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४० अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
इन दश प्राणों में तीन बल कहे जाते हैं । पाँच इन्द्रियाँ है । एक आयुष् कर्म है । अन्दर के पवन का बाहर आना, और बाहर के पवन का अन्दर आना -- श्वास-प्रश्वास है । ये दश प्राण संसारी जीव के होते हैं । अतः ये द्रव्य प्राण हैं । सिद्धों के भाव प्राण होते हैं, जो ज्ञान एवं दर्शन रूप होते हैं ।
जीव असंख्यात प्रदेश वाले होते हैं, अथवा जीव असंख्यात प्रदेशी होता है । वह लोक के एक भाग में भी रह सकता है, और समस्त लोक को व्याप्त करके भी रह सकता है । यदि पद्मराग मणि को दूध में डाल दिया जाए, तो वह उस समस्त दूध को प्रकाशित कर देता है। क्योंकि वह दुग्ध-परिमाण हो गया है, उस प्रकार जीव जिस देह में रहता है, उतना ही विस्तृत हो जाता है । अतः जीव में संकोच विस्तार का गुण माना है । यद्यपि जीव अपने गृहीत शरीर से अभिन्न जैसा लगता है, तथापि जीव और देह, वस्तुतः भिन्न हैं । अपने अशुद्ध परिणामों के कारण कर्म रज से मलिन बनकर, जीव अपने आपको शरीर से अभिन्न मान लेता है। यही तो जीवन का बन्धन कहा जाता है । जीव के भेद :
जैसा कि पीछे कहा जा चुका है। जीव के मूल भेद दो हैं - संसारी और मुक्त | मुक्त जीवों में किसी प्रकार का भेद नहीं होता, सभी समान गुण वाले होते हैं । किन्तु संसारी जीवों में अनेक भेद एवं प्रभेद होते हैं । जैसे नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव । नरक में रहने वाले नारक, स्वर्ग में रहने वाले देव, मध्य लोक में रहने वाले मनुष्य एवं तिर्यंच । नारक, देव और मनुष्य से जो भिन्न हैं, वे सब तिर्यंच हैं, जैसे कि पशु, पक्षी, कीट-पतंग आदि और पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के सूक्ष्म- बादर एकेन्द्रिय जीव तथा कीड़े-मकौड़े आदि प्राणी । जैन - शास्त्रों में इन सभी जीवों की गति, योनि जन्म, शरीर और प्राण आदि का विस्तार से वर्णन उपलब्ध होता है, लघु ग्रन्थों में तथा विशालकाय ग्रन्थों में । जैन धर्म का जीव विज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है ।
जैन दर्शन जीव बहुत्ववादी है वह प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करता है । यदि संसार में सभी जीव एक होते, भिन्न-भिन्न नहीं होते, तो एक जीव के सुखी होने से सभी जीव सुखी होते। एक जीव के दुःखी होने से सभी दुःखी होते। एक के बद्ध होने से सभी बद्ध होते । एक के मुक्त होने पर सभी मुक्त हो जाते। उस स्थिति में न तो संसार रह
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