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जैन दर्शन को तत्त्व-मीमांसा ४१ पाता और न मोक्ष ही रह पाता। पुण्य-पाप का भी प्रयोजन न रह पाता । साधना का और आचार की अवधारणा भी न रहती । अतः जीव अनन्त हैं, और सब का जीवन भिन्न-भिन्न है। क्योंकि समस्त जीवों का कर्म अलगअलग है। उन कर्मों का फल भी अलग-अलग है। अध्यात्म और तत्त्व । - भारत में दर्शन-शास्त्र को तत्त्व-विद्या कहा गया है। भारत के प्रत्येक सम्प्रदाय ने अपनी अवधारणा के अनुसार तत्त्व की व्यवस्था की है। तत्त्व शब्द का अर्थ है-तस्य भावं तत्त्वम् । सत्ता-सून्य कल्पना-प्रसूत वस्तु को तत्त्व नहीं माना जाता, सद्भूत वस्तु को ही तत्व माना जा सकता है । जैन दर्शन असत् से सत् की उत्पत्ति स्वीकार नहीं करता। अभाव से भाव कभी नहीं हो सकता। जैन दर्शन के अनुसार तत्त्व अध्यात्म साधना का एक प्रधान अग माना गया है । अध्यात्म साधना की दृष्टि से जीव और जड़ का भेद-विज्ञान आवश्यक है। इसके लिए जीव और पुद्गल का परस्पर में संयोग-वियोग का और उसके कारणों का अवबोध भी परम आवश्यक माना गया है । जैन तत्त्व ज्ञान की आधारशिला यही रही है। तत्व संख्या :
संक्षेप और विस्तार की अपेक्षा से मुख्य रूप में, तत्त्वों की व्यवस्था ओर संख्या इस प्रकार से वणित की है
१. तत्त्व के दो भेद-जीव एवं अजीव । ____२. तत्त्व के सात भेद-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इसमें पुण्य एवं पाप को तिरोहित कर दिया गया है। क्योंकि उन दोनों की परिगणना आस्रव तथा बन्ध में हो जाती है ।
३. तत्त्व के नव भेद-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इसमें पूण्य और पाप को अलग मान लिया गया है । दोनों की स्वतन्त्र सत्ता है। नव पदार्थ :
१. जीव चेतनावान्, उपयोगवान् प्राणवान् । २. अजीव अचेतन, अनुपयोगवान्, प्राण-शून्य । ३. पुण्य सुख का हेतु । ४. पाप दुःख का हेतु। ५. आस्रव नूतन कर्म आने का द्वार । ६. संवर आस्रव का निरोध ।
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