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इनसर्व विषयोंसे पता चलता है कि स्वामीजीके पांडित्यमें हरएक विषयकी पूर्ण दक्षता थी।
श्रीमद वादिराजसूरिने स्वामीके खास २ ग्रंथ विषयक चमत्कृतिरूप पांडित्यमें कितनी उत्कृष्टि भक्तिके साथ कितनाही मनोज्ञ स्तुतिगान किया है
स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते ॥१॥ अचिंत्यमहिमादेवः सोऽभिवन्धो हितैषिणा । शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलंभिता ॥२॥ त्यागी स एव योगिन्द्रो येनाक्षय्यसुखावह । अर्तिने भव्यतार्थाय दिष्ठो रत्नकरण्डकः ॥३॥
(पावचरित्र प्रथमसर्ग ) इन तीनों श्लोकोंमें दर्शन, व्याकरण, आचार, विषयक इन तीनग्रंथों द्वारा जो स्वामीजीका विशेष महत्व वर्णन किया गया है वह इन तीनों ग्रंथोंकी विशेष उत्कर्षतासे ही है । क्योंकि स्वामीके ये ग्रंथ रत्न ऐसे ही हैं।
समय समय निर्णयमें बहुतसे विद्वानोंका मत है कि स्वामीजीने पहली या दूसरी विक्रम शताब्दिमें अपने चरणरजसे इस भारत वसुंधराको पवित्रित किया था।
विद्याभूषणादि अनेक पद धारक शतीश्चन्द्रजीनें उमास्वामीजीको ईसाकी प्रथम शताब्दिका निर्णय किया है।
स्वामी समन्तभद्राचार्यजीने उमास्वामिकृत तत्वार्थमोक्षशास्त्र सूत्रपर गंधहस्त महाभाष्य नामकी एक विस्तृत टीका लिखी जिसका कि अनुष्टुप श्लोक प्रमाण चौरासी ८४००० हजार संख्यासे प्रख्यात है । यह टीका इस समय भाग्य दोषसे उपलब्ध नहीं है तथापि यह ग्रंथ अवश्य था और इसके प्रणेता स्वामीजी थे। इस विषयमें जिनका विपरीत विचार है वे वास्तव में हवाई महल चिननेके समान विपरीत मार्गपर हैं । इस विषयका निर्णय पाठक इस भूमिकाके ग्रंथ परिचय विषयसे करें।
'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ' इस व्याकरण जैनेन्द्रसूत्र द्वारा भगवान् स्वामी समन्तभद्रका नामोल्लेख श्री पूज्यपाद स्वामीजीने किया है । स्वामी पूज्यादजीका समय-कर्नाटक भाषा निबद्ध चरित्रसे शकाब्द साढ़े पांच सौ मिलता है । इस