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२० अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
है, वह द्रव्य है । तत्त्व की परिभाषा है, कि तस्य भावं तत्त्वम् । जो वस्तु का स्वभाव है, वह तत्त्व है । पदार्थ की व्याख्या है, कि पदस्य अर्थः, पदार्थः । जो पद का अभिधेय अर्थात् वाच्य है, वह पदार्थ है । ये चारों शब्द सार्थक एवं सयुक्तिक हैं ।
कुछ थोड़ा-सा अन्तर भी है । परम निश्चय नय से सत् एक होता है । व्यवहार नय से दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात और नव भो तथा अधिक भी हो सकते हैं। जैन दर्शन में प्रसिद्ध है, कि मूल द्रव्य दो हैंजीव और अजीव । द्रव्य षट् हैं - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । अस्तिकाय पाँच हैं - जीव अस्तिकाय, पुद्गल अस्तिकाय, धर्म अस्तिकाय, अधर्म अस्तिकाय और आकाश अस्तिकाय । तत्त्व सात हैंजीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । पदार्थ नव हैंजीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष । सब प्रमेय रूप और ज्ञेय रूप हैं, क्योंकि प्रमा तथा ज्ञान के विषय हैं । तत्त्व के तीन भेद भी हो सकते हैं - ज्ञेय, हेय और उपादेय । जीव और अजीव, ज्ञेय हैं । पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध हेय हैं । संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय हैं । तत्त्व के दो रूप भी हैं -सयोगी और वियोगी । पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध - ये चार सयोगी हैं । संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये तीन वियोगी हैं । इस प्रकार तत्त्व के अनेक विभाजन हो सकते हैं । सत् की व्याख्या :
वाचक प्रवर उमास्वाति ने स्व-रचित तत्त्वार्थ सूत्र के पञ्चम अध्याय के उनतीस सूत्र में, सत् की व्याख्या इस प्रकार से की है- जो उत्पाद, व्यय और ध्रुव, इन तीनों से युक्त हो, तदात्मक हो, त्रयात्मक हो, वही सत् है । सत् के स्वरूप के विषय में, भारतीय दर्शनों में बहुत गहन मत-भेद रहा है | वेदान्त दर्शन केवल ब्रह्म को सत् अर्थात् ध्रुव एवं नित्य मानता है । बौद्ध दर्शन निरन्वय, क्षणिक और एकमात्र उत्पाद एवं विनाश-शील को सत् कहता है । सांख्य दर्शन चेतन तत्त्व रूप सत् को तो केवल ध्रुव एवं कूटस्थ नित्य मानता है, और प्रकृति तत्त्व रूप सत् को परिणामि नित्य मानता है । न्याय दर्शन आकाश, काल, दिशा, आत्मा और परमाणु को सत् अर्थात् नित्य कहता है और घट तथा पट आदि सत् को अनित्य, उत्पाद विनाश-शील मानता है ।
जैन दर्शन का कथन है, कि एकान्त रूप से नित्य और एकान्त रूप
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