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मुक्ति का मार्ग | २५ अक्षय सुख का केन्द्र हमारी स्वयं की आत्मा है । आत्मा के अतिरिक्त विश्व के किसी भी बाह्य पदार्थ में सुख की परिकल्पना करना, एक भयंकर भ्रम है । जिस आत्मा ने अपने अन्दर में - अपने स्वरूप में ही रहकर अक्षय आनन्द का अनुसंधान कर लिया, उसे अधिगत कर लिया, दर्शन की भाषा में वह आत्मा सच्चिदानन्द बन जाता है | सत् और चित् तो उसके पास व्यक्तरूप में पहले भी थे, किन्तु आनन्द के व्यक्तरूप की कमी थी । उसकी पूर्ति होते ही, आनन्द की अभिव्यक्ति होते ही वह सच्चिदानन्द बन गया, जीव से ईश्वर बन गया, आत्मा से परमात्मा बन गया, भक्त से भगवान बन गया और उपासक से उपास्य बन गया । यही भारतीय दर्शन का मर्म है । इसी मर्म को प्राप्त करने के लिए साधक अध्यात्म साधना करता है ।
भारत के अध्यात्म-दर्शन में स्पष्ट रूप से यह बतलाया गया है कि जीवन के इस चरम लक्ष्य को कोई भी साधक अपनी साधना के द्वारा प्राप्त कर सकता है । भले ही वह साधक गृहस्थ हो अथवा भिक्षु हो । पुरुष हो अथवा नारी हो । बाल हो अथवा वृद्ध हो । भारत का हो अथवा भारत के बाहर का हो। जाति, देश और काल की सीमाएँ शक्ति पुञ्ज आत्म तत्व को अपने में आबद्ध नहीं कर सकतीं । विश्व का प्रत्येक नागरिक एवं व्यक्ति राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध बन सकता है । किन्तु जीवन की इस ऊँचाई को पार करने की उसमें जो क्षमता और योग्यता है, तदनुकुल प्रयत्न भी होना चाहिए । भारतीय संस्कृति में महापुरुषों के उच्च एवं पवित्र जीवन की पूजा एवं प्रतिष्ठा तो को गई, किन्तु उसे कभी अप्राप्य नहीं बताया गया । जो अप्राप्य है, अलभ्य है, भारतीय संस्कृति उसे अपना आदर्श नहीं मान सकती । वह आदर्श उसी को मानती है - जो प्राप्य है, प्राप्त किया जा सकता है । यह बात अलग है कि उस आदर्श को प्राप्त करने के लिए कितना प्रयत्न करना पड़ता है, कितनी साधना करनी पड़ती है। भारतीय दर्शन यथार्थ और आदर्श में समन्वय करके चलता है । भारत का प्रत्येक नागरिक यह चाहता है, कि मेरा पुत्र राम, कृष्ण, महावीर और बुद्ध बने तथा मेरी पुत्री ब्राह्मी, सुन्दरी, सीता और द्रौपदी बने । जीवन का यह आदर्श ऐसा नहीं है, जिसे प्राप्त न किया जा सके । भारतीय जीवन की यह एक विशेषता है कि वह अपनी संतान का नाम भी महापुरुषों के नाम पर रखती है । भारत के घरों के कितने ही आंगन ऐसे हैंजिनमें राम, कृष्ण, शंकर, महावीर और गौतम खेलते हैं । सीता,
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