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३० अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
और कर्म का बन्ध अनादि है। शंकर भी ब्रह्म और माया का सम्बन्ध अनादि मानते हैं। रामानुज ने भी बद्ध जीव को अनादि काल से ही बद्ध स्वीकार किया है । सांख्य मत में भी प्रकृति और पुरुष का संयोग ही बन्ध है, और वह अनादिकाल से चला रहा है। अन्य दर्शन, बन्ध और मोक्ष जीव के होते हैं, इस प्रकार कहते हैं। किन्तु सांख्य मत की मान्यता है, कि बन्ध और मोक्ष प्रकृति के होते हैं, पुरुष के नहीं।
बौद्ध दर्शन में, नाम और रूप का अनादि सम्बन्ध ही संसार है, बन्ध है, और उसका वियोग ही निर्वाण है । जैन दर्शन में, जीव और पुद्गल का अनादि सम्बन्ध माना गया है। जीव और पुद्गल का वियोग ही मोक्ष है। बन्ध और मोक्ष, दोनों परस्पर विरोधी भाव हैं । बन्ध दुःख है, मोक्ष अनन्त सुख है। बन्ध और मोक्ष, यह दर्शन-शास्त्र का एक अत्यन्त गम्भीर विषय रहा है। अतएव सभी ने इस पर विचार किया है। लोक और पर-लोक :
___मरणोत्तर जीवन को पर-लोक कहा जाता है। मृत्यु के बाद क्या होता है ? आत्मा की सत्ता रहती है, या नहीं रहती। वस्तुतः कर्म और परलोक दोनों परस्पर संबद्ध हैं। एक के अभाव में दूसरे की सत्ता नहीं रहती । आत्म-वादी दर्शन मृत्यु के साथ जीवन का अन्त नहीं मानते । पूर्व जीवन और पुनर्जीवन को सभी स्वीकार करते हैं। कर्म अपना फल अवश्य ही प्रदान करता है, यही भारतोय सदाचार का मूल आधार रहा है ।
वैदिक परम्परा में देवलोक और देवों की परिकल्पना अत्यन्त प्राचीन है। लेकिन वेदों में वर्णित अधिकतर देवों की कल्पना प्रकृति की शक्तियों के आधार पर की है। वेद बहदेववाद को स्वीकार करता है। विभिन्न प्रकार के देव हैं।
बौद्ध साहित्य में भी देव और देवलोक को स्वोकार किया है। नरक भी माना गया है। तिर्यञ्च अर्थात् पशु, पक्षी, प्रेत और असूर योनि भी मानी है । जातकों में आठ नरक को मान्यता है। इन योनियों में कर्म के शुभ और अशुभ फल को भी माना गया है।
जैन साहित्य तो लोक तथा परलोक को परिचर्चाओं से भरा पड़ा है । लोक और परलोक, दोनों को स्वीकार किया है। पूर्वभव और उत्तर भव, दोनों का वर्णन बहुलता से उपलब्ध होता है । तीर्थंकरों के पूर्वभवों का वर्णन विस्तार से किया गया है। जैन-शास्त्रों में चार गति मानी हैं-नरक
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