Book Title: Aapt Mimansa Author(s): Jaychand Chhavda Publisher: Anantkirti Granthmala Samiti View full book textPage 9
________________ प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं सङ्कटम् वादर्थी विचराम्यहं नरपते शादूलीवक्रीडितम् ॥ ६॥ अवटुतटमटति झटिति स्फुटपटुवाचाटधूजेटीजव्हा वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तव सदसि भूप कान्येषाम् ॥४॥ . (श्रीमल्लिषेण प्रशस्ति ) स्वामीजीके विषयमें और भी अनेक विद्वानोंने भव्यभावुक बहुतही उद्गार प्रगट किये हैं वे सभी स्वामीजीके याथातथ्य गुणके प्रदर्शक हैं। इन सर्व प्रमाणोंसे यह सहजही समझमें आजाता है कि स्वामीजीमें एक अनोखीही विद्युतविद्वत्छटा थी ये स्वामी जैसे दार्शनिक तथा स्तुतिकार विद्वान हो गये हैं तैसेही दार्शनिक तथा स्तुतिकार सिद्धसेन दिवाकर भी दिगम्बरानायमें प्रतिभाशाली विद्वान् हो गये हैं । इनका समय विद्याभूषण एम्. ए. आदि पद धारक शतीश्चन्द्रजी वगैरःने ईसाकी ६ ठी शताब्दी निर्णीत कर लिखा है। तथा इनका यशोगान भी ईशाकी छट्टी शताब्दी के वाद आचार्य जिनसेनादि द्वारा मिलता है। ये आचार्य यद्यपि प्रतिभाशाली श्रीसमन्तभद्रके ही समान विद्वान थे परंतु जैसा शुभ स्तुतिगान स्वामी समंत भद्राचार्यजीका उनके पीछेके महर्षि तथा विद्वानों द्वारा कीर्तन किया गया बाहुल्यतासे मिलता है वैसा श्री सिद्धसेन दिवाकरजीका नहीं मिलता इस लिये यह स्पष्ट सिद्ध है कि उनके पीछेके कुछ एक विद्वान् उनकी श्रेणिमें गिने जानेपर भी उनके समान नहीं थे। इसका हेतु यही है कि स्वामीजी उत्सर्पिणीकालकी भविष्य चौवीसीमें भरत. क्षेत्रके तीर्थकर होनेवाले हैं । जो प्राणी थोड़ेही समयमें तीर्थंकर होनेवाला है उसका माहात्म्य तथा उसकी विद्वत्ता अपूर्वही हो तो इसमें आश्चर्य भी किस वातका । स्वामीजी भविष्यमें तीर्थकर होनेवाले हैं इस विषयमें उभयभाषा कविचक्रवर्ति श्री हस्तिमल्लिजी इस प्रकार लिखते हैं । श्री मूलसंघव्योमेन्दुर्भारते भावि तीर्थकृत् । देशे समंतभद्राख्यो मुनिर्जीयात् पदद्धिकः॥ इस पद्यसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आप मूलसंघके आचार्य थे। सेनसंघका जो आपको विद्वान् लोग लिखते हैं उसका हेतु ही है कि सेनसंघ मूल.Page Navigation
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