Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १ उद्देशक १
अलग नहीं किया जा सकता है तो मुनि उस आहार का उपभोग नहीं करे किन्तु एकान्त निर्दोष स्थान में परठ दे। इसी तरह भूल से आधाकर्म आदि दोषों से युक्त आहार आ गया हो तो भी एकान्त स्थान में यतना पूर्वक परठ दे। इससे स्पष्ट है कि साधु सचित्त एवं आधाकर्म आदि दोष युक्त आहार का सेवन न करे। भगवती सूत्र शतक १८, उद्देशक १० में भगवान् महावीर स्वामी ने सोमिल ब्राह्मण को स्पष्ट शब्दों में बताया कि साधु के लिए सचित्त आहार अभक्ष्य है। श्रावक के व्रतों में भी यह स्पष्ट उल्लेख है कि श्रावक साधु को प्रासुक एवं निर्दोष आहार पानी ही देवें। ___ 'झामथंडिलंसि' शब्द का अर्थ है दग्ध भूमि अर्थात् जहाँ पर पहले चूने का भट्टा आदि रहा हो और उसमें अग्नि जलकर भूमि अचित्त हो गयी हो ऐसा स्थान। हड्डियों का ढेर, लोह का कीटा, तुष और गोबर का ढेर पर न परठे किन्तु इसका आशय यह है कि जहाँ पर हड्डियाँ, लोह का कीटा, तुष और गोबर ये पदार्थ उस भूमि पर रहें हो और अब वे उठा लिये गये हों किन्तु उन पदार्थों की दुर्गन्ध आदि के कारण वह भूमि अचित्त हो गयी हो उस भूमि पर परठना चाहिए किन्तु इन पदार्थों का ढेर पड़ा हुआ हो उन पदार्थों के ढेर पर तो परठना ही नहीं चाहिये क्योंकि ढेर के नीचे रहे हुए जीवों की विराधना का कारण बनता है। ___मूल में 'अप्पंडे अप्पपाणे' आदि शब्द दिये हैं। 'अप्य' का अर्थ है अल्प। अल्प शब्द के दो अर्थ हैं - थोड़ा और अभाव। यहाँ पर अल्प शब्द का अर्थ थोड़ा न लेकर अभाव अर्थ करना चाहिए। इसीलिये भावार्थ में अण्डे आदि से रहित ऐसा ही अर्थ किया है। - से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव पविट्ठ समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिज्जा-कसिणाओ, सासियाओ, अविदलकडाओ, अतिरिच्छच्छिण्णाओ, अव्वुच्छिण्णाओ, तरुणियं वा छिवाडि अणभिक्कंताभज्जियं पेहाए अफासुयं अणेसणिजं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिग्गाहेजा॥
कठिन शब्दार्थ - ओसहीओ - औषधियों को, कसिणाओ - कृत्स्न-सम्पूर्ण, सासियाओ- अविनष्ट योनि-जिसका मूल नष्ट नहीं हुआ हो, अविदलकडाओ - द्विदलजिसके दो भाग नहीं हुए हों, अतिरिच्छच्छिण्णाओ - तिरछा छेदन नहीं हुआ हो, अव्वुच्छिण्णाओ - अचित्त नहीं हुई हो, तरुणियं - तरुण बिना पकी हुई, छिवाडि -
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