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जैनदर्शन की तत्व - मीमांसा
प्रत्येक दर्शन - शास्त्र की अपनी एक तत्त्व-मीमांसा होती है । प्रमाण से प्रमेय की सिद्धि की जाती है। ज्ञान से ज्ञेय को जाना जाता है । प्रमाण का जो विषय होता है, वह प्रमेय कहा जाता है। ज्ञान का जो विषय होता है, उसे ज्ञेय कहते हैं । प्रमाण, प्रमेय और प्रमाता - यह एक त्रिपुटी है, जो प्रमाण - शास्त्र में अत्यन्त प्रसिद्ध है । ज्ञान ज्ञेय और ज्ञाता - यह एक दूसरी त्रिपुटी है, जो अध्यात्म शास्त्र में प्रख्यात रही है । प्रमाता जात्मा, प्रमाण के द्वारा प्रमेय को जानता है । ज्ञाता जीव, ज्ञान के द्वारा ज्ञेय को समझता है । प्रमाता एवं ज्ञाता जीव को आत्मा कहा गया है । प्रमेय एव ज्ञेय सत्, द्रव्य, तत्व और पदार्थ को कहते हैं । भारत के विभिन्न दर्शन शास्त्रों में ये चारों शब्द व्यवहृत होते रहे हैं । वेदान्त में सत्, वैशेषिक में और मीमांसा में द्रव्य, योग में और सांख्य में तत्त्व, तथा न्याय में पदार्थ शब्द का बहुलता से प्रयोग किया गया है। बौद्ध दर्शन में भी सत् शब्द का प्रयोग है । जैसे कि यत् सत् तत् क्षणिकम् इसके विपरीत वेदान्त का कथन है, कि सर्वं सतु, शाश्वतं तथा एकञ्च । सतु के स्थान पर कहीं-कहीं पर सत्ता शब्द का प्रयोग भी उपलब्ध होता है। न्याय दर्शन में दो प्रकार की सत्ता मानी जाती है - पर और अपर । पर सत्ता को परम सत्ता भी कहा गया है । चार्वाक दर्शन में तत्त्व शब्द का प्रयोग किया गया है । तत्त्व एक है, ओर वह जड़त है, चेतन नहीं है ।
जैन दर्शन के समन्वयवादी महानु आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में चारों शब्दों का प्रयोग किया है-सतु, द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ । एक अन्य शब्द का प्रयोग भी जैन - शास्त्रों में उपलब्ध होता है, और वह है- अस्तिकाय शब्द | जो सत् है, वह द्रव्य है, जो द्रव्य है, वह तत्त्व है, जो तत्त्व है, वह पदार्थ है । जो उत्पन्न होता है, जो व्यय होता है, और जो ध्रुव भी होता है, वह सत् कहा गया है । जो निरन्तर नूतन पर्यायों को प्राप्त होता रहता
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