षड़ द्रव्य का समन्वय, सर्व अंशों में नहीं, तो कुछ अंशों में, आज के विज्ञान से हो जाता है। भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान और मनोविज्ञान का अध्ययन करके प्राचीन सिद्धान्तों के साथ तुलना करने की आवश्यकता है। इस दिशा में विद्वानों ने कुछ प्रयत्न तो किया है, लेकिन वह अपर्याप्त है। जैन दार्शनिकों ने षड् द्रव्य की जो व्याख्या की है, वह वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण कही जा सकती है। दर्शन और तत्त्व :
दर्शन और तत्त्व का परस्पर में अत्यन्त गहन सम्बन्ध है। भारत के विचारक तत्त्व-ज्ञान को दर्शन कहते हैं। जीवन में तत्त्व-ज्ञान की परम आवश्यकता है। बिना तत्त्व-विद्या के साधना अधूरी है । अतएव भारत के तीर्थकर, तथागत और ऋषि तो अति प्राचीन काल से तत्त्व-ज्ञान का उपदेश देते रहे हैं । जैन दर्शन द्रव्य, गुण और पर्याय की अभिन्नता एवं भिन्नता का प्रतिपादन करता है । परन्तु अपेक्षा विशेष से यह कथन है । परमार्थ के ज्ञाता, द्रव्य और गुण में अविभक्त अनन्यत्व भी स्वीकार नहीं करते, और विभत अन्यत्व भी नहीं मानते । लेकिन विभिन्न अपेक्षाओं से भेद और अभेद स्वीकार करते हैं। धनवान् होने के कारण मनुष्य धनी कहा जाता है, ज्ञानवान् होने से ज्ञानी । पर प्रथम पक्ष में धन, धनी से भिन्न है। दोनों में सम्बन्ध होने पर भी दोनों की सत्ता पृथक्-पृथक् है । इसके विपरीत ज्ञान, ज्ञानी से भिन्न नहीं है । आकृति, संख्या और विषय से सम्बन्ध रखने वाला भेद, जिस प्रकार दो भिन्न वस्तुओं में हो सकता है, उस प्रकार अभिन्न वस्तुओं में भी सम्भव हो सकता है। जैसे कि देवदत्त का अश्व, यह व्यवहार परस्पर भिन्न दो वस्तुओं के विषय में है, किन्तु वृक्ष को शाखा, यह दो अभिन्न वस्तुओं के विषय में है। अतः कथंचित् भेद और कथंचित् अभेदवाद जैन दर्शन में स्वीकृत है। गुण और पर्याय:
द्रव्य, गुण और पर्याय में परस्पर अन्यत्व तो है, परन्तु पृथकता नहीं है । भेद दो प्रकार का होता है-पृथक्त्व रूप एवं अन्यत्व रूप । प्रदेशों की
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