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मुक्ति का मार्ग | २३ नहीं मिला । इस मोह माया के प्रगाढ़ अन्धकार में भटकते हुए मैंने कितने भयंकर पाप कर्म कर डाले ? अतीत जीवन के अपने पापों के स्मरण से वह काँप उठा । उसके मन में अन्धकार से प्रकाश में आने की एक दिव्य भावना जगी । नारद ऋषि का यह बोध सूत्र उसके जीवन के कण-कण में रम गया, कि जिस परिजन और परिवार के लिए मैं इतना पाप कर चुका हूँ, क्या मेरा वह परिवार और उसका एक भी व्यक्ति उस समय मेरी सहायता कर सकेगा, जव कि मैं अपने कृत कर्मों का फल भोगूँगा । उसके अन्दर से आवाज आई, नहीं । जो पाप तूने स्वयं किया है, उसका अच्छा या बुरा फल भी, तुझे स्वयं को ही भोगना है । रत्नाकर को इस घटना ने महर्षि वाल्मीकि बना दिया । भारतीय दर्शन कहता है कि संसार की कोई भी आत्मा, भले ही वह अपने जीवन के कितने ही नीचे स्तर पर क्यों न हो, भूल कर भी उससे घृणा और द्वेष मत करो। क्योंकि न जाने कब उस आत्मा में परमात्म-भाव की जागृति हो जाए । प्रत्येक आत्मा अध्यात्म - गुणों का अक्षय एवं अनन्त अमृत कूप है । जिसका न कभी अन्त हुआ और न कभी अन्त होगा । विवेक ज्योति प्राप्त हो जाने पर प्रत्येक आत्मा अपने उस परमात्म रूप अमृत रस का आस्वादन करने लगता है । आत्मा का यह शुद्ध स्वरूप अमृत कहीं बाहर नहीं, स्वयं उसके अन्दर ही है । वह शुद्ध स्वरूप कहीं दूर नहीं है, अपने समीप ही है । समीप भी क्या ? जो है वह स्वयं ही । बात इतनी ही है, जो गलत रास्ता पकड़ लिया है, उसे छोड़कर अच्छी एवं सच्च राह पर आना है । जीवन की गति एवं प्रगति को रोकना नहीं हैं, बल्कि, उसे अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध की और मोड़ देना है ।
जिस कूप में जल का एक बिन्दु भी न हो, जो सर्वथा सूखा हो, उसमें आप चाहे कितनी सी बार डोल डालें, किन्तु उसमें से जल की एक बूंद भी नहीं मिल सकती । जब स्वयं कूप में जल का एक भी बिन्दु नहीं है, तब डोल में जल कहाँ से आएगा ? इसके विपरीत स्वच्छ एव निर्मल जल से परिपूर्ण कृप में जब कभी भी आप डोल डालेंगे, तब वह स्वच्छ, निर्मल एवं शीतल जल से लवालब भरा हुआ बाहर आ जाएगा, जिसे पीकर आपकी चिर तृषा शान्त हो जायगी और आप एक प्रकार से विलक्षण ताजगी का अनुभव करेंगे । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक चेतन एवं प्रत्येक आत्मा का. अक्षय एवं अनन्तकूप
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