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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
चाद अथवा जन्मान्तरवाद कर्मवाद के सिद्धान्त का फलित रूप है । कर्म का सिद्धान्त यह माँग करता है, कि शुभ कर्मों का शुभ फल मिले और अशुभ कर्मों का अशुभ फल | लेकिन सब कर्मों का फल इसी जीवन में मिलना सम्भव नहीं है । अतः कर्म-फल को भोगने के लिए दूसरा जीवन आवश्यक है । भारतीय दर्शन के अनुसार यह संसार जन्म और मरण की अनादि श्रृंखला है । इस जन्म और मरण का कारण क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में सांख्य दर्शन में कहा गया, कि प्रकृति और पुरुष का भेद-ज्ञान न होना ही इसका कारण है । न्याय और वैशेषिक दर्शन में कहा गया, कि जन्म और मरण का कारण जीव का अज्ञान ही है । वेदान्त दर्शन में कहा गया, कि अविद्या अथवा माया ही उसका मुख्य कारण है । बोद्ध-दर्शन में कहा गया, कि वासना के कारण ही जन्म और मरण होता है। जैन दर्शन में कहा गया, कि कर्म - बद्ध संसारी आत्मा का जो बार-बार जन्म और मरण होता है, उसके पाँच कारण हैं - मिथ्यात्व-भाव, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा शुभ और अशुभ योग । सामान्य भाषा में जब तत्व-ज्ञान से अज्ञान का नाश हो जाता है, तब संसार का भी अन्त हो जाता है । भारतीय दर्शनों में यह भी कहा गया है, कि संसार एक बन्धन है, इस बन्धन का आत्यन्तिक नाश आत्मा के शुद्ध स्वरूप मोक्ष से ही होता है । बन्धन का कारण अज्ञान है, और इसी से संसार की उत्पत्ति होती है । इसके विपरीत मोक्ष का कारण तत्त्व-ज्ञान है । तत्त्व-ज्ञान के हो जाने पर संसार का भी अन्त हो जाता है । इस प्रकार तत्त्व-ज्ञान और उसका विपरीत भाव अज्ञान, अविद्या, माया, वासना और कर्म को माना गया है ।
जन्मान्तर, भवान्तर, पुनर्जन्म और परलोक का अर्थ है - मृत्यु के बाद आत्मा का दूसरा शरीर धारण करना । चार्वाक दर्शन ने यह माना था, कि शरीर के नाश के साथ ही चेतन-शक्ति का भी नाश हो जाता है । परन्तु आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले दार्शनिकों का कहना है, कि शरीर के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता । इस वर्तमान शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा बना रहता है, और पूर्व कृत कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को दूसरा जन्म धारण करना पड़ता है। दूसरा जन्म धारण करना हो पुनर्जन्म कहा जाता है । पशु, पक्षी, मनुष्य देव और नारक आदि अनेक प्रकार के जन्म ग्रहण करना यह संसारी आत्मा का आवश्यक परिणाम है । आत्मा अनेक जन्म तभी ग्रहण कर सकता है, जब
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