Book Title: Sukti Triveni
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी उपाध्याय अमरमुनि Vill सन्मति ज्ञानपीठ,आगरा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ auca Agoni Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी (जन-धारा) उपाध्याय अमर मुनि सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा-२ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति साहित्य रत्नमाला का ९९ वा ग्रन्थ रत्न पुस्तक : सूक्ति त्रिवेणी ( जैन-धारा) संपादक : उपाध्याय अमर मुनि प्रकाशक : सन्मति ज्ञान पीठ, लोहामंडी, आगरा- २८२००२ ब्रांच : वीरायतन राजगृह - ८०३ ११६ ( नालंदा बिहार ) द्वितीय प्रकाशन : जून १९८८ गल्य : ४०-०० मुद्रक : प्रदीप मुनोत, प्रभात प्रिंटिंग वर्क्स, ४२७, गुलटेकडी, पुणे ४११०३७. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी | विद्वानों का अभिमत राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली-४ दिनांक- २६ अगस्त, १९६८ इन्सान फितरतन आजाद मनिश होता है। किसी किस्म की पाबन्दी या रोक-टोक उसकी इस आजादी में रुकावट समझी जाती है। लेकिन समाजहित और अनुशासन के लिए यह जरूरी है कि कुछ ऐसे नियम निर्धारित हों, जो समाज को जंगल के कानून का शिकार न होने दें। यही वह नियम हैं, जो दुनियाँ के भिन्न-भिन्न धर्मों की आधार शिला है, ख्वाह वह हिन्दुओं का धर्म हो या किसी और का । हकीकत तो यह है कि दुनियां का हर मजहब एखलाकी कदरों का एक मखजन है। उपाध्याय अमर मुनि की यह रचना इन्हीं नियमों और उपदेशों का संग्रह है, जिसमें जैन, बौद्ध और वैदिक धर्म के चुने हुए उपदेशों का संग्रह एक पुस्तक के रूप में जन-साधारण की भलाई के लिए प्रकाशित किया गया है । मुझे विश्वास है कि अगर लोग इस किताब को पढेंगे और इसमें दिये हुए इन उसूलों पर अमल करेंगे तो वह केवल अपने मजहब के लोगों के जीवन ही को नहीं, बल्कि अपने आस-पास के लोगों के जीवन को भी सुखमय और शान्तिपूर्ण बना सकेंगे। मैं आशा करता हूँ कि मुनिजी की रचना का लोग ध्यान से अध्ययन करेंगे और इच्छित लाभ उठा सकेंगे। -जाकिर हुसैन (राष्ट्रपति-भारत गणराज्य) 'सूक्ति त्रिवेणी' श्री उपाध्याय अमर मुनि की कृति है, अमर मुनिजी अपनी विद्वत्ता के लिये प्रसिद्ध हैं। पुस्तक में जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य के सर्व मान्य ग्रन्थों से सुन्दर संग्रह किया गया है। भारतवर्ष का यह काल निर्माण का समय है, परन्तु यह खेद की बात है कि यह निर्माण एकांगी हो रहा है। हमारी दृष्टि केवल भौतिकता की ओर है। हमारे निर्माण में जब तक आध्यात्मिकता नहीं आयेगी, तब तक यह निर्माण सांगोपांग और पूर्ण नहीं हो सकता। यह ग्रंथ इस दिशा में अच्छी प्रेरणा देता है। -(सेठ) गोविन्ददास संसद सदस्य (अध्यक्ष : हिन्दी साहित्य सम्मेलन) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सनिधि' राजधाट, नई दिल्ली-१ इन दिनों में भारत में सब जगह जाकर लोगों को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि भारतीय संस्कृति को हमें प्राणवान बनाकर विश्व की सेवा के योग्य बनाना हो तो हमें अब समन्वय-नीति को स्वीकार करना ही होगा। समन्वय नीति ही आज का युगधर्म है। आज का यगधर्म है। भारत में तीन दर्शनों की प्रधानता है। सनातनी संस्कृति के तीन दर्शनों का प्रभुत्व है (१) वैदिक अथवा श्रुति-स्मृति पुराणोक्त-दर्शन (२) जैन दर्शन और (३) बौद्ध दर्शन । इन तीनों दर्शनों ने भक्तियोग को कुछ न कुछ स्वीकार किया है। ये सब मिलकर भारतीय जीवन-दर्शन होता है। - इसी युगानुकूल नीति का स्वीकार जैन मुनि उपाध्याय अमर मुनि ने पूरे हृदय से किया है। और अभी-अभी उन्होंने इन तीनों दर्शनों में से महत्त्व के और सुन्दर सुभाषित चुनकर 'सूक्ति त्रिवेणी' तैयार की है । अमर मुनिजी ने आज तक बहुत महत्त्व का साहित्य दिया है, उसमें यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्व की वृद्धि कर रहा है । तुलनात्मक अध्ययन से दृष्टि विशाल होती है और तत्त्व-निष्ठा दृढ़ होती है। 'सूक्ति त्रिवेणी' ग्रंथ यह काम पूरी योग्यता से सम्पन्न करेगा। __ मैं संस्कृति उपासकों को पूरे आग्रह से प्रार्थना करूंगा कि समय-समय पर इस त्रिवेणी में डुबकी लगाकर सांस्कृतिक पुण्य का अर्जन करें। __ श्री अमर मुनिजी से भी मैं प्रार्थना करूंगा कि इस ग्रंथ के रूप में हिन्दी विभाग को उस की भाषा सामान्यजनसुलभ बनाकर अलग ग्रंथ के रूप में प्रकाशित करें । ताकि भारत की विशाल जनता भी इससे पूरा लाभ उठावे । ऐसे सुलभ हिन्दी संस्करणों से पाठकों को मूल सूक्ति त्रिवेणी की ओर जाने की स्वाभाविक प्रेरणा होगी। मैं फिर से इस युगानुकूल प्रवृत्ति का और उसके प्रवर्तकों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। -काका कालेलकर ......सूक्ति त्रिवेणी के प्रकाशन पर मुझे प्रसन्नता है, यह एक सुन्दर पुस्तक है, इससे समाज को लाभ पहुँचेगा और राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा मिलेगा, इस दिशा में आपका कार्य सराहनीय है, आप मेरी ओर से बधाई स्वीकार कीजिए । -दौलतसिंह कोठारी अध्यक्ष-विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि श्री जी महाराज न सतत परिश्रम एवं विशाल अध्ययन के आधार पर 'सूक्ति त्रिवेणी' का जो सुन्दर तथा महत्त्वपूर्ण संकलन प्रस्तुत किया है, वह वर्तमान समय का अद्वितीय ग्रन्थ कहा जा सकता है। इससे लेखक, प्रवक्ता, संशोधक, जिज्ञासु, स्वाध्याय प्रेमी आदि सभी को लाभ प्राप्त होगा। इस ग्रन्थ रत्न का हार्दिक अभिनन्दन ! ___ -आचार्यश्री आनन्दऋषिजी महाराज उपाध्याय कवि अमर मुनि के बहिरंग से ही नहीं, अन्तरंग से भी म परिचित हूँ। उनकी दृष्टि उदार है और वे समन्वय के समर्थक हैं। 'सूक्ति त्रिवेणी' उनके उदार और समन्वयात्मक दृष्टिकोण का मूर्तरूप है। इसमें भारतीय धर्मदर्शन की त्रिवेणी का तटस्थ प्रवाह है। यह देखकर मुझे प्रसन्नता हुई कि इसमें हर युग की चिंतन धारा का अविरल समावेश है। यह सत्प्रयत्न भूरि-भूरि अनुमोदनीय है। तेरापंथी भवन, -आचार्य तुलसी मद्रास सत्य असीम है। जो असीम होता है, वह किसी सीमा में आबद्ध नहीं हाता । सत्य न तो भाषा की सीमा में आबद्ध है और न सम्प्रदाय की सीमा में। वह देश, काल की सीमा में भी आबद्ध नहीं है। इस अनाबद्धता को अभिव्यक्ति देना अनुरान्धित्सु का काम है। उपाध्याय कवि अमर मुनि सत्य के अनुसन्धित्सु हैं। उन्होंन भाषा आर सम्प्रदाय की सीमा से परे भी सत्य को देखा है। उनकी दिदृक्षा इस 'सूक्ति त्रिवेणी' में प्रतिबिम्नि कवि श्री ने सूक्ष्म के प्रति समदृष्टि का वरण कर अनाग्रहभाव से भारत के तीनों प्रमुख धर्म-दर्शनों (जैन, बौद्ध और वैदिक) के हृदय का एकीकरण किया है । कवि श्री जैसे मेधावी लेखक हैं, वैसे ही मेधावी चयनकार भी हैं । सत्य-जिज्ञासा की सम्मूर्ति, समन्वय और भारतीय आत्मा का संबोध इन तीनों दृष्टियों से प्रस्तुत ग्रंथ पठनीय बना है। आचार्य श्री ने भी उक्त दृष्टियों से इसे बहुत पसन्द किया है। मैं आशा करता हूँ कि कवि श्री की प्रबुद्ध लेखनी से और भी अनेक विन्यास प्रस्तुत होते रहेंगे। तेरापंथी भवन -मुनि नथमल मद्रास (युवाचार्य महाप्रज्ञ) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सूक्ति त्रिवणी' देखकर प्रसन्नता हुई। हमारे देश में प्राचीन भापाआका अध्ययन धर्म के साथ लगा हुआ है । इससे उसके अध्ययन के विभाग अलग-अलग रखे गये हैं और विद्याथियों को तुलनात्मक अध्ययन का अवकाश मिलता नहीं । आपने मागधी, अर्धमागधी, पालि और संस्कृत सबको साथ करके यह संग्रह किया है, वह बहुत अच्छा हुआ । इससे तुलनात्मक अध्ययन के लिए सुविधा होगी। -प्रबोध वेचरदास पंडित (दिल्ली विश्वविद्यालय) हमारे देश में प्राचीन काल से ही सर्व धर्म समभाव की परम्परा रही है । अपने अपने धर्म में आस्था और विश्वास रखते हुए भी दूसरे धर्मों के प्रति पूज्य भाव रखने को ही आज धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है । पूज्य उपाध्याय अमर मुनि ने जैन, बौद्ध और वैदिक धाराओं के सुभाषितों को एक ग्रंथ में संग्रहित करके उस महान परम्परा को आगे बढ़ाया है । 'सूक्ति त्रिवेणी' ग्रंथ के प्रकाशन का मैं स्वागत करता हूँ और आशा करता हूँ कि बुद्धिजीवियों और अध्यात्म जिज्ञासुओं को यह प्रेरणा प्रदान करेगा। -अक्षयकुमार जैन संपादक : नवभारत टाइम्स, दिल्ली-बम्बई Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन भारतीय संस्कृति का स्वरूपदर्शन करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि भारतवर्ष में प्रचलित और प्रतिष्ठित विभिन्न संस्कृतियों का समन्वयात्मक दृष्टि से अध्ययन हो । भारत वर्ष की प्रत्येक संस्कृति की अपनी एक विशिष्ट धारा है । वह उसी संस्कृति के विशिष्ट रूप का प्रकाशक है। यह बात सत्य है, परंतु यह बात भी सत्य है कि उन संस्कृतियों का एक समन्वयात्मक रूप भी है। जिसको उन सब विशिष्ट संस्कृतियों का समन्वित रूप माना जा सकता है, वहीं यथार्थ भारतीय संस्कृति है । प्रत्येक क्षेत्र में जो समन्वयात्मक रूप है, उसका अनुशीलन ही भारतीय संस्कृति का अनुशीलन है । गंगा-जमुना तथा सरस्वती इन तीन नदियों की पृथक् सत्ता और माहात्म्य रहने पर भी इनके परस्पर संयोग से जो त्रिवेणीसंगम की अभिव्यक्ति होती है, उसका माहात्म्य और भी अधिक है। वर्तमान ग्रंथ के संकलनकर्ता परमश्रद्धेय उपाध्याय अमरमुनिजी श्वेतांबर जैन परम्परा के सुविख्यात महात्मा हैं । वे जैन होने पर भी विभिन्न सांस्कृतिक धाराओं के प्रति समरूपेण श्रद्धासम्पन्न हैं । वैदिक, जैन तथा बौद्ध वाङ्मय के प्रायः पचास ग्रंथों से उन्होंने चार हजार सूक्तियों का चयन किया है और साथ ही साथ उन सूक्तियों का हिंदी अनुवाद भी सन्निविष्ट किया है। तीन धाराओं के सम्मेलन से उद्भूत यह सूक्ति-त्रिवेणी सचमुच भारतीय संस्कृति के प्रेमियों के लिए एक महनीय तथा पावन तीर्थ बनेगी। ___ किसी देश की यथार्थ संस्कृति उसके बहिरंग के ऊपर निर्भर नहीं करती है । अपितु व्यक्ति की संस्कृति नैतिक उच्च आदर्श, चित्तशुद्धि, संयम, जीवसेवा, परोपकार तथा सर्वभूतहित-साधन की इच्छा, संतोष, दया, चरित्रबल, स्वधर्म में निष्ठा, परधर्म-सहिष्णुता, मंत्री, करुणा, प्रेम, सद्विचार प्रभृति सद्गुणों का विकास और काम, क्रोधादि रिपुओं के नियंत्रण के ऊपर निर्भर करती है । व्यक्ति गत धर्म, सामाजिक धर्म, राष्ट्रीय धर्म, जनसेवा, विश्वकल्याण प्रभृति गुण आदर्श संस्कृति के अंग हैं। नैतिक, आध्यात्मिक तथा दिव्य जीवन का आदर्श ही संस्कृति का प्राण है। ___ 'ज्ञाने मौनं, क्षमा शक्ती, त्यागे श्लाघाविपर्ययः' इत्यादि आदर्श उच्च संस्कृति के द्योतक हैं। जिस प्रकार व्यष्टि में हैं, उसी प्रकार समष्टि में भी समझना चाहिए। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलनकर्ता ने वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, प्रभृति ग्रंथों से संकलन किया है । जैन धाराओं में आचारांग सूत्र, सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र, दशवकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र और आचार्य भद्रबाहु के तथा आचार्य कुन्दकुन्द के वचनों से तथा भाष्य साहित्य, चूणि साहित्य से सूक्तियों का संचयन किया है । बौद्ध धारा में सुत्तपिटक, दीर्घनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय, धम्मपद, उदान, इतिवृत्तक, सुत्तनिपात, थेरगाथा, जातक, विशुद्धिमग्गो प्रभृति ग्रंथों से संग्रह किया है। देश की वर्तमान परिस्थिति में इस प्रकार की समन्वयात्मक दृष्टि का व्यापक प्रसार जनता के भीतर होना आवश्यक है। इससे चित्त का संकोच दूर हो जाता है। मैं आशा करता हूँ कि श्रद्धेय ग्रंथकार का महान् उद्देश्य पूर्ण होगा और देशव्यापी क्लेशप्रद भेदभाव के भीतर अभेददृष्टि स्वरूप अमृत का संचार होगा। इस प्रकार के ग्रंथों का जितना अधिक प्रचार हो, उतना ही देश का कल्याण होगा। -गोपीनाथ कविराज पद्मविभूषण, महामहोपाध्याय (वाराणसी) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय लगभग तीन दशक हुए जब 'महावीर वाणी' के सम्पादन में सुविश्रुत पं. बेचरदासजी के साथ कुछ कार्य करने का सुप्रसंग मिला था। तभी से जैन आगम साहित्य की सूक्तियों का विशाल संकलन करने की परिकल्पना अन्तर्मन में रूपायित होने लगी थी । यथावसर वह विकसित एवं गतिशील भी हुई, परन्तु अन्य अनेक व्यवधानों के कारण वह पूर्णता के बिन्दु पर पहुँचकर भी यथाभिलषित मूर्तरूप न ले सकी । इस दीर्घ अवधि के बीच विभिन्न स्थानों से, विभिन्न रूपों में, विभिन्न सूक्ति संकलन प्रकाशित हो चुके हैं । अपने स्थान में प्रत्येक वस्तु की अपनी कुछ-न-कुछ उपयोगिता होती है, इसके अतिरिक्त मैं उनके संबंध में और अधिक क्या कह सकता हूँ । मुझे तो केवल अपनी बात कहनी है, और मै वह कह रहा हूँ । कुछ समय पूर्व समय की परतों के नीचे दबी हुई जैन साहित्य के सुभाषितों की अपनी कुछ फाइलें टटोल रहा था, तो विचार आया कि इस अधूरे कार्य को अब पूर्ति के लक्ष्य पर ले आना चाहिए। तभी कुछ स्नेही साथियों और जिज्ञासुओं के परामर्श मिले कि आगम-सूक्तियों के एकाधिक संस्करण प्रकाशित हो जाने पर भी कुछ खटक उनमें रह गई है, इस कारण उनकी सार्वदेशिक उपयोगिता जैसी होनी चाहिए थी, नहीं हो पाई। अतः आप कुछ मार्ग बदल कर चलें, तो अच्छा रहेगा । अबतक के प्रकाशित अनेक संकलनों को एक दौड़ती नजर से देख जाने पर यह खटक वस्तुतः मन में खटक जाती है कि बहुत समय पहले जो दृष्टि-बिंदु महावीर वाणी के साथ आगे आया था, अब तक के उत्तरवर्ती संकलनों में कोई भी संकलन उससे आगे नहीं बढ़ा है । प्रायः सभी उसी धुरी के अगल-बगल घूमते रहे हैं, फलतः उन्हीं सुभाषितों का कुछ हेर-फेर के साथ प्रकाशन होता रहा है । जैन साहित्य का सूक्ति भण्डार महासागर से भी गहरा है । उसमें एक-सेएक दिव्य असंख्य मणि - मुक्ताएँ छिपी पडी हैं । सुभाषित वचनामृतों का तो वह एक महान् अक्षयसिंधु है । अध्यात्म और वैराग्य के ही उपादेय नहीं, किन्तु पारिवारिक सामाजिक आदि अनेक जीवन- विधाओं के विकास एवं निखार के हेतु नीति, व्यवहार आदि के उत्कृष्ट सुपरीक्षित सिद्धान्त-वचन उनमें यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। उन्हें पाने के लिए कुछ गहरी डुबकी लगानी पडती है । किनारेकिनारे घूमने से और दृष्टि को संकुचित रखने से वे दिखाई नहीं दे सकते हैं, पलक मारते सहसा उपलब्ध नहीं हो सकते । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन आगमों के अतिरिक्त प्रकीर्णक, नियुक्ति, भाप्य और चूणि-साहित्य आदि में ऐसे प्रेरणाप्रद, जीवन-स्पर्शी, सरस सुभापितों का विशाल भण्डार भरा हुआ है कि खोजते जाइए और उनके रसास्वादन से स्वयं तृप्त होकर दूसरों को भी तृप्त करते जाइए। आचार्य कुन्द कुन्द के अध्यात्म-रस से सुस्निग्ध सुभाषित आत्मा को छूते हुए-से लगेंगे, तो आचार्य भद्रबाहु और सिद्धसेन के सुवचन दर्शन की अतल गहराई से प्रस्फुटित होते जलस्रोत की तरह हृदय को आप्लावित करते हुए प्रतीत होंगे। ये सुभाषित जीवन में उतर जाएँ तो कहना ही क्या, परन्तु यदि इन का सतत स्वाध्याय भी किया जाए, तो भी हृदय में आनन्द की सुमधुर अनुभूतियाँ जगमगाने लगती हैं, एक दिव्य प्रकाश-सा चमकने लगता है और लगता है कि कुछ मिल रहा है, अंधकार की परतें टूट रही हैं, विकल्प शान्त हो रहे हैं और मन, वाणी एवं देह अपूर्व शान्ति, संतोष और शीतलता का अनुभव कर रहे हैं । इस प्रकार की अनुभूति ही अध्ययन की उप. योगिता है, स्वाध्याय की अमर फलश्रुति है । इस संकलन में अज्ञात रूप से प्रेरक एक बात और भी है, जो मन को कुरेदती रही है, एक प्रेरणा बन कर इस कार्य को विराट रूप देने में संकल्पों को दृढ़ एवं दृढ़तर करती रही है । वह है, कि जन-जगत के अनेक लेखक एवं प्रवक्ता जहाँ अपने लेखों तथा प्रवचनों में पुराणों एवं स्मृतियों के कुछ श्लोक, हितोपदेश आदि के कुछ सुभाषित, सूर, तुलसी और कबीर आदि के कुछ दोहे, शायरों के कुछ बहु प्रचलित उर्दू शेर, शेक्सपियर और गेटे की कुछ पंक्तियों का बार-बार उल्लेख करके जन-जीवन में प्रेरणा भरते रहते हैं, वहाँ उनके सरस्वती भण्डार में प्राचीन जैन-साहित्य की सूक्तियों का कुछ अभाव-सा खलता है। ऐसा लगता है कि वे अपने ही साहित्य और संस्कृति से अनजाने रहकर विश्व के सांस्कृतिकसमन्वय की भावना रखते हैं। इस बात में सिर्फ उनका ही दोष नहीं है, किन्तु इस प्रकार की भावना जगानेवाला वातावरण और साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में अभी उपलब्ध भी कहाँ हो रहा है? कुछ अध्ययनशीलता का अभाव और कुछ साहित्य की समुचित उपलब्धि का अभाव और कुछ सांस्कृतिक-परम्परा के संरक्षण की वृत्ति का अभाव - यों इन कारणों से एक प्रकार का सांस्कृतिक हास वर्तमान युग में हो रहा है और इसी सांस्कृतिक -हास ने इस सूक्ति संकलन को कुछ विस्तार देने और साथ ही शीव्रता से सम्पन्न होने में प्रेरणा दी है। जैन साहित्य की सूक्तियों को बहुत व्यापकता के साथ संकलित करने की कल्पना को भी मुझे दो कारणों से सीमित करना पड़ा है। एक संकलन बहुत विशाल हो जाने के भय से सिर्फ प्राकृत साहित्य की सूक्तियाँ ही लेने का निश्चय Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया और उनमें भी कुछ प्रमुख ग्रन्थ ही हैं। सम्पूर्ण संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य को यों ही अछूता छोड़ देना पड़ा। दूसरी बात, दिगम्बर-परम्परा के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की सूक्तियों का बहुत संक्षेपीकरण करना पड़ा, कुछ समयाभाव, कुछ शरीर की अस्वस्थता और कुछ ग्रन्थ की विशालता के भय से । मुक्तियों के अनुवाद में एक विशेष दृष्टिकोण रखा गया है। दो हजार वर्ष प्राचीन भाषा के वर्तमान का अर्थ-बोध प्रायः विच्छिन्न-सा हो चुका है। तद्युगीन कुछ विशेष शब्दों और उपभानों से वर्तमान का पाठक अपरिचित-सा है। ऐसी स्थिति में प्राकृत मुक्तियों के शव्दानुवाद में पाठक उनकी मूल भावनाओं को सीधा हृदयंगम नहीं कर पाता, केवल शाब्दिक उलझन में भटक कर रह जाता है। इस दृष्टि से मैंने अनुवाद को भावानुलक्षी रखने का प्रयत्न किया है, ताकि प्राचीनतम प्राकृत-भाषा के मूल अभिप्राय को पाठक सरलता और सरसता के साथ ग्रहण कर सकें। कुछ सांस्कृतिक एवं पारिभाषिक शब्दों से परिचय बनाए रखने की दृष्टि से उन्हें भी यथास्थान रखा गया है और साथ में उनका अर्थ भी दे दिया है। भुक्तियों को विषयानुक्रम से रखने की कल्पना भी सामने थी। किन्तु, इससे एक ही आगम एवं एक ही आचार्य की मूक्तियाँ बिखर जातीं और उनकी धारा तथा स्वारस्य खण्डित-सा हो जाता, इसलिए उन्हें विषयानुक्रम में नहीं रख कर, ग्रन्थानुक्रम से ही रखा गया है। जिन ग्रन्थों की सूक्तियाँ बहुत ही अल्प मात्रा में ली गई, उन बिखरी हुई सूक्तियों का समावेश अन्त में सूक्ति-कण शीर्षक से कर दिया गया है। अनेक अजैन विद्वानों की यह शिकायत भी मेरे ध्यान में रही है, कि वे प्राचीन जैन वाङ्मय के सुभाषितों का रसास्वाद लेना चाहते हुए भी ले नहीं पाते हैं, क्योंकि ऐसा कोई संग्रह उनके सामने ही नहीं है, जो स्वल्प श्रम एवं स्वल्प समय में उनकी जिज्ञासा को तृप्त कर सके। मुझे आशा है, कि उनकी इस शिकायत को भी इस संग्रह से कुछ समाधान मिल सकेगा। ___ आशा है, इस संग्रह का प्राचीन सुक्तियों एवं सुभापितों के क्षेत्र में एक नवीनता के साथ पाठक स्वागत करेंगे और इसके स्वाध्याय से वे भारत का कुछ न कुछ पानीन ज्ञानालोक प्राप्त कर प्रमुदित होंगे। -उपाध्याय अम नाग पञ्चमी: आगरा दिनांक : १० अगस्त १९६७ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनश्च - प्रस्तुत ग्रन्थ प्रथम संस्करण के समय सूक्ति- त्रिवेणी के एक अंग विशेष रूप 'जैन-धारा' के नाम से प्रकाशित हुआ था । पुस्तक ने जैन-अर्जन सभी परम्पराओं के विद्वद् जनों एवं साधारण जिज्ञासु पाठकों के हृदयों को समादर की भावना से आप्लावित किया है । इसकी इतनी मांग रही है, कि सबसे पहले यही संस्करण प्रकाशन - कोष में से समाप्त हुआ । इधर काफी समय से मांग- पर-मांग बढ़ती जा रही थी, किन्तु मैं शारीरिक दृष्टि से वृद्धावस्था से आक्रान्त हुआ और साथ ही रोगाक्रान्त भी । अतः द्वितीय संस्करण को और अधिक पल्लवित और पुष्पित करने की आकांक्षा में समय का प्रवाह काफी दूर तक बह गया और आखिर में अपने संकल्पों को यथाविधि रूपायित न कर सका ! -१४ इधर श्रमण भगवान महावीर की पच्चीसवीं शती के रूप में वैभारगिरिराजगृह की पावन उपत्यका में वीरायतन के पुनीत नाम से मानवीय जीवन के अनेकविध जीवन- आयामों को मंगल-कल्याण के रूप में स्पर्श करता हुआ एक महान संस्थान रूपायित हुआ । उक्त संस्थान का एक अंग मानव-जाति को सद्बोध देने हेतु ज्ञान प्रसार भी है। साथ ही अपने प्राचीन महापुरुषों के द्वारा सुपरीक्षित सांस्कृतिक अनुभवों का प्रचार-प्रसार करना भी है | अतः यथाप्रसंग कुछ अच्छे एवं महत्त्वपूर्ण प्रकाशन भी वीरायतन माध्यम विगत हुए हैं। और उन्होंने जिज्ञासु जनता में आशा से अधिक स्वागत-सत्कार भी प्राप्त किया है । सूक्ति त्रिवेणी का जैन-धारा अंश समाप्त हो गया, तो आचार्य रत्न श्री चन्दनाश्रीजी तथा वीरायतन के उदात्त विचारक अध्यक्ष महोदय श्री नवलमलजी फिरोदिया (पूना) ने आग्रह किया, कि कुछ भी हो कम-से-कम सूक्ति त्रिवेणी का जैन-धर्म से सम्बन्धित अंश तो अभी प्रकाशित हो ही जाना चाहिए । अस्तु, यह पुनर्मुद्रण सुपरिष्कृत रूप में प्रकाशन की भूमिका पर जा रहा है, यह उन्हीं के सदाग्रह का सुफल है । एतदर्थ दोनों महानुभाव ज्ञान-पिपासु जनता की ओर से हार्दिक धन्यवाद के पात्र हैं । वीरायतन : राजगृह महावीर केवलज्ञान कल्याणक वैशाख शुक्ल दशवीं - उपाध्याय अमर मुनि Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय चिरअभिलषित, चिरप्रतीक्षित- - सूक्ति त्रिवेणी' का सुन्दर और महत्त्वपूर्ण संकलन अपने प्रिय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हम अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं । जैन जगत के बहुश्रुत मनीषी, प्रज्ञामहर्षि उपाध्यायश्रीजी की चिन्तन और ओजपूर्ण लेखनी से वर्तमान का जैन समाज ही नहीं, किंतु भारतीय संस्कृति और दर्शन का प्रायः प्रत्येक प्रबुद्ध जिज्ञासु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से परिचित है । निरंतर बढ़ती जाती वृद्धावस्था, साथ ही अस्वस्थता के कारण उनका शरीर बल काफी क्षीण हो रहा है, किंतु जब प्रस्तुत पुस्तक के प्रणयन में वे आठ-आठ दस-दस घंटा सतत संलग्न रहते, पुस्तकों के बीच खोए रहते, तब लगता था कि उपाध्यायश्रीजी अभी युवा हैं, उनकी साहित्य - श्रुत-साधना अभी वैसी ही तीव्र है, जैसी कि निशीथ भाष्य चूर्णि के संपादन के समय थी । ' सूक्ति त्रिवेणी' सूक्ति और सुभाषितों के क्षेत्र में अपने साथ एक नवीन युग का श्री गणेश कर रही है । इस प्रकार के तुलनात्मक और अनुशीलनपूर्ण संग्रह का अब तक भारतीय वाङ्मय में अभाव था, उस अभाव की पूर्ति यह नवीन युग का प्रारंभ है । इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक का प्रकाशन एक ऐसी दिशा में हो रहा है, जो अपने समग्र जैन समाज के लिए महत्त्वपूर्ण अवसर है। श्रमण भगवान महावीर की पच्चीस - सौवीं निर्वाण तिथि मनाने के सामूहिक प्रयत्न तीव्रता के साथ चल रहे हैं । विविधप्रकार के साहित्य प्रकाशन की योजनाएँ बन रही है | सन्मति ज्ञान पीठ इस दिशा में अपने सांस्कृतिक प्रकाशनों को गतिशील करने के लिए सचेष्ट है । ' सूक्ति त्रिवेणी' का यह महत्त्वपूर्ण प्रकाशन उसी उपलक्ष्य में हमारा पहला श्रद्धा स्निग्ध उपहार है । सूक्ति त्रिवेणी की तीनों धाराएँ संयुक्त रूप से आकार में बड़ी होंगी, इसलिए अलग-अलग खण्डों में भी प्रकाशित करने का निश्चय किया है। तदनुसार 'जैन-धर्म-धारा' के रूप में प्रथम खण्ड हम अपने पाठकों की सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं । " विद्वानों, रिसर्च स्कालरों एवं सामान्य पाठकों ने इससे काफी लाभ उठाया है । विद्वानों के आग्रह को आदर देते हुए यह द्वितीय संस्कारण प्रकाशित कर रहे हैं । तत्पश्चात् शीघ्र ही बौद्ध-धारा एवं वैदिक धारा का भी प्रकाशन करने जा रहे हैं। -मंत्री, सन्मति ज्ञानपीठ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ नु क्र म ग्रन्थ सूक्तिसंख्या पष्ट १२५ ११८ ५४ ४८ ३ ६ b ७२ १----आचासंग की सूक्तियाँ २--सूत्रकृतांग की सूक्तियाँ ३--स्थानांग की सूक्तियाँ ४--भगवती सूत्र की सूक्तियां ५--प्रश्नव्याकरण सूत्र की सूक्तियाँ ६--दशवैकालिक की सूक्तियाँ ७--उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ ८--आचार्य भद्रबाहु की मूक्तियां ९---आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियाँ १०--भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ ११--चूर्णिसाहित्य की मूक्तियाँ १२---युक्तिकण १३२ १६४ ११२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी -* जैन-धारा Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियों का अनुवाद १. यह मेरी आत्मा औपपातिक है, कर्मानुसार पुनर्जन्म ग्रहण करती है... आत्मा के पुनर्जन्मसम्बन्धी सिद्धान्त को स्वीकार करने वाला ही वस्तुतः आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी है । २. यह आरम्भ ( हिंसा ) ही वस्तुतः ग्रन्थ = बन्धन है, यही मोह है, यही मार = मृत्यु है, और यही नरक है । ३. जिस श्रद्धा के साथ निष्क्रमण किया है, साधना पथ अपनाया है, उसी श्रद्धा के साथ विस्रोतसिका ( मन की शंका या कुण्ठा) से दूर रहकर उसका अनुपालन करना चाहिए । ४. जो लोक ( अन्य जीवसमूह ) का अपलाप करता है, वह स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है । जो अपनी आत्मा का अपलाप करता है, वह लोक ( अन्य जीवसमूह) का भी अपलाप करता है । ५. सतत अप्रमत्त = जाग्रत रहने वाले जितेन्द्रिय वीर पुरुषों ने मन के समग्र द्वन्द्वों को अभिभूत कर सत्य का साक्षात्कार किया है । ६. जो प्रमत्त है, विषयासक्त है, वह निश्चय ही जीवों को दण्ड (पीड़ा ) देने वाला होता है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ १. अत्थि मे आया उववाइए ... ___ से आयावादी, लोयावादी, कम्मावादी, किरियावादी । -१११११ २. एस खलु गंथे एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । -११११२ ३. जाए सद्धाए निक्खंते तमेव अणुपालेज्जा, विजहित्ता विसोत्तियं । -१।१३ ४. जे लोग अब्भाइक्खति, से अत्ताणं अब्भाइक्खति । जे अत्ताणं अब्भाइक्खति, से लोगं अब्भाइक्खति । -१।१।३ ५. वीरेहिं एवं अभिभूय दिळें, संजतेहिं सया अप्पमत्तेहिं । -१।११४ ६. जे पमत्ते गुणट्ठिए, से हु दंडे त्ति पवुच्चति । -१११।४ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार सूक्ति त्रिवेणी ७. तं परिणाय मेहावी, __ इयाणि णो, जमहं पुबमकासी पमाएणं । --११११४ ८. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ । एयं तुलमन्ने सि । -१।११४ ९. जे गुणे से आवटे, जे आवट्टे से गुणे । -११।५ १०. आतुरा परितावेति । ----११।६ ११. अप्पेगे हिंसिसु मे त्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसंति मे त्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसिस्संति मे त्ति वा वहति । -१।११६ १२. से ण हासाए, ण किड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए । -१२।१ १३. अंतरं च खलु इमं संपेहाए, धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए। ---- ११२।१ १४. वओ अच्चेति जोव्वणं च । -११२।१ १५. अणभिक्कंतं च वयं संपेहाए, खणं जाणाहि पंडिए । -१।२।१ १६. अरइं आउट्टे से मेहावी खणंसि मुक्के । -१२।२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग को सूक्तियाँ पांच ७. मेधावी साधक को आत्मपरिज्ञान के द्वारा यह निश्चय करना चाहिए कि -"मैंने पूर्वजीवन में प्रमादवश जो कुछ भूलें की हैं, वे अब कभी नहीं करूँगा।" ८. जो अपने अन्दर (अपने सुख दुख की अनुभूति) को जानता है, वह बाहर (दूसरों के सुख दुःख की अनुभूति) को भी जानता है। . जो बाहर को जानता है, वह अन्दर को भी जानता है । इस प्रकार दोनों को, स्व और पर को एक तुला पर रखना चाहिए । ९. जो काम-गुण है, इन्द्रियों का शब्दादि विषय है, वह आवर्त = संसारचक्र है। और जो आवर्त है, वह कामगुण है। १०. विषयातुर मनुष्य ही दूसरे प्राणियों को परिताप देते हैं । ११. 'इसने मुझे मारा'-कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं। 'यह मुझे मारता है'-कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं । 'यह मुझे मारेगा'-कुछ लोग इस विचार से हिंसा करते हैं । १२. वृद्ध हो जाने पर मनुष्य न हास-परिहास के योग्य रहता है, न क्रीडा के, न रति के और न शृंगार के योग्य ही । १३. अनन्त जीवन-प्रवाह में, मानव जीवन को बीच का एक सुअवसर जान कर। धीर साधक मुहूर्त भर के लिए भी प्रमाद न करे । १४. आयु और यौवन प्रतिक्षण बीता जा रहा है । १५. हे आत्मविद् साधक ! जो बीत गया सो बीत गया। शेष रहे जीवन को ही लक्ष्य में रखते हुए प्राप्त अवसर को परख । समय का मूल्य समझ ! १६. अरति (संयम के प्रति अरुचि) से मुक्त रहने वाला मेधावी साधक क्षण भर में ही बन्धनमुक्त हो सकता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी १७. अणाणाय पुट्ठा वि एगे नियति, ___ मंदा मोहेण पाउडा । -१२।२ १८. इत्थ मोहे पुणो पुणो सन्ना, नो हव्वाए नो पाराए । -११२।२ १९. विमुत्ता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो। -१।२।२ २०. लोभमलोभेण दुगुंछमाणे, लद्धे कामे नाभिगाहइ । -१।२।२ २१. विणा वि लोभं निक्खम्म, एस अकम्मे जाणति पासति । -१।२।२ २२. से असई उच्चागोए, असइं नीआगोए । नो हीणे, नो अइरित्ते। -१।२।३ २३. तम्हा पंडिए नो हरिसे, नो कुप्पे । -११२।३ २४. अणोहंतरा एए नो य ओहं तरित्तए । अतीरंगमा एए नो य तीरं गमित्तए। अपारंगमा एए नो य पारं गमित्तए । -१२।३ २५. वितहं पप्प 5 खेयन्ने, तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ । -११॥३ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधारांग की सूक्तियाँ सात १७. मोहाच्छन्न अज्ञानी साधक संकट आने पर धर्म शासन की अवज्ञा कर फिर संसार की ओर लौट पड़ते हैं। १८. बार-बार मोहग्रस्त होने वाला साधक न इस पार रहता है, न उस पार; अर्थात् न इस लोक का रहता है और न पर लोक का। १९. जो साधक कामनाओं को पार कर गए हैं, वस्तुतः वे ही मुक्त पुरुष हैं । २०. जो लोभ के प्रति अलोभवृत्ति के द्वारा विरक्ति रखता है, वह और तो क्या, प्राप्त काम-भोगों का भी सेवन नहीं करता है। २१. जिस साधक ने बिना किसी लोक-परलोक की कामना के निष्क्रमण किया है, प्रव्रज्या ग्रहण की है, वह अकर्म (बन्धन-मुक्त) होकर सब-कुछ का ज्ञाता, द्रष्टा हो जाता है । २२. यह जीवात्मा अनेक बार उच्च गोत्र में जन्म ले चुका है और अनेक बार नीच गोत्र में। इस प्रकार विभिन्न गोत्रों में जन्म लेने से न कोई हीन होता है और न कोई महान् । २३. आत्मज्ञानी साधक को ऊँची या नीची किसी भी स्थिति में न हर्षित होना चाहिए, और न कुपित। २४. जो वासना के प्रवाह को नहीं तैर पाए हैं, वे संसार के प्रवाह को नहीं । तैर सकते। जो इन्द्रियजन्य कामभोगों को पार कर तट पर नहीं पहुँचे हैं, वे संसारसागर के तट पर नहीं पहुँच सकते । जो राग द्वेष को पार नहीं कर पाए हैं, वे संसार सागर से पार नहीं हो सकते । २५ अज्ञानी साधक जब कभी असत्य विचारों को सुन लेता है, तो वह उन्हीं में उलझ कर रह जाता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । आठ सूक्ति त्रिवेणी २६. उद्देसो पासगस्स नत्थि । -१।२।३ २७. नत्थि कालस्स णागमो। ---१।२।३ २८. सव्वे पाणा पिआउया, । सुहसाया दुक्खपडिकूला, अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउ कामा सव्वेसिं जीवियं पियं नाइवाएज्ज कंचणं । -१।२।३ २९. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । -११४ ३०. आसं च छंदं च विगिंच धीरे ! तुम चेव सल्लमाह१ । -१।२४ ३१. जेण सिया, तेण णो सिया । -- ११२४ ३२. अलं कुसलस्स पमाएणं । -१।२।४ ३३. एस वीरे पसंसिए, जे ण णिविज्जति आदाणाए । -१२।४ ३४. लाभुत्ति न मज्जिज्जा, अलाभुत्ति न सोइज्जा । -१।२५ ३५. बहुं पि लधुं न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्जा । -१२।५ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ २६. तत्त्व-द्रष्टा को किसी के उपदेश की अपेक्षा नहीं है । २७. मृत्यु के लिए अकाल = वक्त-बेवक्त जैसा कुछ नहीं है। २८. सब प्राणियों को अपनी जिन्दगी प्यारी है। सुख सबको अच्छा लगता है और दुःख बुरा । वध सब को अप्रिय है, जीवन प्रिय । सब प्राणी जीना चाहते हैं, कुछ भी हो, सबको जीवन प्रिय है। अतः किसी भी प्राणी की हिंसा न करो। २९. प्रत्येक व्यक्ति का सुख-दुःख अपना-अपना है । ३०. हे धीर पुरुष ! आशा-तृष्णा और स्वच्छन्दता का त्याग कर । तू स्वयं ही इन कांटों को मन में रखकर दुःखी हो रहा है। ३१. तुम जिन (भोगों या वस्तुओं) से सुख की आशा रखते हो, वस्तुतः वे सुख के हेतु नहीं हैं। ३२. बुद्धिमान साधक को अपनी साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए । ३३. जो अपनी साधना में उद्विग्न नहीं होता है, वही वीर साधक प्रशंसित होता है। ३४. वस्तु के मिलने पर गर्व न करे । और, न मिलने पर शोक न करे । ३५. अधिक मिलने पर भी संग्रह न करे। परिग्रह-वृत्ति से अपने को दूर रखे। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस ३६. कामा दुरतिक्कम्मा ३७. जीवियं दुप्पडिबूहगं । ३८. एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए । ३९. जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहिं तहा अंत | ४०. से मइमं परिन्नाय मा य हु लालं पच्चासी । ४१. वेरं वड्ढेइ अप्पणो । ४२. अलं बालस्स संगेणं । ४३. पावं कम्मं नेव कुज्जा, न कारवेज्जा । ४४. सएण विप्पमाएण पुढो वयं पकुब्वह । ४५. जे ममाइयमई जहाइ, से जहाइ ममाइयं । से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स नत्थि ममाइयं । ४६. जे अणण्णदंसी से अणणारामे, जे अणणारामे, से अणण्णदंसी । सूक्ति त्रिवेणी - ११२१५ - १1२1५ - ११२१५ - ११२।५ - ११२१५ - १।२१५ —११२२५ —११२६ —११२६ - ११२६ - ११२६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग को सूक्तियाँ ग्यारह ३६. कामनाओं का पार पाना बहुत कठिन है । ३७. नष्ट होते जीवन का कोई प्रतिव्यूह अर्थात् प्रतिकार नहीं है । ३८. वही वीर प्रशंसित होता है, जो अपने को तथा दूसरों को दासता के बन्धन से मुक्त कराता है। ३९. यह शरीर जैसा अन्दर में (असार) है, वैसा ही बाहर में (असार) है। जैसा बाहर में (असार) है, वैसा ही अन्दर में (असार) है। ४०. विवेकी साधक लार = थूक चाटने वाला न बने, अर्थात परित्यक्त भोगों की पुन: कामना न करे। ४१. विषयातुर मनुष्य, अपने भोगों के लिए संसार में बैर बढ़ाता रहता है। ४२. बाल जीव (अज्ञानी) का संग नहीं करना चाहिए। ४३. पापकर्म (असत्कर्म) न स्वयं करे, न दूसरों से करवाए । ४४. मनुष्य अपनी ही भूलों से संसार की विचित्र स्थितियों में फंस जाता है । ४५. जो ममत्वबुद्धि का परित्याग करता है, वही वस्तुतः ममत्व परिग्रह का त्याग कर सकता है। . वही मुनि वास्तव में पथ (मोक्षमार्ग) का द्रष्टा है- जो किसी भी प्रकार का ममत्व भाव नहीं रखता है। ४६. जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता है, वह 'स्व' से अन्यत्र रमता भी नहीं है । और जो 'स्व' से अन्यत्र रमता नहीं है, वह 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि भी नहीं रखता है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह सूक्ति त्रिवेणी ४७. जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ । --१।२।६ ४८. कुसले पुण नो बद्धे, न मुत्ते । -११२।६ ४९. सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरन्ति । - १३॥१ ५०. लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं । -१।३।१ ५१. माई पमाई पुण एइ गब्भं । -११३।१ ५२. माराभिसंकी मरणा पमुच्चइ । -१।३।१ ५३. पन्नाणेहिं परियाणह लोयं मुणीत्ति वुच्चे । --११३११ ५४. आरंभजं दुक्ख मिणं । - १।३।१ ५५. अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ । -१।३१ ५६. कम्मुणा उवाही जायइ । - ११३।१ ५७. कम्ममूलं च जं छणं । -१३।१ ५८. सम्मत्तदंसी न करेइ पावं । -११३०२ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ तेरह ४७. निःस्पह उपदेशक जिस प्रकार पुण्यवान (संपन्न व्यक्ति) को उपदेश देता है, उसी प्रकार तुच्छ (दीन दरिद्र व्यक्ति) को भी उपदेश देता है। और जिस प्रकार तुच्छ को उपदेश देता है, उसी प्रकार पुण्यवान ___को भी उपदेश देता है अर्थात् दोनों के प्रति एक जैसा भाव रखता है । ४८. कुशल पुरुष न बद्ध है और न मुक्त । (ज्ञानी के लिए बन्ध या मोक्ष-जैसा कुछ नहीं है) ४९. अज्ञानी सदा सोये रहते हैं और ज्ञानी सदा जागते रहते हैं। ५०. यह समझ लीजिए कि संसार में अज्ञान तथा मोह ही अहित और दुःख करने वाला है। ५१.. मायावी और प्रमादी बार-बार गर्भ में अवतरित होता है, जन्म-मरण करता है। ५२. मृत्यु से सदा सतर्क रहने वाला साधक ही उससे छुटकारा पा सकता है। ५३. जो अपनी प्रज्ञा से संसार के स्वरूप को ठीक तरह जानता है, वही मुनि कहलाता है। ५४. यह सब दु:ख आरम्भज है, हिंसा में से उत्पन्न होता है । ५५. जो कर्म में से अकर्म की स्थिति में पहुँच गया है, वह तत्त्वदर्शी लोक • ___ व्यवहार की सीमा से परे हो गया है। ५६. कर्म से ही समग्र उपाधियां = विकृतियाँ पैदा होती हैं। ५७. कर्म का मूल क्षण अर्थात् हिंसा है। ५८. सम्यग्दर्शी साधक पाप-कर्म नहीं करता। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी चौदह ५९. कामेसु गिद्धा निचयं करेंति । -११३२ ६०. आयंकदंसी न करेइ पावं । -११३०२ ६१. सच्चमि धिई कुव्वह । -१।३।२ ६२. अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे । से केयणं अरिहए पूरइत्तए । -१।३।२ ६३. अणोमदंसी निसण्णे पावेहि कम्मेहिं । -११३।२ ६४. आयओ बहिया पास । -१।३।३ ६५. विरागं रूवेहिं गच्छिज्जा, महया खुड्डएहि य। -१।३।३ ६६. का अरई के आणंदे ? -१।३।३ ६७. पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ? -१।३।३ ६८. पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमुच्चसि । -१।३।३ ६९. पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । -१।३।३ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ पन्द्रह ५९. कामभोगों में गृद्ध = आसक्त रहने वाले व्यक्ति कर्मों का बन्धन करते हैं। ६०. जो संसार के दुःखों का ठीक तरह दर्शन कर लेता है वह कभी पापकर्म नहीं करता है। ६१. सत्य में धृति, कर, सत्य में स्थिर हो। ६२. यह मनुष्य अनेकचित्त है, अर्थात् अनेकानेक कामनाओं के कारण मनुष्य का मन बिखरा हुआ रहता है। वह अपनी कामनाओं की पूर्ति क्या करना चाहता है, एक तरह से छलनी को जल से भरना चाहता है। ६३. (साधक अपनी दृष्टि ऊँची रखे, क्षुद्र भोगों की ओर निम्न दृष्टि न रखे) उच्च दृष्टिवाला साधक ही पाप कर्मों से दूर रहता है। ६४. अपने समान ही बाहर में दूसरों को भी देख । ६५. महान हों या क्षुद्र हों, अच्छे हों या बुरे हों, सभी विषयों से साधक को विरक्त रहना चाहिए। ६६. ज्ञानी के लिए क्या दुःख, क्या सुख ? कुछ भी नहीं। ६७. मानव ! तू स्वयं ही अपना मित्र है। तू बाहर में क्यों किसी मित्र (सहायक) की खोज कर रहा है। ६८. मानव ! अपने आपको ही निग्रह कर । स्वयं के निग्रह से ही तू दुःख से मुक्त हो सकता है। ६९. हे मानव, एक मात्र सत्य को ही अच्छी तरह जान ले, परख ले। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह सूक्ति त्रिवेणी ७०. सच्चस्स आणाए उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ । -१।३।३ ७१. सहिओ दुक्खमत्ताएं पुट्ठो नो झंझाए । -१।३।३ . ७२. जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ, से एग जाणइ ।। -१।३।४ ७३. सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स नत्थि भयं । ---१३।४ ७४. जे एगं नामे, से बहुं नामे । --१३।४ ७५. एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ । --१।३।४ ७६. अस्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं । -१।३।४ ७७. किमत्थि उवाही पासगस्स, न विज्जइ ? नत्थि । -११३४ ७८. न लोगस्सेसणं चरे। जस्स नत्थि इमा जाई, अण्णा तस्स कओ सिया? -१।४।१ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ सत्रह ७०. जो मेधावी साधक सत्य की आज्ञा में उपस्थित रहता है, वह मार = मृत्यु के प्रवाह को तैर जाता है। ७१. सत्य की साधना करने वाला साधक सब ओर दुःखों से घिरा रहकर भी घबराता नहीं है, विचलित नहीं होता है। ७२. जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सब को जानता है, वह एक को जानता है । [जिस प्रकार समग्र विश्व अनन्त है, उसी प्रकार एक छोटे-से छोटा पदार्थ भी अनन्त है, अनन्त गुण पर्याय वाला है--अतः अनंत ज्ञानी ही एक और सबका पूर्ण ज्ञान कर सकता है ।] ७३. प्रमत्त को सब ओर भय रहता है। अप्रमत्त को किसी ओर भी भय नहीं है । ७४. जो एक अपने को न मा लेता है-- जीत लेता है, वह समग्र संसार को नमा (जीत) लेता है। ७५. जो मोह को क्षय करता है, वह अन्य अनेक कर्म-विकल्पों को क्षय करता है। ७६. शस्त्र हिंसा एक-से-एक बढ़कर है । परन्तु, अशस्त्र (अहिंसा) एक-से-एक बढ़कर नहीं है, अर्थात् अहिंसा की साधना से बढ़कर श्रेष्ठ दूसरी कोई साधना नहीं है। ७७. वीतराग सत्यद्रष्टा की कोई उपाधि होती है या नहीं ? नहीं होती है। ७८. लोकषणा से मुक्त रहना चाहिए। जिसको यह लोकैषणा नहीं है, उसको अन्य पाप-प्रवृत्तियाँ कैसे हो सकती हैं ? अर्थात् वह समस्त पाप-वृत्तियों से मुक्त है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारह सूक्ति त्रिवेणी ७९. जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा। जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा । -११४२ ८०. नाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि । -११४१२ ८१. वयं पुण एवमाइक्खामो, एवं भासामो, एवं परूवेमो, एवं पण्णवेमो, सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा न परिघेतव्वा, न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा । इत्थं विजाणह नत्थित्थ दोसो । आरियवयणमेयं । -१।४।२ ८२. पुव्वं निकाय समयं पत्तेयं पत्तेयं पुच्छिस्सामि "हं भो पवाइया! किं भे सायं दुक्खं असायं ?" समिया पडिवण्णो या वि एवं बूया"सव्वेसिं पाणाणं, सव्वेसि भयाणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं, असायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं ।" -१।४।२ ८३. उवेह एणं बहिया य लोगं, से सव्वलोगम्मि जे केइ विण्ण । -१।४।३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ उन्नीस ७९. जो बन्धन के हेतु हैं, वे ही कभी मोक्ष के हेतु भी हो सकते हैं और जो मोक्ष के हेतु हैं, वे ही कभी बन्धन के हेतु भी हो सकते हैं। जो व्रत उपवास आदि संवर के हेतु हैं, वे कभी कभी संवर के हेतु नहीं भी हो सकते हैं और जो आस्रव के हेतु हैं, वे कभी-कभी आस्रव के हेतु नहीं भी हो सकते हैं। (आस्रव और संवर आदि सब मूलतः साधक के अन्तरंग भावों पर आधारित हैं।) ८०. मुत्यु के मुख में पड़े हुए प्राणी को मृत्यु न आए, यह कभी नहीं हो सकता। ८१. हम ऐसा कहते हैं, ऐसा बोलते हैं, ऐसी प्ररूपणा करते हैं, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं कि-- किसी भी प्राणी, किसी भी भूत, किसी भी जीव और किसी भी सत्त्व को न मारना चाहिए, न उनपर अनुचित शासन करना चाहिए, न उन को गुलामों की तरह पराधीन बनाना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिए। उक्त अहिंसा धर्म में किसी प्रकार का दोष नहीं है, यह ध्यान में रखिए । अहिंसा वस्तुत: आर्य (पवित्र) सिद्धान्त है। ८२. सर्वप्रथम विभिन्न मत-मतान्तरों के प्रतिपाद्य को जानना चाहिए, और फिर हिंसाप्रतिपादक मतवादियों से पूछना चाहिए कि--- " हे प्रवादियों ! तुम्हें सुख प्रिय लगता है या दु:ख ?" __ " हमें दुःख अप्रिय है, सुख नहीं "--यह सम्यक् स्वीकार कर लेने पर उन्हें स्पष्ट कहना चाहिए कि " तुम्हारी ही तरह विश्व के समस्त प्राणी, जीव, भूत और सत्त्वों को भी दुःख अशान्ति (व्याकुलता) देने वाला है, महाभय का कारण है और दुःखरूप है।" ८३. अपने धर्म से विपरीत रहने वाले लोगों के प्रति भी उपेक्षाभाव (=मध्यस्थता का भाव) रखो। __ जो कोई विरोधियों के प्रति उपेक्षा = तटस्थता रखता है, उद्विग्न नहीं होता है, वह समग्र विश्व के विद्वानों में अग्रणी विद्वान् है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीस सूक्ति त्रिवेणी ८४. एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरगं । -०४।३ ८५. कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं । -१।४।३ ८६. जहा जुन्नाई कट्ठाइं हव्ववाहो पमत्थइ, एवं अत्तसमाहिए अणिहे। -११४।३ ८७. जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कुओ सिया ? --११४१४ ८८. से हु पन्नाणमंते बुद्धे आरंभोवरए । -१।४।४ ८९. जे छेए से सागारियं न सेवेइ। . -~~-१।५।१ ९०. गुरू से कामा, तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे । नेव से अंतो नेव दूरे । -११५।१ ९१. उठ्ठिए नो पमायए । -१२ ९२. पुढो छंदा इह माणवा । -१५।२ ९३. बन्धप्पमोक्खो अज्झत्थेव । -१।५।२ ९४. नो निन्हवेज्ज वीरियं । -१५।३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ इक्कीस ८४. आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर को धुन डालो। ८५. अपने को कृश करो, तन-मन को हल्का करो। . अपने को जीर्ण करो, भोगवृत्ति को जर्जर करो। ८६. जिस तरह अग्नि पुराने सूखे काठ को शीघ्र ही भस्म कर डालती है, उसी तरह सतत अप्रमत्त रहने वाला आत्मसमाहित निःस्पृह साधक कर्मों को कुछ ही क्षणों में क्षीण कर देता है। ८७. जिसको न कुछ पहले है और न कुछ पीछे है, उसको बीच में कहाँ से होगा? (जिस साधक को न पूर्वभुक्त भोगों का स्मरण होता है, और न भविष्य के भोगों की ही कोई कामना होती है, उसको वर्तमान में भोगासक्ति कैसे हो सकती है ?) ८८. जो आरंभ ( = हिंसा) से उपरत है, वही प्रज्ञानवान् बुद्ध है । ८९. जो कुशल हैं, वे काम भोगों का सेवन नहीं करते। ९०. जिसकी कामनाएँ तीव्र होती हैं, वह मृत्यु से ग्रस्त होता है और जो मृत्यु से ग्रस्त होता है, वह शाश्वत सुख से दूर रहता है। परन्तु जो निष्काम होता है, वह न मृत्यु से ग्रस्त होता है और न शाश्वत सुख से दूर। ९१. जो कर्तव्य पथ पर उठ खडा हुआ है, उसे फिर प्रमाद नहीं करना चाहिए। ९२. संसार में मानव भिन्न-भिन्न विचार वाले हैं। ९३. वस्तुतः बन्धन और मोक्ष अन्दर में ही है। ९४. अपनी योग्य शक्ति को कभी छुपाना नहीं चाहिए। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईस सूक्ति त्रिवेणी ९५. इमेण चेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। - ११५।३ ९६. जुद्धारिहं खलु दुल्लभं । -१।५।३ ९७. वयसा वि एगे बुइया कुप्पंति माणवा -१।५।४ ९८. वितिगिच्छासमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहई समाहिं। -१।५।५ ९९. तुमंसि नाम तं चेव जं हंतव्वं ति मन्न सि । तुमंसि नाम तं चेव जं अज्जावेयव्वं ति मनसि । तुमंसि नाम तं चेव जं परियावेयव्वं ति मनसि । -१।५।५ १००. जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। जेण वियाणइ से आया । तं पडुच्च पडिसंखाए । -१।५.५ १०१. सव्वे सरा नियटेंति, तक्का जत्थ न विज्जइ । मई तत्थ न गाहिया। -११५६६ १०२. नो अत्ताणं आसाएज्जा, नो परं आसाएज्जा। -१।६।५ १०३. गामे वा अदुवा रणे । नेव गामे नेव रणे, धम्ममायाणह । -१८१ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ तेईस ९५. अपने अन्तर (के विकारों) से ही युद्ध कर । बाहर के युद्ध से तुझे क्या मिलेगा? ९६. विकारों से युद्ध करने के लिए फिर यह अवसर मिलना दुर्लभ है । ९७. कुछ लोग मामूली कहा-सुनी होते ही क्षुब्ध हो जाते हैं। ९८. शंकाशील व्यक्ति को कभी समाधि नहीं मिलती। ९९. जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। (स्वरूप दृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं। यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है।) १००. जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है । जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती है। १०१. आत्मा के वर्णन में सबके सब शब्द निवृत्त हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। वहाँ तर्क की गति भी नहीं है और न बुद्धि ही उसे ठीक तरह ग्रहण कर पाती है । १०२. न अपनी अवहेलना करो और न दूसरों की। १०३. धर्म गाँव में भी हो सकता है, और अरण्य ( = जंगल) में भी । क्योंकि वस्तुतः धर्म न गाँव में कहीं होता है और न अरण्य में, वह तो अन्तरात्मा में होता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी चौबीस १०४. जेवऽन्ने एएहि काएहिं दंडं समारंभंति, तेसि पि वयं लज्जामो । -१८१ १०५. समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए। -- १।८।३ १०६. एगे अहमंसि, न मे अत्थि कोइ, न याऽहमवि कस्स वि । -१८१६ १०७. जीवियं नाभिकंखिज्जा, __ मरणं नो वि पत्थए । दुहओ वि न सज्जेजा, जीविए मरणे तहा ॥ -११८८।४ १०८. गंथेहि विवित्तेहिं, आउकालस्स पारए । -१1८।८।११ १०९. इंदिएहि गिलायतो, समियं आहरे मुणी। तहा वि से अगरहे, अचले जे समाहिए । -~-१।८।८।१४ ११०. वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा --१।८।८।२१ १११. नो वयणं फरुसं वइज्जा । --२१६ ११२. नो उच्चावयं मणं नियंछिज्जा । --२।३।१ ११३. राइणियस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं भासिज्जा । --२॥३॥३ ११४. मणं परिजाणइ से निग्गंथे । --२।३।१५।१ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ १०४. १०५. १०६. १०७. १०८. १०९. ११०. १११. ११२. ११३. पच्चीस यदि कोई अन्य व्यक्ति भी धर्म के नाम पर जीवों की हिंसा करते हैं, तो हम इससे भी लज्जानुभूति करते हैं । आर्य महापुरुषों ने समभाव में धर्म कहा है । ११४. मैं एक हूँ -- अकेला हूँ । न कोई मेरा है, और न मैं किसीका हूँ । साधक न जीने की आकांक्षा करे और न मरने की कामना करे । वह जीवन और मरण दोनों में ही किसी तरह की आसक्ति न रखे, तटस्थ भाव से रहे । साधक को अन्दर और बाहर की सभी ग्रन्थियों ( बन्धन रूप गाँठों) से मुक्त होकर जीवन-यात्रा पूर्ण करनी चाहिए । शरीर और इन्द्रियों के क्लान्त होने पर भी मुनि अन्तर्मन में समभाव ( = स्थिरता ) रखे । इधर-उधर गति एवं हलचल करता हुआ भी साधक निद्य नहीं है, यदि वह अन्तरंग में अविचल एवं समाहित है तो ! सब प्रकार से शरीर का मोह छोड़ दीजिए, फलतः परीषहों के आने पर विचार कीजिए कि मेरे शरीर में परीषह हैं ही नहीं । कठोर = कटु वचन न बोले । संकट में मन को ऊँचा-नीचा अर्थात डाँवाडोल नहीं होने देना चाहिए । अपने से बड़े गुरुजन जब बोलते हों, विचार चर्चा करते हों, तो उनके बीच में न बोले । जो अपने मन को अच्छी तरह परखना जानता है वही सच्चा निर्ग्रन्थ साधक है । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीस सूक्ति त्रिवेणी ११५. अणुवीइ भासी से निग्गंथे । --२।३।१५।२ ११६. अणणुवीइ भासी से निग्गंथे समावइज्जा मोसं वयणाए । -२।३।१५।२ ११७. लोभपत्ते लोभी समावइज्जा मोसं वयणाए । --२।३।१५।२ ११८. अणणुनविय पाणभोयणभोई से निग्गंथे अदिन्नं भुंजिज्जा। -२।३।१५।३ ११९. नाइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे । ---२।३।१५।४ १२०. न सक्का न सोउं सद्दा, सोतविसयमागया। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । __ --२।३।१५।१३१ १२१. नो सक्का रूवमट्ठ, चक्खुविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । --२।३।१५।१३२ १२२. न सक्का गंधमुग्धाउं, नासाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । --२।३।१५।१३३ १२३. न सक्का रसमस्साउं जीहाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । --२।३।१५।१३४ १२४. न सक्का फासमवेएउ, फासविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । --२।३।१५।१३५ १२५. समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पन्ना न जस्सो य वड्ढइ । --२।४।१६।१४० Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग की सूक्तियाँ ११५. ११६. ११७. ११८. ११९. १२०. १२१. १२२. १२३. १२४. १२५. जो विचारपूर्वक बोलता है, वही सच्चा निग्रंथ है । जो विचारपूर्वक नहीं बोलता है, उसका वचन कभी-न-कभी असत्य से दूषित हो सकता है । लोभ का प्रसंग आने पर व्यक्ति असत्य का आश्रय ले लेता है । सत्ताईस जो गुरुजनों की अनुमति लिए बिना भोजन करता है, वह अदत्तभोजी है, अर्थात् एक प्रकार से चोरी का अन्न खाता है । जो आवश्यकता से अधिक भोजन नहीं करता है, वही ब्रह्मचर्य का साधक सच्चा निग्रंथ है । यह शक्य नहीं है, कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएँ, अत: शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए । यह शक्य नहीं है, कि आँखों के सामने आने वाला अच्छा या बुरा रूप देखा न जाए, अत: रूप का नहीं, किंतु रूप के प्रति जागृत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए । यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आया हुआ सुगंध या दुर्गंध सूंघने में न आएँ, अत: गंध का नहीं, किंतु गंध के प्रति जगने वाली राग-द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए । यह शक्य नहीं है, कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आए, अतः रस नहीं किंतु स्पर्श के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए | यह शक्य नहीं है, कि शरीर से स्पृष्ट होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो, अतः स्पर्श का नहीं, किंतु स्पर्श के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए । अग्नि- शिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशमान रहने वाले अन्तर्लीन साधक के तप, प्रज्ञा और यश निरन्तर बढ़ते रहते हैं । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग को सूक्तियाँ १. बुज्झिज्जत्ति तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया । --१।१।१।१ २. ममाइ लुप्पई बाले। --१।१।१।४ ३. तमाओ ते तमं जंति, मंदा आरंभनिस्सिया । --१।१।१।१४ ४. नो य उप्पज्जए असं । --१।१।१।१६ ५. जे ते उ वाइणो एवं, न ते संसारपारगा। --१।१।१।२१ ६. असंकियाइं संकंति, संकिआइं असंकिणो । --१।१।२।१० ७. अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासिउं । --१।१।२।१७ ८. अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणुगच्छइ । -११११२।१९ ९. एवं तक्काइ साहिता, धम्माधम्मे अकोविया । दुक्खं ते नाइतुटुंति, सउणी पंजरं जहा ।। -१।१।२।२२ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग की सूक्तियाँ १. सर्वप्रथम बन्धन को समझो और समझ कर फिर उसे तोड़ो। २. 'यह मेरा है, वह मेरा है"-- इस ममत्व बुद्धि के कारण ही बाल-जीव विलुप्त होते हैं। ३. परपीडा में लगे हुए अज्ञानी जीव अन्धकार से अन्धकार की ओर जा ४. असत् कभी सत् नहीं होता। ५. जो असत्य की प्ररूपणा करते हैं, वे संसार-सागर को पार नहीं कर सकते। ६. मोहमूढ मनुष्य जहाँ वस्तुतः भय की आशंका है, वहाँ तो भय की आशंका करते नहीं हैं। और, जहाँ भय की आशंका जैसा कुछ नहीं है, वहाँ भय की आशंका करते हैं । ७. जो अपने पर अनुशासन नहीं रख सकता, वह दूसरों पर अनुशासन कैसे कर सकता है ? ८. अन्धा अन्धे का पथदर्शक बनता है, तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर भटक जाता है। जो धर्म और अधर्म से सर्वथा अनजान व्यक्ति केवल कल्पित तर्कों के आधार पर ही अपने मन्तव्य का प्रतिपादन करते हैं, वे अपने कर्म बन्धन को तोड़ नहीं सकते, जैसे कि पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता है। । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीस सूक्ति त्रिवेणी १०. सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्सन्ति, संसारं ते विउस्सिया । -१।१।२।२३ ११. जहा अस्साविणिं णावं, जाइअंधो दुरूहिया । इच्छइ पारमागंतु, अंतरा य विसीयई ।। -१।१२।३१ १२. समुप्पायमजाणंता, कहं नायंति संवरं ? -१।१।३।१० १३. अणुक्कसे अप्पलीणे, मज्झेण मुणि जावए । - १।१।४।२ १४. एयं खु नाणिणो सारं जं न हिंसइ किंचण । अहिंसा समयं चेव, एतावन्तं वियाणिया । -१।१।४।१० १५. संबुज्झह, किं न बुज्झह ? संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। । णो हूवणमंति राइयो, नो सुलभं पुणरवि जीवियं ॥ -१।२।१।१ १६. सेणो जहा वट्टयं हरे, एवं आउखयम्मि तुट्टई । --१।२।११२ १७. नो सुलहा सुगई य पेच्चओ। --१।२।११३ १८. सयमेव कडेहिं गाहइ, नो तस्स मुच्चेज्जऽपुठ्ठयं । -११२।१।४ १९. ताले जह बंधणच्चुए, एवं आउक्खयंमि तुट्टती। -१२।१।६ २०. जइ वि य णिगणे किसे चरे, जइ वि य भुजे मासमंतसो । जे इह मायाइ मिज्जइ, आगंता गब्भायऽणंतसो ॥ -११२।१९ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग की सूक्तियां इकत्तीस १०. जो अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निंदा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं, वे एकान्तवादी संसार-चक्र में भटकते ही रहते हैं। ११. अज्ञानी साधक उस जन्मांध व्यक्ति के समान है, जो सछिद्र नौका पर चढ़ कर नदी किनारे पहुँचना तो चाहता है, किंतु किनारा आने से पहले ही बीच प्रवाह में डूब जाता है। १२. जो दुःखोत्पत्ति का कारण ही नहीं जानते, वे उसके निरोध का कारण कैसे जान पाएंगे? १३. अहंकार रहित एवं अनासक्त भाव से मुनि को राग-द्वेष के प्रसंगों में ठीक बीच से तटस्थ यात्रा करनी चाहिए। १४. ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें । अहिंसा मूलक समता ही धर्म का सार है, बस, इतनी बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए। १५. अभी इसी जीवन में समझो, क्यों नहीं समझ रहे हो ? मरने के बाद पर लोक में संबोधि का मिलना कठिन है। जैसे बीती हुई रात फिर लौटकर नहीं आती, उसी प्रकार मनुष्य का गुजरा हुआ जीवन फिर हाथ नहीं आता। १६. एक ही झपाटे में बाज जैसे बटेर को मार डालता है, वैसे ही आयु क्षीण होने पर मृत्यु भी जीवन को हर लेता है । १७. मरने के बाद सद्गति सुलभ नहीं है। अत: जो कुछ सत्कर्म करना है, वह यही करो। १८. आत्मा अपने स्वयं के कर्मों से ही बन्धन में पड़ता है। कृत कर्मों को भोगे बिना मुक्ति नहीं है। . १९. जिस प्रकार ताल का फल वृन्त से टूट कर नीचे गिर पड़ता है, उसी प्रकार आयु क्षीण होने पर प्रत्येक प्राणी जीवन से च्युत हो जाता है । २०. भले ही नग्न रहे, मास-मास का अनशन करे और शरीर को कश एवं क्षीण कर डाले, किंतु जो अन्दर में दंभ रखता है, वह जन्म-मरण के अनंत चक्र में भटकता ही रहता है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीस सूक्ति त्रिवेणी २१. पलियंतं मणुआण जीवियं । -- १।२।१।१० २२. सउणी जह पंसुगुंडिया, विहुणिय धंसयई सियं रयं । एवं दविओवहाणवं, कम्म खवइ तवस्सि माहणे ॥ -१।२।१११५ २३. मोहं जंति नरा असंवुडा । --१।२।१।२० २४. अहऽसेयकरी अन्नेसि इंखिणी । ---१।२।२।१ २५. तयसं व जहाइ से रयं । ---- १।२।२।२ २६. जो परिभवइ परं जम्पं संसारे परिवत्तई महं । --१।२।२।१ २७. महयं पलिगोवजाणिया, जा वि य वंदणपूयणा इहं ।। ---१।२।२।११ २८. सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे। ---१।२।२।११ २९. सामाइयमाहु तस्स णं, जो अप्पाण भए ण दसए । ----१।२।२।१७ ३०. अठे परिहायती बहु, अहिगरणं न करेज्ज पंडिए । -- १।२।२।१९ ३१. वाले पापेहिं मिज्जति । ---११२।२।२१ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग की सूक्तियाँ तेतीस २१. मनुष्यों का जीवन एक बहुत ही अल्प एवं सान्त जीवन है। २२. मुमुक्षु तपस्वी अपने कृत कर्मों का बहुत शीघ्र ही अपनयन कर देता है, जैसे कि पक्षी अपने परों को फडफड़ाकर उन पर लगी धूल को झाड़ देता है। २३. इन्द्रियों के दास असंवृत्त मनुष्य हिताहित निर्णय के क्षणों में मोह मुग्ध हो जाते हैं। २४. दूगरों की निन्दा हितकर नहीं है। २५. जिस प्रकार सर्प अपनी केंचुली को छोड़ देता है, उसी प्रकार साधक अपने कर्मों के आवरण को उतार फेंकता है। २६. जो दूसरों का परिभव अर्थात तिरस्कार करता है, वह संसार वन में दीर्घकाल तक भटकता रहता है। २७. साधक के लिए वंदन और पूजन एक बहुत ही बडी दलदल है। २८. मन में रहे हुए विकारों के सूक्ष्म शल्य को निकालना कभी-कभी बहुत कठिन हो जाता है। २९. समभाव उसी को रह सकता है, जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता है। ३०. बुद्धिमान को कभी किसी से कलह-झगड़ा नहीं करना चाहिए । कलह से बहुत बडी हानि होती है। ३१. अज्ञानी आत्मा पाप कर के भी उस पर अहंकार करता है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौंतीस सूक्ति त्रिवेणी ३२. अत्तहियं खु दुहेण लब्भई । --१।२।२।३० ३३. मरणं हेच्च वयंति पंडिया । --१२।३।१ ३४. अदक्खु कामाइं रोगवं । --१।२।३।२ ३५. नाइवहइ अबले विसीयति । ---१।२।३।५ ३६. कामी कामे न कामए, लद्धे वावि अलद्धं कण्हुई। --१२।३।६ ३७. मा पच्छ असाधता भवे, अच्चेही अणुसास अप्पगं । --१।२।३१७ ३८. न य संखयमाहु जीवियं । --१।२।३।१० ३९. एगस्स गती य आगती । -१।२।३।१७ ४०. सव्वे सयकम्मकप्पिया। १॥२॥३।१८ ४१. इणमेव खणं वियाणिया । --११२।३।१९ ४२. सूरं मण्णइ अप्पाणं जाव जेयं न पस्सती । --१।३।११ ४३. नातीणं सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी । ---१।३।१।१६ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग की सूक्तियाँ पैतीस ३२. आत्महित का अवसर मुश्किल से मिलता है। ३३. प्रबुद्ध साधक ही मृत्यु की सीमा को पार कर अजर-अमर होते हैं। ३४. सच्चे साधक की दृष्टि में काम-भोग रोग के समान हैं। ३५. निर्बल व्यक्ति भार वहन करने में असमर्थ होकर मार्ग में ही कहीं खिन्न होकर बैठ जाता है। ३६. साधक सुखाभिलाषी होकर काम-भोगों की कामना न करे, प्राप्त भोगों को भी अप्राप्त जैसा कर दे, अर्थात उपलब्ध भोगों के प्रति भी नि:स्पृह रहे । ३५. भविष्य में तुम्हें कष्ट भोगना न पडे, इसलिए अभी से अपने को विषय वासना से दूर रखकर अनुशासित करो। ३८. जीवन-सूत्र टूट जाने के बाद फिर नहीं जुड़ पाता है। ३९. आत्मा (परिवार आदि को छोड़ कर) परलोक में अकेला ही गमनागमन करता है। ४०. सभी प्राणी अपने कृत कर्मों के कारण नाना योनियों में भ्रमण करते हैं। ४१ जो क्षण वर्तमान में उपस्थित है, वही महत्त्वपूर्ण है, अत: उसे सफल बनाना चाहिए। ४२. अपनी बड़ाई मारनेवाला क्षुद्रजन तभी तक अपने को शूरवीर मानता है, जब तक कि सामने अपने से बली विजेता को नहीं देखता है। ४३. दुर्बल एवं अज्ञानी साधक कष्ट आ पड़ने पर अपने स्वजनों को वैसे ही याद करता है, जैसे कि लड़-झगड़ कर घर से भागी हुई स्त्री गुंडों या चोरों से प्रताडित होने पर अपने घर वालों को याद करती है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीस ४४. तत्थ मंदा विसीयंति, उज्जाणंसि जरग्गवा । ४५. नातिकंडूइयं सेयं, अरुयस्सावरज्झति । ४६. कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए । ४७. मा एयं अवमन्नंता, अप्पेणं लुम्पहा बहुं । ४८. जेहिं काले परक्कंतं, न पच्छा परितप्पए । ४९. सीहं जहा व कुणिमेणं, निब्भयमेगं चरंति पासेणं । ५०. तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित्तं व कण्टगं नच्चा । ५१. जहा कड कम्म, तहासि भारे । ५२. एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं । ५३. जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए । ५४. वाणाण सेट्ठ अभयप्पयाणं ५५. तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं । सूक्ति त्रिवेणी - ११३।२।२१ - १।३।३।१३ -- ११३।३।२० - ११३१४१७ -- ११३|४|१५ -- ११४१११८ -- ११४१११११ १।५।१।२६ -- ११५१२१२२ -- ११५/२/२३ --१।६।२३ -- १६१२३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग को सूक्तियाँ संतीस ४४. अज्ञानी साधक संकट काल में उसी प्रकार खेदखिन्न हो जाते हैं, जिस प्रकार बूढे बैल चढ़ाई के मार्ग में । ४५. घाव को अधिक खुजलाना ठीक नहीं, क्योंकि खुजलाने से घाव अधिक फैलता है। ४६. भिक्षु प्रसन्न व शान्त भाव से अपने रुग्ण साथी को परिचर्या करे। ४७. सन्मार्ग का तिरस्कार करके तुम अल्प वैषयिक सुखों के लिए अनन्त मोक्षसुख का विनाश मत करो। ४८. जो समय पर अपना कार्य कर लेते हैं, वे बाद में पछताते नहीं। ४९. निर्भय अकेला विचरने वाला सिंह भी मांस के लोभ से जाल में फंस जाता है (वैसे ही आसक्तिवश मनुष्य भी)। ५०. ब्रह्मचारी स्त्रीसंसर्ग को विषलिप्त कंटक के समान समझकर उससे बचता रहे। ५१. जैसा किया हुआ कम, वैसा ही उसका भोग ! ५२. आत्मा अकेला ही अपने किए हुए दुःख को भोगता है। ५३. अतीत में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है। ५४. दानों में अभय दान ही सर्वश्रेष्ठ दान है। ५५. तपों में सर्वोत्तम तप है-ब्रह्मचर्य । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडतीस ५६. सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति । ५७. सकम्मुणा विपरियासुवेइ । ५८. उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी, सिज्झिसु पाणा बहवे दगंसि । ५९. नो पूयणं तवसा आवहेज्जा । ६०. दुक्खेण पुट्ठे धुयमायएज्जा | ६१. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं । ६२. आरओ परओ वा वि, दुहा वि य असंजया । ६३. पावोगहा हि आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो । ६४. वेराई कुव्वई वेरी, तओ वेरेहिं रज्जती । ६५. जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे । ६६. सातागारव णिहुए, उवसंतेऽणि चरे । ६७. सादियं न मुसं बूया | सूक्ति त्रिवेणी -१।६।२३ -- १।७।११ -- ११७/१४ -- १।७।२७ - १।७।२९ - १|८|३ --११८६ - ११८१७ --११८१७ --१|८|१६ - ११८१८ --११८|१९ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग की सूक्तियाँ उनतालीस ५६. सत्य वचनों में भी अनवद्य सत्य (हिंसा-रहित सत्य वचन) श्रेष्ठ है। ५७. प्रत्येक प्राणी अपने ही कृत कर्मों से कष्ट पाता है। ५८. यदि जलस्पर्श (जलस्नान) से ही सिद्धि प्राप्त होती हो, तो पानी में रहने वाले अनेक जीव कभी के मोक्ष प्राप्त कर लेते ! ५९. तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए। ६०. दुःख आ जाने पर भी मन पर संयम रखना चाहिए । प्रमाद को कर्म-आश्रव और अप्रमाद को अकर्म-संवर कहा है। ६२. कुछ लोग लोक और परलोक-दोनों ही दृष्टियों से असंयत होते हैं । ६३. पापानुष्ठान अन्ततः दुःख ही देते हैं। ६४. वैरवृत्ति वाला व्यक्ति जब देखो तब वैर ही करता रहता है । वह एक के बाद एक किए जाने वाले वैर को बढाते रहने में ही रस लेता है। ६५. कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे । ६६. साधक सुख-सुविधा की भावना से अनपेक्ष रहकर, उपशांत एवं दम्भरहित होकर विचरे। ६७. मन में कपट रख कर झूठ न बोलो। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी चालीस ६८. अप्पपिण्डासि पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए । --१।८।२५ ६९. झाणजोगं समाहटु, कायं विउसेज्ज सव्वसो । --१।८।२६ ७०. तितिक्खं परमं नच्चा। --१।८।२६ ७१. परिग्गहनिविट्ठाणं वेरं तेसिं पवड्ढई । ---१।९।३ ७२. अन्ने हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहि किच्चती। --१।९।४ ७३. अणुचिंतिय वियागरे । -१।९।२५ ७४. जं छन्नं तं न वत्तव्वं । --१३९।२६ ७५. तुम तुमंति अमणुन्नं, सव्वसो तं न वत्तए । -~-१।९।२७ ७६. णातिवेलं हसे मुणी। --१।९।२९ ७७. वुच्चमाणो न संजले । --१।९।३१ ७८. सुमणे अहियासेज्जा, न य कोलाहलं करे । ---१।९।३१ ७९. लद्धे कामे न पत्थेज्जा । --१।९।३२ ८०. सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा। --१।१०।६ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग की सूक्तियाँ ६८. सुव्रती साधक कम खाये, कम पीये, और कम बोले । ६९. ध्यानयोग का अवलम्बन लेकर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना चाहिए | ७०. तितिक्षा को परम धर्म समझकर आचरण करो । ७१. जो परिग्रह (संग्रह वृत्ति) में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते हैं । ७२. यथावसर संचित धन को तो दूसरे उड़ा लेते हैं और संग्रही को अपने पापकर्मों का दुष्फल भोगना पड़ता है । ७३. जो कुछ बोले- पहले विचार कर बोले । ७४. किसी की कोई गोपनीय जैसी बात हो, तो नहीं कहना चाहिए । ७५. 'तू-तू ' —— जैसे अभद्र शब्द कभी नहीं बोलने चाहिए । इकतालीस ७६. मूनी को मर्यादा से अधिक नहीं हँसना चाहिए । साधक को कोई दुर्वचन कहे, तो भी वह उस पर गरम न हो, क्रोध न करे । ७८. साधक जो भी कष्ट हो, प्रसन्न मन से सहन करे, कोलाहल न करे । ७९. प्राप्त होने पर भी कामभोगों की अभ्यर्थना ( स्वागत ) न करे । समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है और न किसी का अप्रिय । अर्थात समदर्शी अपने पराये की भेदबुद्धि से परे होता है । ७७ ८० Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बियालीस ८१. सीहं जहा खुड्डमिगा चरंता, दूरे चरंती परिसंकमाणा । एवं तु महावि समिक्ख धम्मं, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा | बालजणो पगब्भई । ८२. ८३. ८४. ८५. न विरुज्झेज्ज केण वि । जहा हि अंधे सह जोतिणावि, रूवादि णो पसति हीणणेत्ते । ८६. आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं । णाइच्चो उएइ ण अत्थमेति, ण चंदिमा वड्ढ़ति हायती वा । ८७. न कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अम्मुणा कम्म खवेंति धीरा । ८८. संतोसिणो नो पकरेंति पावं । ८९. ते अत्तओ पासइ सव्वलोए । ९०. अलमप्पणी होंति अलं परेसि । ९१. अन्नं जणं पस्सति बिंबभूयं । ९२. अन्नं जणं खिंसइ बालपन्ने । सूक्ति त्रिवेणी - १११०१२० - १।११।२ - १।११।१२ --१।१२।७ - १॥१२॥८ --१।१२।२१ - १।१२।१५ 11 -१।१२।१५ --१।१२।१८ -- १।१२।१९ - १११३३८ - १।१३।१४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग की सूक्तियां तेतालीस ८१. जिस प्रकार मृगशावक सिंह से डर कर दूर-दूर रहते हैं, उसी प्रकार बुद्धिमान धर्म को जानकर पाप से दूर रहे | ८२. अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है । ८३. किसी के भी साथ वैर विरोध न करो । ८४. वस्तुत: सूर्य न उदय होता है, न अस्त होता है और चन्द्र भी न बढता है, न घटता है । यह सब दृष्टि भ्रम है । ८५. जिस प्रकार अन्धा पुरुष प्रकाश के होते हुए भी नेत्रहीन होने के कारण रूपादि कुछ भी नहीं देख पाता है, इसी प्रकार प्रज्ञाहीन मनुष्य शास्त्र के समक्ष रहते हुए भी सत्य के दर्शन नहीं कर पाता । ८६. ज्ञान और कर्म ( विद्या एवं चरण) से ही मोक्ष प्राप्त होता है । ८७. अज्ञानी मनुष्य कर्म ( पापानुष्ठान ) से कर्म का नाश नहीं कर पाते, किन्तु ज्ञानी पुरुष अकर्म ( पापानुष्ठान के निरोध) से कर्म का क्षय कर देते हैं । ८८. सन्तोषी साधक कभी कोई पाप नहीं करते । ८९. तत्त्वदर्शी समग्र प्राणीजगत् को अपनी आत्मा के समान देखता है । ९०. ज्ञानी आत्मा ही 'स्व' और 'पर' के कल्याण में समर्थ होता है । ९१. अभिमानी अपने अहंकार में चूर होकर दूसरों को सदा बिम्बभूत ( परछाई के समान तुच्छ) मानता है । ९२. जो अपनी प्रज्ञा के अहंकार में दूसरों की अवज्ञा करता है, वह मूर्खबुद्धि ( बालप्रश) है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवालीस सूक्ति त्रिवेणी ९३. जै छेयं से विप्पमायं न कुज्जा । -१।१४।१ ९४. कहं कहं वा वितिगिच्छतिण्णे । -१।१४।६ ९५. सूरोदए पासति चक्खुणेव । --१।१४।१३ ९६. न यावि पन्ने परिहास कुज्जा । --१।१४।१९ ९७. नो छायए नो वि य लूसएज्जा। --१।१४।१९ ९८. नो तुच्छए नो य विकत्थइज्जा। --१।१४।२१ ९९. विभज्जवायं च वियागरेज्जा । ---१११४।२२ १००. निरुद्धगं वावि न दीहइज्जा । --१।१४।२३ १०१. नाइवेलं वएज्जा। -१।१४।२५ १०२. से दिट्ठिमं दिट्ठि न लूसएज्जा । --१।१४।२५ १०३. भूएहिं न विरुज्झेज्जा । -१।१५।४ १०४. भावणाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । -१।१५।५ १०५. तुटंति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ। -१।१५।६ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस सूत्रकृतांग की सूक्तियां ९३. चतुर वही है, जो कभी प्रमाद न करे। ९४. मुमुक्षु को कैसे-न-कैसे मन की विचिकित्सा से पार हो जाना चाहिए। ९५. सूर्योदय होने पर (प्रकाश होने पर) भी आँख के बिना नहीं देखा जाता है, वैसे ही स्वयं में कोई कितना ही चतुर क्यों न हो, निर्देशक गुरु के अभाव में तत्त्वदर्शन नहीं कर पाता। बुद्धिमान किसी का उपहास नहीं करता । उपदेशक सत्य को कभी छिपाए नहीं, और न ही उसे तोड़ मरोड कर उपस्थित करे। ९८. साधक न किसी को तुच्छ-हल्का बताए और न किसी की झूठी प्रशंसा करे। विचारशील पुरुष सदा विभज्यवाद अर्थात स्याद्वाद से युक्त वचन का प्रयोग करे। १००. थोडे से में कही जाने वाली बात को व्यर्थ ही लम्बी न करे । १०१. साधक आवश्यकता से अधिक न बोले । १०२. सम्यग्दृष्टि साधक को सत्य दृष्टि का अपलाप नहीं करना चाहिए। १०३. किसी भी प्राणी के साथ वैर विरोध न बढाएँ । १०४. जिस साधक की अन्तरात्मा भावनायोग (निष्काम साधना) से शुद्ध है, वह जल में नौका के समान है, अर्थात् वह संसार सागर को तैर जाता है, उसमें डूबता नहीं है। जो नये कर्मों का बन्धन नहीं करता है, उसके पूर्वबद्ध पापकर्म भी नष्ट हो जाते हैं। १०५. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियालीस सूक्ति त्रिवेणी १०६. अकुव्वओ णवं णत्थि । -१।१५।७ १०७. अनुसासणं पुढो पाणी ।। १०८. से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अन्तए । -१।१५।११ -१।१५।१४ १०९. इओ विद्धंसमाणस्स पुणो संबोही दुल्लभा । --१।१५।१८ ११०. अन्नो जीवो, अन्नं सरीरं । -२।१९ १११. अन्ने खलु कामभोगा, अन्नो अहमंसि । -२।१।१३ ११२. अन्नस्स दुक्खं अन्नो न परियाइयति । -११।१३ ११३. पत्तेयं जायति पत्तेयं मरइ । -२।१।१३ ११४. णो अन्नस्स हेउं धम्ममाइक्खेज्जा, णो पाणस्स हेउं धम्ममाइक्खेजा । -२।१।१५ ११५. अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा, कम्मनिज्जरठाए धम्ममाइक्खेजा। --२११।१५ ११६. सारदसलिलं व सुद्ध हियया,... विहग इव विप्पमुक्का,... वसुंधरा इव सव्व फासविसहा । --२।२।३८ ११७. धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा विहरंति । -~-२।२।३९ ११८. अदक्खु, व दक्खुवाहियं सद्दहसु । -२।३।११ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतांग की सूक्तियां सैंतालीस १०६. जो अन्दर में राग-द्वेष रूप-भाव कर्म नहीं करता, उसे नए कर्म का बंध नहीं होता। १०७. एक ही धर्मतत्त्व को प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार पृथक्-पृथक् रूप में ग्रहण करता है। १०८. जिसने कांक्षा-आसक्ति का अन्त कर दिया है, वह मनुष्यों के लिए पथप्रदर्शक चक्षु है। जो अज्ञान के कारण अब पथभ्रष्ट हो गया है, उसे फिर भविष्य में संबोधि मिलना कठिन है। आत्मा और है, शरीर और है। १११. शब्द, रूप आदि काम-भोग (जड़पदार्थ) और हैं, मैं (आत्मा) और हूँ। ११२. कोई किसी दूसरे के दुःख को बटा नहीं सकता। ११३. हर प्राणी अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है। ११४. खाने-पीने की लालसा से किसी को धर्म का उपदेश नहीं करना चाहिए। ११५. साधक बिना किसी भौतिक इच्छा के प्रशांतभाव से एक मात्र कर्म-निर्जरा के लिए धर्म का उपदेश करे । मुनि जनों का हृदय शरदकालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है। वे पक्षी की तरह बन्धनों से विप्रमुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुख-दुःख को समभाव से सहन करने वाले होते हैं । ११७. सद्गृहस्थ धर्मानुकूल ही आजीविका करते हैं। ११८. नहीं देखने वालो ! तुम देखने वालों की बात पर विश्वास करके चलो। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग की सूक्तियां १. एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं । २. एगा अहम्मपडिमा जं से आया परिकिलेसति । 1 ३. एगा धम्मपडिमा जं से आया पज्जवजाए । ४. जदत्थि णं लोगे, तं सव्वं दुपओआरं । ५. दुविहे धम्मे - सुयधम्मे चेव चरितधम्मे देव । ६. दुविहे बंधे - पेज्जबंधे मेव दोसबंधे वेव । ७. किंभया पाणा ? ... दुक्खभया पाणा । दुक्खे केण कडे ? जीवेण कडे पमाणं ! - १।११३६ -११११३८ - १|१|४० - २1१ -२।१ -२२४ -३१२ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग की सूक्तियां १. मुक्त होने वाली आत्माओं का वर्तमान अन्तिम देह का मरण ही-- एक मरण होता है, और नहीं। २. एक अधर्म ही ऐसी विकृति है, जिससे आत्मा क्लेश पाता है। ३. एक धर्म ही ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है। ४. विश्व में जो कुछ भी है, वह इन दो शब्दों में समाया हुआ है-चेतन और जड़। ५. धर्म के दो रूप हैं--श्रुत-धर्म = तत्त्वज्ञान, और चारित्र-धर्म = नैतिक आचार। ६. बन्धन के दो प्रकार हैं-प्रेम का बन्धन और द्वेष का बन्धन । ७. प्राणी किससे भय पाते हैं ? दुःख से। दुःख किसने किया है ? स्वयं आत्मा ने, अपनी ही भूल से। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचास सूक्ति त्रिवेणी ८. तओ ठाणाई देवे पीहेज्जा । माणुसं भवं, आरिए खेत्ते जम्म, सुकुलपच्चायाति । ९. तओ दुस्सन्नप्पा - दुठे, मूढे, वुग्गाहिते । -३।४ १०. चत्तारि सुता अतिजाते, अणुजाते, अवजाते, कुलिंगाले। -४११ ११. चत्तारि फला आमे णामं एगे आममहुरे । आमे णामं एगे पक्कमहुरे । पक्के णाम एगे आममहुरे । पक्के णामं एगे पक्कमहुरे। -४१ १२. आवायभद्दए णामं एगे णो संवासभदए । संवासभद्दए णामं एगे णो आवायभद्दए । एगे आवायभद्दए वि, संवासभद्दए वि । एगे णो आवायभद्दए, णो संवासभद्दए। -४१ १३. अप्पणो णामं एगे वज्जं पासइ. णो परस्स । परस्स णामं एगे वज्जं पासइ, णो अप्पणो । एगे अप्पणो वज्जं पासइ, परस्स वि। एगे णो अपणो वज्जं पासइ, णो परस्स । -४११ १४. दीणे णामं एगे णो दीणमणे । दीणे णामं एगे णो दीणसंकप्पे । -४१२ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग की सूक्तियां इक्यावन ८. देवता भी तीन बातों की इच्छा करते रहते हैं मनुष्य जीवन, आर्यक्षेत्र में जन्म, और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति । ९. दुष्ट को, मूर्ख को, और बहके हुए को प्रतिबोध देना-समझा पाना, बहुत कठिन है । १०. कुछ पुत्र गणों की दृष्टि से अपने पिता से बढ़कर होते हैं। कुछ पिता के समान होते हैं और कुछ पिता से हीन । कुछ पुत्र कुल का सर्वनाश करने वाले-कुलांगार होते हैं। ११. कुछ फल कच्चे होकर भी थोड़े मधुर होते हैं। कुछ फल कच्चे होने पर भी पके की तरह अति मधुर होते हैं । कुछ फल पके होकर भी थोड़े मधुर होते हैं । और कुछ फल पके होने पर भी अति मधुर होते हैं। फल की तरह मनुष्य के भी चार प्रकार होते हैंलघुवय में साधारण समझदार । लघुवय में बड़ी उम्रवालों की तरह समझदार । बड़ी उम्र में भी कम समझदार। बड़ी उम्र में पूर्ण समझदार। कुछ व्यक्तियों की मुलाकात अच्छी होती है, किन्तु सहवास अच्छा नहीं होता। कुछ का सहवास अच्छा रहता है, मुलाकात नहीं । कुछ एक की मुलाकात भी अच्छी होती है और सहवास भी। कुछ एक का न सहवास ही अच्छा होता है और न मुलाकात ही । १३. कुछ व्यक्ति अपना दोष देखते हैं, दूसरों का नहीं । कुछ दूसरों का दोष देखते हैं, अपना नहीं। कुछ अपना दोष भी देखते हैं, दूसरों का भी । कुछ न अपना दोष देखते हैं, न दूसरों का। १४. कुछ व्यक्ति शरीर व धन आदि से दीन होते हैं। किन्तु, उनका मन और संकल्प बड़ा उदार होता है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावन सूक्ति त्रिवेणी १५. चउविहे संजमे-- मणसंजमे, वइसंजमे, कायसंजमे, उवगरणसंजमे । --४।२ १६. पव्वयराइसमाणं कोहं अणुपविठे जीवें कालं करेइ रइएसु उववज्जति । --४१२ १७. सेलथंभसमाणं माणं अणुपविठे जीवे कालं करेइ गैरइएसु उववज्जति । --४/२ १८. वंसीमूलकेतणासमाणं मायं अणुपविढे जीवे कालं करेइ रइएसु उववज्जति । --४।२ १९. किमिरागरत्तवत्थसमाणं लोभं अणुपविढे जीवे कालं करेइ नेरइएसु उववज्जति । -४१२ २०. इह लोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । इह लोगे सुचिन्ना कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंजुत्ता भवंति । -४।२ चत्तारि पुप्फा-- रूवसंपन्ने णामं एगे णो गंधसंपन्ने । गंधसंपन्ने णामं एगे नो रूवसंपन्ने । एगे रूवसंपन्ने वि गंधसंपन्ने वि । एगे णो रूवसंपन्ने णो गंधसंपन्ने । एवमेव चत्तारि पुरिसजाया । २२. अट्ठकरे णामं एगे णो माणकरे । माणकरे णामं एगे णो अट्ठकरे । एगे अट्ठ करे वि माणकरे वि । एगे णो अट्ठ करे, णो माणकरे । -४१३ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग की सूक्तियाँ तिरेपन १५. संयम के चार रूप हैं- मन का संयम, वचन का संयम, शरीर का संयम और उपधि - सामग्री का संयम । १६. पर्वत की कतार के समान जीवन में कभी नहीं मिटने वाला उग्र क्रोध आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है । १७. पत्थर के खंभे के समान जीवन में कभी नहीं झुकने वाला अहंकार आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है । १८. बांस की जड़ के समान अतिनिविड-गांठदार दंभ आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है | १९. कृमिराग अर्थात् मजीठ के रंग के समान जीवन में कभी नहीं छूटने वाला लोभ आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है । २०. इस जीवन में किए हुए सत् कर्म इस जीवन में भी सुखदायी होते हैं । इस जीवन में किए हुए सत्कर्म अगले जीवन में भी सुखदायी होते हैं । २१. फूल चार तरह के होते हैं सुन्दर, किन्तु गंधहीन । गंधयुक्त, किंतु सौन्दर्यहीन । सुन्दर भी, सुगंधित भी । न सुन्दर, न गंधयुक्त । फूल के समान मनुष्य भी चार तरह के होते हैं । ( भौतिक संपत्ति सौन्दर्य है तो आध्यात्मिक सम्पत्ति सुगंध है ।) २२. कुछ व्यक्ति सेवा आदि महत्वपूर्ण कार्यं करते हैं, किंतु उसका अभिमान नहीं करते । कुछ अभिमान करते हैं, किंतु कार्य नहीं करते । कुछ कार्य भी करते हैं, अभिमान भी करते हैं । कुछ न कार्य करते हैं, न अभिमान ही करते हैं । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउपन सूक्ति त्रिवेणी २३. चत्तारि अवायणिज्जा-- अविणीए, विगइपडिबद्धे, अविओसितपाहुड़े, माई ।। -४१३ २४. सीहत्ताते णामं एगे णिक्खंते सीहत्ताते विहरइ सीहत्ताते णामं एगे णिक्खंते सियालत्ताए विहरइ । सीयालत्ताए णामं एगे णिक्खंते सीहत्ताए विहरइ । सियालत्ताए णामं एगे णिक्खंते सियालत्ताए विहरइ । २५. सएणं लाभेणं तुस्सइ परस्स लाभं णो आसाएइ.... दोच्चा सुहसेज्जा। -४।३ २६. चत्तारि समणोवासगा-- अद्दागसमाणे, पडागसमाणे । खाणुसमाणे, खरकंटसमाणे । २७. अप्पणो णामं एगे पत्तियं करेइ, णो परस्स । परस्स णामं एगे पत्तियं करेइ, णो अप्पणो । एगे अप्पणो पत्तियं करेइ, परस्स वि । एगे णो अपणो पत्तियं करेइ, णो परस्स । -61३ २८. तमे णामं एगे जोई। जोई णामं एगे तमे। २९. गज्जित्ता णामं एगे णो वासित्ता। वासित्ता णामं एगे णो गज्जित्ता । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग की सूक्तियां पचपन २३. चार व्यक्ति शास्त्राध्ययन के योग्य नहीं हैं अविनीत, चटौरा, झगडालू और धूर्त । २४. कुछ साधक सिंह वृत्ति से साधना पथ पर आते हैं, और सिंहवृत्ति से ही रहते हैं। कुछ सिंह वृत्ति से आते हैं, किंतु बाद में शृगाल वृत्ति अपना लेते हैं। कुछ शृगाल वृत्ति से आते हैं, किंतु बाद में सिंह वृत्ति अपना लेते हैं । कुछ शृगाल वृत्ति लिए आते हैं और शृगाल वृत्ति से ही चलते रहते हैं । २९. जो अपने प्राप्त हुए लाभ में संतुष्ट रहता है, और दूसरों के लाभ की इच्छा नहीं रखता, वह सुखपूर्वक सोता है (वह सुख-शय्या का दूसरा पहलू है). २६. श्रमणोपासक की चार कोटियाँ हैं दर्पण के समान--स्वच्छ हृदय । पताका के समान--अस्थिर हृदय। स्थाणु के समान--मिथ्याग्रही। तीक्ष्ण कंटक के समान-कटुभाषी। कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो सिर्फ अपना ही भला चाहते हैं, दूसरों का नहीं। कुछ उदार व्यक्ति अपना भला चाहे बिना भी दूसरों का भला करते हैं । कुछ अपना भला भी करते हैं और दूसरों का भी। और कुछ न अपना भला करते हैं और न दूसरों का । ७. २८. कभी-कभी अन्धकार (अज्ञानी मनुष्य में) में से भी ज्योति (सदाचार का प्रकाश) जल उठती है। और कभी-कभी ज्योति पर (ज्ञानी हृदय पर) भी अन्धकार (दुराचार) हावी हो जाता है। २९. मेघ की तरह दानी भी चार प्रकार के होते हैं कुछ बोलते हैं, देते नहीं। कुछ देते हैं, किंतु कभी बोलते नहीं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप्पन एगे गज्जित्ता विवासित्ता वि । एगे णो गज्जित्ता, णो वासित्ता । ३०. चउहि ठाणेहिं संते गुणे नासेज्जाकोहेणं, पडिनिवेसेणं, अकयण्णुयाए, मिच्छत्ताभिणिवेसेणं । ३१. चत्तारि धम्मदाराखंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे । ३२. देवे णाममेगे देवीए सद्धि संवासं गच्छति । देवे णाममेगे रक्खसीए सद्धि संवासं गच्छति । रक्खसे णाममेगे देवीए सद्धि संवासं गच्छति । रक्खसे णाममेगे रक्खसीए सद्धि संवासं गच्छति । ३४. चउहि ठाणेहिं जीवा माणुसत्ताए कम्मं पगरेंतिपगइ भयाए, पगइ विणीययाए, साक्कोसयाए, अमच्छ रियाए । ३५. मधुकुंभे नाम एगे मधुपिहाणे । मधुकुंभे नाम एगे विसपिहाणे | विसकुंभे नाम एगे विसपिहाणे विसकुंभे नाम एगे विसपिहाणे । सूक्ति त्रिबेणी -१४|४ --- ३३. चउहि ठाणेहिं जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्मं पगरेंति -. माइल्लयाए, नियडिल्लयाए । अलियवयणेणं, कूडतुला कूडमाणेणं । —४|४ -४|४ -४|४ -४|४ —४|४ —४|४ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग की सूक्तियाँ सत्तावन कुछ बोलते भी हैं, और देते भी हैं । और कुछ न बोलते हैं, न देते हैं । ३०. क्रोध, ईर्ष्या-डाह, अकृतज्ञता और मिथ्या आग्रह-इन चार दुर्गुणों के कारण मनुष्य के विद्यमान गुण भी नष्ट हो जाते हैं। ३१. क्षमा, संतोष, सरलता और नम्रता-ये चार कर्म के द्वार हैं। ३२. चार प्रकार के सहवास हैं देव का देवी के साथ-शिष्ट भद्र पुरुष, सुशीला भद्र नारी । देव का राक्षसी के साथ-शिष्ट पुरुष, कर्कशा नारी, राक्षस का देवी के साथ-दुष्ट पुरुष, सुशीला नारी, राक्षस का राक्षसी के साथ-दुष्ट पुरुष, कर्कशा नारी। ३३. कपट, धूर्तता, असत्य वचन और कूट तुलामान (खोटे तोल माप करना) -ये चार प्रकार के व्यवहार पशुकर्म हैं, इनसे आत्मा पशुयोनि (तियंचगति) में जाता है। ३४. सहज सरलता, सहज विनम्रता, दयालुता और अमत्सरता-ये चार प्रकार के व्यवहार मानवीय कर्म हैं, इनसे आत्मा मानव जन्म प्राप्त करता है। ३५. चार तरह के घड़े होते हैं मधु का घड़ा, मधु का ढक्कन । मधु का घड़ा, विष का ढक्कन । विष का घड़ा, मधु का ढक्कन । विष का घड़ा, विष का ढक्कन । [मानव पक्ष में हृदय घट है और वचन ढक्कन ] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावन सूक्ति त्रिवेणी ३६. हिययमपावमकलुसं, जीहा वि य मधुरभासिणी णिच्चं । जंमि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुंभे मधुपिहाणे ।। ३७. हिययमपावमकलुसं, जीहाऽवि य कडुयभासिणी णिच्चं । जंमि पुरिसम्मि विज्जति, से मधुकुंभे विसपिहाणे ॥ -४।४ ३८. जं हिययं कलुसमयं, जोहावि य मधुरभासिणी णिच्चं । जंमि पुरिसंमि विज्जति, से विसकुंभे महुपिहाणे ॥ ३९. जं हिययं कलुसमयं, जीहाऽवि य कडुयभासिणी णिच्चं । जमि पुरिसंमि विज्जति, से विसकुंभे विसपिहाणे ॥ --४।४ ४०. समुदं तरामीतेगे समुदं तरइ । समुई तरामीतेगे गोप्पयं तरइ। गोप्पयं तरामीतेगे समुइं तरइ । गोप्पयं तरामीतेगे गोप्पयं तरइ । -४१४ ४१. सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था । -६।१ ४२. इमाई छ अवयणाई वदित्तए-- अलियवयणे, हीलियवयणे, खिसित बयणे, फरुसवयणे, गारत्थियवयणे, विउसवितं वा पुणो उदीरित्तए । -६।३ ४३. मोहरिए सच्चवयणस्स पलिमंथू । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग की सूक्तियां उनसठ ३६. जिसका अन्तर्-हृदय निष्पाप और निर्मल है, साथ ही वाणी भी मधुर है, वह मनुष्य मधु के घडे पर मधु के ढक्कन के समान है। ३७. जिसका हृदय तो निष्पाप और निर्मल है, किंतु वाणी से कटु एवं कठोर भाषी है, वह मनुष्य मधु के घडे पर विष के ढक्कन के समान है। ३८. जिसका हृदय कलुषित और दंभ युक्त है, किंतु वाणी से मीठा बोलता है, वह मनुष्य विष के घडे पर मधु के ढक्कन के समान है। ३९. जिसका हृदय भी कलुषित है और वाणी से भी सदा कटु बोलता है, वह पुरुष विष के घडे पर विष के ढक्कन समान है। ४०. कुछ व्यक्ति समुद्र तैरने जैसा महान् संकल्प करते हैं, और समुद्र तैरने जैसा ही महान कार्य भी करते हैं। कुछ व्यक्ति समुद्र तैरने जैसा महान् संकल्प करते हैं, किंतु गोष्पद (गाय के खुर जितना पानी) तैरने जैसा क्षुद्र कार्य ही कर पाते हैं। कुछ गोष्पद तैरने जैसा क्षुद्र संकल्प करके समुद्र तैरने जैसा महान कार्य कर जाते हैं। कुछ गोष्पद तैरने जैसा क्षुद्र संकल्प करके गोष्पद तैरने जैसा ही क्षुद्र कार्य कर पाते हैं। ४१. भगवान ने सर्वत्र निष्कामता (अनिदानता) को श्रेष्ठ बताया है। ४२.. छह तरह के छः वचन नहीं बोलने चाहिएँ असत्य वचन, तिरस्कारयुक्त वचन, झिड़कते हुए वचन, कठोर वचन, साधारण मनुष्यों की तरह अविचारपूर्ण वचन और शान्त हुए कलह को फिर से भड़काने वाले वचन। ४३. वाचालता सत्य वचन का विघात करती है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साठ सूक्ति त्रिवेणी ४४. इच्छालोभिते मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू । -६।३ ४५. सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेज्जा अकाले न वरिसइ, काले वरिसइ, असाधू ण पुज्जति, साधू पुज्जंति, गुरुहिं जणो सम्म पडिवन्नो, मणो सुहता, वइ सुहता। ४६. एगमवि मायी मायं कट्ट आलोएज्जा जाव पडिवज्जेजा अस्थि तस्स आराहणा। -८ ४७. असुयाणं धम्माणं सम्म सुणणयाए अब्भुट्ट्यव्वं भवति । ४८. सुयाणं धम्माणं ओगिण्हणयाए उवधारणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवति । ४९. असंगिहीयपरिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवति । ५०. गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए अब्भुट्टेयव्वं भवति । ५१. णो पाणभोयणस्स अतिमत्तं आहारए सया भवई । ५२. नो सिलोगाणुवाई, नो सातसोक्खपडिबद्धे यावि भवइ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग की सूक्तियाँ ४४. लोभ मुक्तिमार्ग का बाधक है । ४५. इन सात बातों से समय की श्रेष्ठता ( सुकाल ) प्रकट होती है- असमय पर न बरसना, समय पर बरसना, असाधुजनों का महत्व न बढ़ना, साधुजनों का महत्व बढ़ना, माता पिता आदि गुरुजनों के प्रति सद्व्यवहार होना, और वचन की शुभता । मन की शुभता, ४६. जो प्रमादवश हुए कपटाचरण के प्रति पश्चात्ताप ( आलोचना ) करके सरलहृदय हो जाता है, वह धर्म का आराधक है । ४७. अभी तक नहीं सुने हुए धर्म को सुनने के लिए तत्पर रहना चाहिए । ४८. सुने हुए धर्म को ग्रहण करने- उस पर आचरण करने को तत्पर रहना चाहिए । इकसठ ४९. जो अनाश्रित एवं असहाय हैं, उनको सहयोग तथा आश्रय देने में सदा तत्पर रहना चाहिए । ५०. रोगी की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए । ५१. ब्रह्मचारी को कभी भी अधिक मात्रा में भोजन-पान नहीं करना चाहिए । ५२. साधक कभी भी यश, प्रशंसा और दैहिक सुखों के पीछे पागल न बने । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासठ ५३. नवहिं ठाणेहिं रोगुप्पत्ती सिया अच्चासणाए, अहियासणाए, अनिद्दाए, अजागरिएण, उच्चारनिरोहेणं, पासवर्णानि रोहेणं, अद्धाणगमणेणं, भोयणपडिकूलयाए, इंदियत्थ-विकोवणयाए । ५४. ण एवं भूतं वा भव्वं वा भविस्सति वा जं जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संति । सूक्ति त्रिवेणी ११ --१० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानांग की सूक्तियां तिरेसठ ५३. रोग होने के नौ कारण हैं अति भोजन अहित भोजन, अतिनिद्रा, अति जागरण, मल के वेग को रोकना, मूत्र के वेग को रोकना, अधिक भ्रमण करना, प्रकृति के विरुद्ध भोजन करना, अति विषय सेवन करना । ५४. न ऐसा कभी हुआ है, न होता है और न कभी होगा ही कि जो चेतन हैं, वे कभी अचेतन-जड़ हो जाएँ, और जो जड़-अचेतन हैं, वे कभी चेतन हो जाएँ। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र की सूक्तियाँ १. जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव-अणारंभा । ---१११ २. इह भविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे । -- १११ ३. अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ । -- १।३ ४. अप्पणा चेव उदीरेइ, अप्पणा चेव गरहइ, अप्पणा चेव संवरइ। ५. अजीवा जीवपइट्ठिया, जीवा कम्मपइट्ठिया । -१६ ६. स वीरिए परायिणति अवीरिए परायिज्जति । -११८ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र की सूक्तियाँ १. आत्म साधना में अप्रमत्त रहने वाले साधक, न अपनी हिंसा करते हैं, न दूसरों की, वे सर्वथा अनारंभ--अहिंसक रहते हैं। २. ज्ञान का प्रकाश इस जन्म में रहता है, पर-जन्म में रहता है, और कभी दोनों जन्मों में भी रहता है। ३. अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है, अर्थात् सत् सदा सत् ही रहता है और असत् सदा असत् । ४. आत्मा स्वयं अपने द्वारा ही कर्मों की उदीरणा करता है, स्वयं अपने द्वारा ही उनकी गर्हा--आलोचना करता है, और अपने द्वारा ही कर्मों का संवर-- आश्रव का निरोध करता है। ५. अजीव-जड पदार्थ जीव के आधार पर रहे हुए हैं, और जीव (संसारी प्राणी) कर्म के आधार पर रहे हुए हैं। ६. शक्तिशाली (वीर्यवान्) जीतता है और शक्तिहीन (निर्वीर्य) पराजित हो जाता है। ...५ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियासठ सूक्ति त्रिवेणी ७. आया णे अज्जो ! सामाइए, आया णे अज्जो ! सामाइयस्स अट्ठे । -११९ ८. गरहा संजमे, नो अगरहा संजमे । - ११९ ९. अथिरे पलोट्टइ, नो थिरे पलोट्टइ । अथिरे भज्जइ, नो थिरे भज्जइ । --१९ १०. करणओ सा दुक्खा, नो खलु सा अकरणओ दुक्खा । -११० ११. सवणे नाणे य विन्नाणे, पच्चक्खाणे य संजमे । अणण्हये तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ।। -२१५ १२. जीवा णो वड्ढंति, णो हायंति, अवट्ठिया । -५।८ १३. नेरइयाणं णो उज्जोए, अंधयारे । -५।९ १४. जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे । -६।१० १५. समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलब्भइ । -७१ १६. दुक्खी दुक्खेणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे । -७१ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र की सूक्तियाँ ७. हे आर्य ! आत्मा ही सामायिक ( समत्वभाव) है, और आत्मा ही सामायिक का अर्थ ( विशुद्धि ) है । ( इस प्रकार गुण गुणी में भेद नहीं, अभेद है 1 ) ८. गर्हा ( आत्मालोचन ) संयम है, अगर्हा संयम नहीं है । ९. अस्थिर बदलता है, स्थिर नहीं बदलता । अस्थिर टूट जाता है, स्थिर नहीं टूटता । १० कोई भी क्रिया किए जाने पर ही दुःख का हेतु होती है, न किए जाने पर नहीं । ११. सत्संग से धर्मश्रवण, धर्मश्रवण से तत्त्वज्ञान, तत्त्वज्ञान से विज्ञान = विशिष्ट तत्त्वबोध, विज्ञान से प्रत्याख्यान - सांसारिक पदार्थों से विरक्ति, प्रत्याख्यान से संयम, संयम से अनाश्रव = नवीन कर्म का अभाव, अनाश्रव से तप, तप से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश, पूर्वबद्ध कर्मनाश से निष्कर्मता = सर्वथा कर्मरहित स्थिति और निष्कर्मता से सिद्धि - मुक्त स्थिति, होती है । प्राप्त १२. जीव न बढ़ते हैं, न घटते हैं, किन्तु सदा अवस्थित रहते हैं । १३. नारक जीवों को प्रकाश नहीं, अंधकार ही रहता है । १४. जो जीव है, वह निश्चित रूप से चैतन्य है, और जो चैतन्य है, वह निश्चित रूप से जीव है । १५. समाधि ( सुख ) देने वाला समाधि पाता है । १६. जो दुःखित = कर्मबद्ध है, वही दुःख बन्धन को पाता है, जो दुःखित=बद्ध नहीं हैं, वह दु:ख = बन्धन को नहीं पाता । सडसठ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अडसठ सूक्ति त्रिवेणी १७. अहासुत्तं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ । उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ । -७१ १८. जीवा सिय सासया, सिय असासया । • . 'दव्वठ्ठयाए सासया, भावठ्ठयाए असासया । -७/२ १९. भोगी भोगे परिच्चयमाणे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ । -७७ २०. हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे । -७८ २१. जीवियास-मरण-भयविप्पमुक्का । -८७ . २२. एगं अन्नयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ। -९।३४ २३. एग इसिं हणमाणे अणंते जीवे हणइ । -~९।३४ २४. अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू । -१२।२ २५. अत्थेगइयाणं जीवाणं बलियत्तं साहू, अत्थेगइयाणं जीवाणं दुब्बलियत्तं साहू । -१२।२ २६. नत्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा, न मए वा वि। -१२।७ . Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र की सूक्तियाँ उनहत्तर १७. सिद्धान्तानुकूल प्रवृत्ति करने वाला साधक ऐपिथिक (अल्पकालिक) क्रिया का बंध करता है । सिद्धान्त के प्रतिकूल प्रवृत्ति करने वाला सांपरायिक (चिरकालिक) क्रिया का बंध करता है । १८. जीव शाश्वत भी हैं, अशाश्वत भी। द्रव्यदृष्टि (मूल स्वरूप) से शाश्वत है, तथा भावदृष्टि (मनुष्यादि पर्याय) से अशाश्वत । १९. भोग-समर्थ होते हुए भी, जो भोगों का परित्याग करता है, वह कर्मों की महान निर्जरा करता है, उसे मुक्तिरूप महाफल प्राप्त होता है । २०. आत्मा की दृष्टि से हाथी और कुंथुआ-दोनों में आत्मा एक समान है। २१. सच्चे साधक जीवन की आशा और मृत्यु के भय से सर्वथा मुक्त होते २२. एक त्रस जीव की हिंसा करता हुआ आत्मा तत्संबंधित अनेक जीवों की हिंसा करता है। २३. एक अहिंसक ऋषि की हत्या करने वाला एक प्रकार से अनंत जीवों की हिंसा करने वाला होता है । २४. अधार्मिक आत्माओं का सोते रहना अच्छा है और धर्मनिष्ठ आत्माओं का जागते रहना। २५. धर्मनिष्ठ आत्माओं का बलवान होना अच्छा है और धर्महीन आत्माओं का दुर्बल रहना। २६. इस विराट् विश्व में परमाणु जितना भी ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ यह जीव न जन्मा हो, न मरा हो । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तर सूक्ति त्रिवेणी २७. मायी विउव्वइ, नो अमायी विउव्वइ । -१३।९ २८. जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जंति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जति । -१६।२ . २९. नेरइया सुत्ता, नो जागरा । -१६।२ ३०. अत्तकडे दुक्खे, नो परकडे ----१७१५ ३१. जं मे तव-नियम-संजम-सज्झाय-झाणा ऽवस्सयमादीएसु जोगेसु जयणा, से तं जत्ता । ---१९।१० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र की सूक्तियां इकहत्तर २७. जिसके अन्तर में माया का अंश है, वही विकुर्वणा ( नाना रूपों का प्रदर्शन) करता है । अमायी-(सरल आत्मा वाला) प्रदर्शन नहीं करता। २८. आत्माओं के कर्म चेतनाकृत होते हैं, अचेतना कृत नहीं। २९. आत्मजागरण की दृष्टि से नारक जीव सुप्त रहते हैं, जागते नहीं। ३०. आत्मा का दुःख स्वकृत है, अपना किया हुआ है, परकृत अर्थात् किसी अन्य का किया हुआ नहीं है। ३१. तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान, आवश्यक आदि योगों में जो यतना विवेक युक्त प्रवृत्ति है, वही मेरी वास्तविक यात्रा है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र की सूक्तियाँ १. अट्ठा हणंति, अणट्ठा हणन्ति । २. कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति । ३. न य अवेदयित्ता अस्थि ह मोक्खो । ४. पाणवहो चंडो, रुद्दो, खुद्दों, अणारियो, निग्विणो, निसंसो, महब्भयो.... ', ५. अलियवयणं... अयसकरं, वेरकरगं,... मणसं किलेस वियरणं । ६. सरीरं सादियं सनिधणं । ७. असंतगुणुदीरका य संतगुणनासका य । 777 - ११ - १1१ - १1१ - १1१ - १२ - १२ - ११२ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र को सूक्तियाँ १. कुछ लोग प्रयोजन से हिंसा करते हैं और कुछ लोग बिना प्रयोजन भी हिंसा करते हैं। २. कुछ लोग क्रोध से हिंसा करते हैं, कुछ लोग लोभ से हिंसा करते हैं और कुछ लोग अज्ञान से हिंसा करते हैं। ३. हिंसा के कटुफल को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। ४. प्राणवध (हिंसा) चण्ड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणारहित है, क्रूर .. है, और महाभयंकर है। ५. असत्य वचन बोलने से बदनामी होती है, परस्पर वैर बढ़ता है, और मन में संक्लेश की वृद्धि होती है। ६. शरीर का आदि भी है, और अन्त भी है। ७. असत्यभाषी लोग गुणहीन के लिए गुणों का बखान करते हैं और गुणी के वास्तविक गुणों का अपलाप करते हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहत्तर सूक्ति त्रिवेणी ८. अदत्तादाणं ... अकित्तिकरणं, अणज्ज... सया साहुगरहणिज्जं । -११३ ९. उवणमंति मरणधम्म अवितत्ता कामाणं । १०. इहलोए ताव नट्ठा, परलोए वि य नट्ठा । ११. लोभ-कलि-कसाय-महक्खंधो, चिंतासयनिचियविपुलसालो। -- ११५ १२. देवा वि सइंदगा न तित्ति न तुठ्ठि उवलभंति । -११५ १३. नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए। -१५ १४. अहिंसा तस-थावर-सव्वभूयखेमंकरी । -२११ १५. सव्वपाणा न हीलियब्वा, न निदियव्वा। -२।१ १६. न कया वि मणेण पावएणं पावगं किंचिवि झायव्वं । वईए पावियाए पावगं न किंचिवि भासियव्वं । -२१ १७. भगवती अहिंसा... भीयाणं विव सरणं । १८. सच्चं... पभासकं भवति सव्वभावाणं । १९. तं सच्चं भगवं। -२१२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र की सूक्तियाँ पिचहत्तर ८. अदत्तादान (चोरी) अपयश करनेवाला अनार्य कर्म है। यह सभी भले आदमियों द्वारा सदैव निंदनीय है। ९. अच्छे से अच्छे सुखोपभोग करने वाले देवता और चक्रवर्ती आदि भी अन्त में काम-भोगों से अतृप्त ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। १०. विषयासक्त इस लोक में भी नष्ट होते हैं और पर-लोक में भी। ११. परिग्रह रूप वृक्ष के स्कन्ध अर्थात् तने हैं-लोभ, क्लेश और कषाय । चिता रूपी सैकड़ों ही सघन और विस्तीर्ण उसकी शाखाएँ हैं। १२. देवता और इन्द्र भी न (भोगों से) कभी तृप्त होते हैं और न सन्तुष्ट । १३. समूचे संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए दूसरा कोई जाल एवं बन्धन नहीं है। १४. अहिंसा, त्रस और स्थावर (चर-अचर) सब प्राणियों का कुशल क्षेम करने वाली है। १५. विश्व के किसी भी प्राणी की न अवहेलना करनी चाहिए और न निन्दा। १६. मन से कभी भी बुरा नहीं सोचना चाहिए। वचन से कभी भी बुरा नहीं बोलना चाहिए। १७. जैसे भयाक्रान्त के लिए शरण की प्राप्ति हितकर है, प्राणियों के लिए वैसे ही, अपितु इससे भी विशिष्टतर भगवती अहिंसा हितकर है। १८. सत्य-समस्त भावों-विषयों का प्रकाश करने वाला है। १९. सत्य ही भगवान है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिहतर २०. सच्चं ... लोगम्मि सारभूयं, . गंभीरतरं महासमुद्दाओ । २१. सच्चं ... सोमतरं चंदमंडलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ । २२. सच्चं च हियं च मियं च गाहणं च । २३. सच्चं पिय संजमस्स उवरोहकारकं किंचि वि न वक्तव्वं । २४. अप्पणो थवणा, परेसु निंदा । २५. कुद्धो ... सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज । २६. लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं । २७. ण भाइयव्वं, भीतं खु भया अति लहुयं । २८. भीतो अबितिज्जओ मणुस्सो । २९. भीतो भूतेहि धिप्पइ । ३०. भीतो अन्नं पि हु भेसेज्जा 1 ३१. भीतो तवसंजमं पि हु मुएज्जा । भीतो य भरं न नित्थरेज्जा । सूक्ति त्रिवेणी -२१२ -२१२ -२१२ -२१२ -२२ -२२ --२१२ २२ २२ २२ २२ --रार Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र की सूक्तियाँ सतत्तर २०. संसार में 'सत्य' ही सारभूत है । सत्य महासमुद्र से भी अधिक गंभीर है। २१. सत्य, चंद्र मंडल से भी अधिक सौम्य है। सूर्यमण्डल से भी अधिक तेजस्वी है। २२. ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए, जो हित, मित और ग्राह्य हो । २३. सत्य भी यदि संयम का घातक हो, तो नहीं बोलना चाहिए । २४. अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा भी असत्य के ही समकक्ष है। क्रोध में अन्धा हुआ व्यक्ति सत्य, शील और विनय का नाश कर डालता २६. मनुष्य लोभग्रस्त होकर झूठ बोलता है । २७. भय से डरना नहीं चाहिए । भयभीत मनुष्य के पास भय शीघ्र आते हैं। २८. भयभीत मनुष्य किसी का सहायक नहीं हो सकता। २९. भयाकुल व्यक्ति ही भूतों का शिकार होता है। ३०. स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है । ३१. भयभीत व्यक्ति तप और संयम की साधना छोड़ बैठता है। भयभीत किसी भी गुरुतर दायित्व को नहीं निभा सकता है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठत्तर ३२. न भाइयव्वं भयस्स वा, वाहिस्स वा, रोगस्स वा, जराए वा मच्चुस्स वा । ३३. असंविभागी असंगहरुई... अप्पमाणभोई... से तारिसए नाराहए वयमिणं । , ३४. संविभागसीले संगहोवग्गहकुसले, से तारिए आराहए वयमिणं । ३५. अणुन्नविय हियव्वं । ३६. अपरिग्गहसंवुडेणं लोगंमि विहरियव्वं । ३७. एगे चरेज्ज धम्मं । ३८. विणओ वि तवो, तवो पि धम्मो । ३९. बंभचेरं उत्तमतव-नियम णाण- दंसणचरित सम्मत्त - विणयमूलं । ४०. जंमि य भग्गंमि होइ सहसा सव्वं भग्गं... जंमि य आराहियंमि आराहियं वयमिणं सव्वं ... । ४१. अणेगा गुणा अहीणा भवंति एक्कंमि बंभचेरे । सूक्ति त्रिवेणी -२६ - २/३ -- -२।३ -२३ -२१३ -२/३ -२/३ -२१४ -२|४ -२|४ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र की सूक्तियाँ उन्यासी ३२. आकस्मिक भय से व्याधि ( मन्दघातक, कुष्ठादि रोग) से, रोग (शीघ्र घातक हैजा आदि) से, और तो क्या, मृत्यु से भी कभी डरना नहीं चाहिए ३३. जो असंविभागी है - प्राप्त सामग्री का ठीक तरह वितरण नहीं करता है, असंग्रहरुचि है - साथियों के लिए समय पर उचित सामग्री का संग्रह कर रखने में रुचि नहीं रखता है, अप्रमाण भोजी है— मर्यादा से अधिक भोजन करने वाला पेटू है, वह अस्तेयव्रत की सम्यक् आराधना नहीं कर सकता । ३४. जो संविभागशील है - प्राप्त सामग्री का ठीक तरह वितरण करता है, संग्रह और उपग्रह में कुशल है – साथियों के लिए यथावसर भोजनादि सामग्री जुटाने में दक्ष है, वही अस्तेयव्रत की सम्यक् - आराधना कर सकता है । ३५. दूसरे की कोई भी चीज हो, आज्ञा लेकर ग्रहण करनी चाहिए । ३६. अपने को अपरिग्रह भावना से संवृत कर लोक में विचरण करना चाहिए । ३७. भले ही कोई साथ न दे, अकेले ही सद्धर्म का आचरण करना चाहिए । ३८. विनय स्वयं एक तप है और वह आभ्यंतर तप होने से श्रेष्ठ धर्म है । ३९. ब्रह्मचर्य - उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व और विनय का मूल है। ४०. एक ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर सहसा अन्य सब गुण नष्ट हो जाते हैं। एक ब्रह्मचर्य की आराधना कर लेने पर अन्य सब शील, तप, विनय आदि व्रत आराधित हो जाते हैं । ४१. एक ब्रह्मचर्य की साधना करने से अनेक गुण स्वयं प्राप्त ( अधीन ) हो जाते हैं । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्सी सूक्ति त्रिवेणी ४२. दाणाणं चेव अभयदाणं । ४३. स एव भिक्खू , जो सुद्धं चरति बंभचेरं । ४४. तहा भोत्तव्वं जहा से जाया माता य भवति, न य भवति विब्भमो, न भंसणा य धम्मस्स। ४५. समे य जे सव्वपाणभूतेसु, से हु समणे । ४६. पोक्खरपत्तं व निरुवलेवे ... - आगासं चेव निरवलंबे ....। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्यासी प्रश्नव्याकरण सूत्र की सूक्तियाँ ४२. सब दानों में 'अभयदान' श्रेष्ठ है । ४३. जो शुद्ध भाव से ब्रह्मचर्य पालन करता है, वस्तुतः वही भिक्षु है। ४४. ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिए, जो जीवनयात्रा एवं संयमयात्रा के लिए उपयोगी हो सके और जिससे न किसी प्रकार का विभ्रम हो और न धर्म की भ्रंसना। ४५. जो समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, वस्तुतः वही श्रमण है। ४६. साधक को कमलपत्र के समान निलेप और आकाश के समान निरवलम्ब होना चाहिए। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिक की सूक्तियाँ १. धम्मो मंगलमुक्किट्ठे; अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ २. विहंगमा व पुप्फेसु दाणभत्तेसणे रया । ३. वयं व वित्ति लब्भामो, न य कोइ उवहम्मद | ४. महुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया । ५. कहं नु कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए । ६. अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइति वुच्चइ । ७. जे य कंते पिए भोए, लद्धे वि पिट्ठिकुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चइ ॥ - १११ - ११३ – ११४ -- ११५ -२११ -२२ --२१३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशवकालिक की सूक्तियाँ १. धर्म श्रेष्ठ मंगल है। अहिंसा, संयम और तप-धर्म के तीन रूप हैं। जिसका मन--(विश्वास) धर्म में स्थिर है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। २. श्रमण-भिक्षु गृहस्थ से उसी प्रकार दानस्वरूप भिक्षा आदि ले; जिस प्रकार कि भ्रमर पुष्पों से रस लेता है। ३. हम जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की इस प्रकार पूर्ति करें कि किसी को कुछ कष्ट न हो। ४. आत्मद्रष्टा साधक मधुकर के समान होते हैं, वे कहीं किसी एक व्यक्ति या वस्तु पर प्रतिबद्ध नहीं होते । जहाँ रस (गुण) मिलता है, वहीं से ग्रहण कर लेते हैं। ५. वह साधना कैसे कर पाएगा, जो कि अपनी कामनाओं-इच्छाओं को रोक नहीं पाता? ६. जो पराधीनता के कारण विषयों का उपभोग नहीं कर पाते, उन्हें त्यागी नहीं कहा जा सकता। ७. जो मनोहर और प्रिय भोगों के उपलब्ध होने पर भी स्वाधीनतापूर्वक उन्हें पीठ दिखा देता है-त्याग देता है, वस्तुतः वही त्यागी है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौरासी सूक्ति त्रिवेणी ८. कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं । -२५ ९. वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे। -२७ १०. जयं चरे जयं चिठे, जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बन्धइ ॥ -४८ ११. पढमं नाणं तओ दया। -४।१० १२. अन्नाणी किं काही, किंवा नाही सेयपावगं ? --४११० १३. जं सेयं तं समायरे। -४।११ १४. जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाही संवरं? -४।१२ १५. दवदवस्स न गच्छेज्जा। -५।१।१४ १६. हसंतो नाभिगच्छेज्जा । -५।१।१४ १७ संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवज्जए। -५।१।१६ १८. असंसत्तं पलोइज्जा। -५।११२३ १९. उप्फुल्लं न विणिज्झाए । -५३११२३ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक की सूक्तियां पिच्यासी ८. कामनाओं को दूर करना ही दुःखों को दूर करना है । ९. वमन किए हुए (त्यक्त विषयों) को फिर से पीना (पाना) चाहते हो ? इससे तो तुम्हारा मर जाना अच्छा है। १०. चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, भोजन करना और बोलना आदि प्रवृत्तियां यतनापूर्वक करते हुए साधक को पाप-कर्म का बन्ध नहीं होता। ११. पहले ज्ञान होना चाहिए और फिर तदनुसार दया-अर्थात् आचरण । १२. अज्ञानी आत्मा क्या करेगा? वह पुण्य और पाप को कैसे जान पायेगा? १३. जो श्रेय (हितकर) हो, उसी का आचरण करना चाहिए । १४. जो न जीव (चैतन्य) को जानता है और न अजीव (जड़) को, वह संयम को कैसे जान पाएगा? १५. मार्ग में जल्दी-जल्दी-ताबड़-तोबड नहीं चलना चाहिए। १६. मार्ग में हंसते हुए नहीं चलना चाहिए। १७. जहाँ भी कहीं क्लेश की संभावना हो उस स्थान से दूर रहना चाहिए १८. किसी भी वस्तु को ललचाई आँखों से (आसक्ति पूर्वक) न देखे । १९. आँखें फाड़ते हुए, (घूरते हुए) नहीं देखना चाहिए। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियासी सूक्ति त्रिवेणी २०. निअटिज्ज अयंपिरो। . -५।१।२३ २१. अकप्पियं न गिण्हिज्जा। २२. छंद से पडिलेहए। -५।१।२७ -५।११३७ २३. महुघयं व भुंजिज्ज संजए। --५।१।९७ २४. उप्पण्णं नाइहीलिज्जा। --५।१४९९ २५. मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छन्ति सुग्गई। --५।१११०० २६. काले कालं समायरे। --५।२।४ २७. अलाभोत्ति न सोइज्जा, तवोत्ति अहियासए । -५।२।६ २८. अदीणो वित्तिमेसेज्जा, न विसीएज्ज पंडिए । -५।२।२८ २९. पूयणट्ठा जसोकामी, माणसंमाणकामए । बहुं पसवई पावं, मायासल्लं च कुव्वइ । -५।२।३७ ३०. अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवज्जए। -५।२।५१ ३१. अहिंसा निउणा विट्ठा, सम्वभूएसु संजमो। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक की सूक्तियां सत्तासी २०. किसी के यहाँ अपना अभीष्ट काम न बन पाए, तो बिना कुछ बोले (झगड़ा किए) शांत भाव से लौट आना चाहिए। २१. अयोग्य वस्तु, कैसी भी क्यों न हो, स्वीकार नहीं करना चाहिए । २२. व्यक्ति के अन्तर्मन को परखना चाहिए। २३. सरस या नीरस-जैसा भी थाहार मिले, साधक उसे 'मधु-घृत' की तरह प्रसन्नतापूर्वक खाए। २४. समम पर प्राप्त उचित वस्तु की नवहेलना न कीजिए। २५. मुधादायी-निष्कामभाव से दान देने वाला, और मुधाजीवी-निस्पृह होकर साधनामय जीवन जीने वाला-दोनों ही सद्गति प्राप्त करते हैं। २६. जिस काल (समय) में गो कार्य करने का हो, उस काल में यही कार्य करना चाहिए। २७. भिक्षु को यदि कभी मर्यादानुकूल शुद्ध भिक्षा न मिले, तो खेद न करे, अपितु यह मानकर अलाभ परीष को सहन करे कि अच्छा हुआ, आज सहज ही तप का अवसर मिल गया । २८. आत्मविद् साधक अदीन भाव से जीवन यात्रा करता रहे। किसी भी स्थिति में मन में खिन्नता न आने दे। २९. जो साधक पूजा-प्रतिष्ठा के फेर में पड़ा है, यश का भूखा है, मान सम्मान के पीछे दौड़ता है-वह उनके लिए अनेक प्रकार के दंभ रचता हुआ अत्यधिक पाप कर्म करता है। ३०. भात्मविद् साधक अणुमान भी माया-मृषा (दंभ और मसत्य) का सेवन ३१. सब शाणियों के प्रति स्वयं को पंवत रखना-यही अहिंसा का पूर्ण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठासी. सूक्ति त्रिवेणी ३२. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिज्जिउं । --६।११ ३३. मुसावाओ उ लोगम्मि, सव्वसाहूहिं गरहिओ। --६।१३ ३४. जे सिया सन्निहीकामे, गिही पव्वइए न से । -६।१९ ३५ मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। -६।२१ ३६. अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइयं । -६।२२ ३७ कुसीलवड्ढणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए । -६।५९ ३८. बमळंतु न जाणेज्जा, एवमेयंति नो वए । --७८ ३९ जत्थ संका भवे तं तु, एवमेयंति नो वए । -७९ ४०. सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो। --७।११ ४१. न लवे असाहुं साहु त्ति, साहुं साहु ति आलवे । -७/४८ ४२. न हासमाणो वि गिरं वएज्जा। । -७१५४ मियं अदुळं अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहई पसंसणं । -७१५५ ४४. वइज्ज बुद्धे हियमाणुलोमियं ।। -७५६ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक की सूक्तियां नवासी ३२. समस्त प्राणी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं । मरना कोई नहीं चाहता। ३३. विश्व के सभी सत्पुरुषों ने मृषाबाद (असत्य) की निंदा की है। ३४. जो सदा संग्रह की भावना रखता है, वह साधु नहीं, साधुवेष में गृहस्थ ही ३५. मूर्छा को ही वस्तुतः परिग्रह कहा है। ३६. अकिंचन मुनि, और तो क्या, अपने देह पर भी ममत्त्व नहीं रखते । ३७. कुशील (अनाचार) बढ़ाने वाले प्रसंगों से साधक को हमेशा दूर रहना चाहिए। ३८. जिस बात को स्वयं न जानता हो, उसके संबंध में "यह ऐसा ही है"- इस प्रकार निश्चित भाषा न बोले । ३९. जिस विषय में अपने को कुछ भी शंका जैसा लगता हो, उसके संबंध में "यह ऐसा ही है"- इस प्रकार निश्चित भाषा न बोले । ४०. वह सत्य भी नहीं बोलना चाहिए, जिससे किसी प्रकार का पापागम (अनिष्ट) होता हो। ४१. किसी प्रकार के दबाव या खुशामद से असाधु (अयोग्य) को साधु (योग्य) नहीं कहना चाहिए । साधु को ही साधु कहना चाहिए। ४२. हंसते हुए नहीं बोलना चाहिए। ४३. जो विचारपूर्वक सुन्दर और परिमित शब्द बोलता है, वह सज्जनों में प्रशंसा पाता है। ४४. बुद्धिमान ऐसी भाषा बोले-जो हितकारी ही एवं अनुलोम-सभी को प्रिय Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नब्वे सूक्ति त्रिवेणी ४५. अप्पमत्तो जये निच्चं । --८।१६ ४६. बहुं सुणेहिं कन्नेहि, बहुं अच्छीहिं पिच्छइ । न य दिळं सुयं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥ --८२० ४७. कन्नसोक्खेहिं सद्देहि, पेम नाभिनिवेसए । ---८२६ ४८. देहदुक्खं महाफलं । -८२७ ४९. थोवं लळू न खिसए । -~-~८।२९ ५०. न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे । --८३० ५१. बीयं तं न समायरे । --८॥३१ ५२. बलं थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विनाय, तहप्पाणं निमुंजए। --८।३५ ५३. जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वड्ढइ । जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ।। --८।३६ ५४. कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववड्ढणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो । --८।३७ ५५. कोहो पाइं पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सव्व विणासणो ॥ -८।३८ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक की सूक्तियाँ इक्यानवे ४५. सदा अप्रमत्त भाव से साधना में यत्नशील रहना चाहिए । ४६. भिक्षु-मुनि कानों से बहुत सी बातें सुनता है, आँखों से बहुत सी बातें देखता है, किंतु देखी-सुनी सभी बातें लोगों में कहना उचित नहीं है। ४७. केवल कर्णप्रिय तथ्यहीन शब्दों में अनुरक्ति नहीं रखनी चाहिए। ४८. शारीरिक कष्टों को समभावपूर्वक सहने से महाफल की प्राप्ति होती है। ४९. मनचाहा लाभ न होने पर झुंझलाएँ नहीं । ५०. बुद्धिमान् दूसरों का तिरस्कार न करे और अपनी बड़ाई न करे । ५१. एक बार भूल होने पर दुबारा उसकी आवृत्ति न करे। ५२. अपना मनोबल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा, स्वास्थ्य, क्षेत्र और काल को ठीक तरह से परखकर ही अपने को किसी भी सत्कार्य के संपादन में नियोजित करना चाहिए। ५३. जब तक बुढ़ापा आता नहीं है, जब तक व्याधियों का जोर बढ़ता नहीं है, जब तक इन्द्रियां (कर्मशक्ति) क्षीण नहीं होती हैं, तभी तक बुद्धिमान को, जो भी धर्माचरण करना हो, कर लेना चाहिए। ५४. क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चारों पाप की वृद्धि करने वाले हैं, अतः आत्मा का हित चाहने वाला साधक इन चारों दोषों का परित्याग कर ५५. क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का, माया मैत्री का और लोभ सभी सद्गुणों का नाश डर डालता है । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बानवे सूक्ति त्रिवेणी ५६. उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायमज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।। -८।३९ ५७. रायणिएसु विणयं पउंजे । --८१४१ ५८. सप्पहासं विवज्जए। -८।४२ ५९. अपुच्छिओ न भासेज्जा, भासमाणस्स अन्तरा । -~-८।४७ ६०. पिट्ठिमंसं न खाइज्जा । --८१४७ ६१. दिळं मियं असंदिद्धं, पडिपुन्नं विअंजियं । अयपिरमणुव्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं ॥ -८४९ ६२. कुज्जा साहूहिं संथवं । -८१५३ ६३. न या वि मोक्खो गुरुहीलणाए । -९१७ ६४. जस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे । -९।१।१२ ६५. एवं धम्मस्स विणओ मूलं, परमो य से मोक्खो। -९।२।२ ६६. जे य चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे। ......... वुज्झइ से अविणीयप्पा, कळं सोयगयं जहा ॥ ..... -९।२।३ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक की सूक्तियाँ 'तिरानवे ५६. क्रोध को शान्ति से, मान को मृदुता-नम्रता से, माया को ऋजुता-सरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए। ५७. बड़ों (रत्नाधिक) के साथ विनयपूर्ण व्यवहार करो। ५८. अट्टाहास नहीं करना चाहिए। ५९. विना पूछे व्यर्थ ही किसी के बीच में नहीं बोलना चाहिए । ६०. किसी की धुगली खाना--पीठ का मांस नोंचने के समान है, अतः किसी की पीठ पीछ चुगली नहीं खाना चाहिए । ६१. आत्मवान् साधक दृष्ट (अनुभूत), परिमित, सन्देहरहित, परिपूर्ण (अधूरी कटीछटी बात नहीं) और स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे। किंतु, यह ध्यान में रहे कि वह वाणी वाचालता से रहित तथा दूसरों को उद्विग्न करने वाली न हो। ६२. हमेशा साधुजनों के साथ ही संस्तव-संपर्क रखना चाहिए। ६३. गुरुजनों की अवहेलना करने वाला कभी बंधमुक्त नहीं हो सकता। ६४. जिनके पास धर्म-पदधर्म की शिक्षा ले, उनके प्रति सदा विनयभाव रखना चाहिए। ६५. धर्म का मूल विनय है, और मोक्ष उसका अन्तिम फल है। ६६. जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, दुर्वादी, कपटी और धूर्त है, वह संसार के प्रवाह में वैसे ही बह जाता है, जैसे जल के प्रवाह में काष्ठ। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौरानवे सूक्ति त्रिवेणी ६७. जे आयरिय-उवज्झायाणं, सुस्सूसा वयणं करे। तेसि सिक्खा पवड्ढंति, जलसित्ता इव पायवा । --९।२।१२ ६८. विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणीयस्स य । –९।२।२२ ६९. भसंविभागी नहु तस्स मोक्खो। --९।२।२३ ७०. जो छंदमारायई स पुज्जो। -९३१ ७१. अलधुयं नो परिदेवहज्जा, लढुं न विकत्थयई स पुज्जो । -९।३।४ ७२. वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुबंधीणि महन्भयाणि । -९।३१७ ७३. गुणेहि साहू, अगुणेहिंऽसाहू, गिण्हाणि साहू गुण मुञ्चऽसाहू -९।३।११ ७४. वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो । -- ९।३।११ ७५. वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू । --१०१ ७६. सम्मद्दिट्ठी सया अमूढे । --१०७ ७७. न य वुग्गहियं कहं कहिज्जा। -१०।१० Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशकालिक की सूक्तियाँ पिच्चानवे ६७. जो अपने आचार्य एवं उपाध्यायों की शुश्रूषा सेवा तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करता है, उसकी शिक्षाएँ (विद्याएँ) वैसे ही बढ़ती हैं जैसे कि जल से सींचे जाने पर वृक्ष । ६८. अविनीत विपत्ति ( दुःख) का भागी होता है और विनीत संपत्ति (सुख) का । ६९. जो संविभागी नहीं है, अर्थात प्राप्त सामग्री को साथियों में बांटता नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होती । ७०. जो गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है, वही शिष्य पूज्य होता है । ७१. जो लाभ न होने पर खिन्न नहीं होता है और लाभ होने पर अपनी बढ़ाई नहीं हांकता है, वही पूज्य है । ७२. वाणी से बोले हुए दुष्ट और कठोर वचन जन्म-जन्मान्तर के वैर और भय के कारण बन जाते हैं । ७३. सद्गुण से साधु कहलाता है, दुर्गुण से असाधु । अतएव दुर्गुणों का त्याग करके सद्गुणों को ग्रहण करो । ७४. जो अपने को अपने से जानकर राग-द्वेष के प्रसंगों में सम रहता है, वही साधक पूज्य है । ७५. जो वान्त - त्याग की हुई वस्तु को पुनः सेवन नहीं करता, वही सच्चा भिक्षु है । ७६. जिसकी दृष्टि सम्यक् है, वह कभी कर्तव्यविमूढ़ नहीं होता । ७७. विग्रह बढ़ाने वाली बात नहीं करनी चाहिए । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियानवे सूक्ति त्रिवेणी ७८. उवसंते अविहेड़ए जे स भिक्खू । -१०१० ७९. पुढविसमो मुणी हवेज्जा । -१०११३ ८०. संभिन्नवत्तस्स य हिट्ठिमा गई। -चू० १११३ ८१. बोही य से नो सुलहा पुणो पुणो । --चू० १११४ ८२. चइज्ज देहं, न हु धम्मसासणं । -चू० १११७ ८३. अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो। चू० -२३ ८४. जो पुव्वरत्तावररत्तकाले, ___ संपेहए अप्पगमप्पएणं । कि मे कडं किंच मे किच्चसेसं, किं सक्कणिज्जं न समायराभि ।। -चू० २।१२ ८५. अप्पा हु खलु सययं रक्खिअव्वो। --चू० २।१६ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक की सूक्तियाँ ७८. जो शान्त है, और अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक ( अनुपेक्षी ) श्रेष्ठ भिक्षु है । ७९. मुनि को पृथ्वी के समान क्षमाशील होना चाहिए । ८०. व्रत से भ्रष्ट होने वाले की अधोगति होती है । ८१. सद्बोध प्राप्त करने का अवसर बार-बार मिलना सुलभ नहीं है । ८२. देह को (आवश्यक होने पर) भले छोड़ दो, किन्तु अपने धर्म-शासन को मत छोड़ो । ८३. मनुस्रोत- अर्थात् विषयासक्त रहना, संसार है । प्रतिस्रोत- अर्थात frent से विरक्त रहना, संसार सागर से पार होना है। ८४. जागृत साधक प्रतिदिन रात्रि के प्रारम्भ में और अन्त में सम्यक् प्रकार से आत्मनिरीक्षण करता है कि मैंने क्या (सत्कर्म) किया है, क्या नहीं किया है ? और वह कौन-सा कार्य बाकी है, जिसे मैं कर सकने पर भी नहीं कर रहा हूँ ? ८५. अपनी आत्मा को सतत पापों से बचाये रखना चाहिए । ...७ सत्तानवे वही -- Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ १. आणानिद्देसकरे, गुरूणमुववायकारए । इंगियागारसंपन्ने, से विणीए ति वुच्चई ॥ -११२ २. जहा सुणी पूइकन्नी, निक्कसिज्जई सव्वसो । एवं दुस्सील पडिणीए, मुहरो निक्कसिज्जई ।। -१४ ३. कणकुंडगं चइत्ताणं, विट्ठे भुंजइ सूयरे । एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए । ४. विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो । ५. अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए। ६. अणुसासिओ न कुप्पिज्जा । ७. खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वज्जए। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ १. जो गुरुजना की आज्ञाओं का यथोचित पालन करता है, उनके निकट संपर्क में रहता है, एवं उनके हर संकेत व चेष्टा के प्रति सजग रहता है-उसे विनीत कहा जाता है। २. जिस प्रकार सड़े हुए कानों वाली कुतिया जहाँ भी जाती है, निकाल दी जाती है; उसी प्रकार दुःशील, उदंड और मुखर वाचाल मनुष्य भी सर्वत्र धक्के देकर निकाल दिया जाता है। ३, जिस प्रकार चावलों का स्वादिष्ट भोजन छोड़कर शंकर विष्ठा खाता है, । उसी प्रकार पशुवत् जीवन बिताने वाला अज्ञानी, शील-सदाचार को छोड़ कर दुःशील-दुराचार को पसंद करता है। ४. आत्मा का हित चाहने वाला साधक स्वयं को विनय = सदाचार में स्थिर करे। ५. अर्थयुक्त (सारभूत) बातें ही ग्रहण कीजिए, निरर्थक बातें छोड दीजिए। ६. गुरुजनों के अनुशासन से कुपित = क्षुब्ध नहीं होना चाहिए । ७. क्षुद्र लोगों के साथ संपर्क, हंसी मजाक, क्रीडा आदि नहीं करना चाहिए। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी ८. बहुयं मा य आलवे । -१।१० ९. आहच्च चंडालियं कटु, न निण्हविज्ज कयाइ वि । -१।११ १०. कडं कडे त्ति भासेज्जा, अकडं नो कडे त्ति य । -~१।११ ११. मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । -१११२ १२. नापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए । ....१।१४ १३. अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ।। -१।१५ १४. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । माहं परेहिं दम्मतो, बंधणेहिं वहेहि य ।। -१।१६ १५. हियं तं मण्णई पण्णो, वेसं होइ असाहुणो । --१२२८ काले कालं समायरे । -११३१ १७. रमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए । --११३७ १८. बालं सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व वाहए । -११३७ १९. अप्पाणं पि न कोवए । -११४० Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियां एक सौ एक ८. बहुत नहीं बोलना चाहिए । ९. यदि साधक कभी कोई चाण्डालिक = दुष्कर्म कर ले, तो फिर उसे छिपाने की चेष्टा न करे। १०. बिना किसी छिपाव या दुराव के किये हुए कर्म को किया हुआ कहिए, तथा नहीं किये हुए कर्म को न किया हुआ कहिए। ११. बार-बार चाबुक की मार खाने वाले गलिताश्व (अडियल या दुर्बल घोड़े) की तरह कर्तव्य पालन के लिए बार बार गुरुओं के निर्देश की अपेक्षा मत रखो। १२. बिना बुलाए बीच में कुछ नहीं बोलना चाहिये, बुलाने पर भी असत्य जैसा कुछ न कहे। १३. अपने आप पर नियंत्रण रखना चाहिए। अपने आप पर नियंत्रण रखना वस्तुतः कठिन है। अपने पर नियंत्रण रखने वाला ही इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है। १४. दूसरे वध और बंधन आदि से दमन करें, इससे तो अच्छा है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा अपना (इच्छाओं का) दमन कर लू । १५. प्रज्ञावान् शिष्य गुरुजनों की जिन शिक्षाओं को हितकर मानता है, दुर्बुद्धि दुष्ट शिष्य को वे ही शिक्षाएँ बुरी लगती हैं। १६. समय पर, समय का उपयोग (समयोचित कर्तव्य) करना चाहिए। १७. विनीत बुद्धिमान शिष्यों को शिक्षा देता हुआ ज्ञानी गुरु उसी प्रकार प्रसन्न होता है, जिस प्रकार भद्र अश्व (अच्छे घोड़े) पर सवारी करता हुआ घुडसवार। १८. बाल अर्थात् जड़मूढ़ शिष्यों को शिक्षा देता हुआ गुरु उसी प्रकार खिन्न होता हैं, जैसे अड़ियल या मरियल घोडे पर चढ़ा हुआ सवार । १९. अपने आप पर भी कभी क्रोध न करो। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ दो सूक्ति त्रिवेणी २०. न सिया तोत्तगवेसए । -११४० २१. नच्चा नमइ मेहावी। -११४५ २२. माइन्ने असणपाणस्स । -२॥३ २३. अदीणमणसा चरे। -२।३ २४. न य वित्तासए परं । -२२२० २५. संकाभीओ न गच्छेज्जा । -२०२१ २६. सरिसो होइ बालाणं । -२।२४ २७. नत्थि जीवस्स नासो ति । -२।२७ २८. अज्जेवाहं न लब्भामो, अवि लाभो सुए सिया। जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए । -२।३१ २९. चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ ३० जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं । . -३१७ ३१. सखा परमदुल्लहा। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ तीन उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ २०. दूसरों के छलछिद्र नहीं देखना चाहिए। २१. बुद्धिमान ज्ञान प्राप्त कर के नम्र हो जाता है। २२. साधक को खाने पीने की मात्रा = मर्यादा का ज्ञाता होना चाहिए । २३. संसार में अदीनभाव से रहना चाहिए । २४. किसी भी जीव को त्रास = कष्ट नहीं देना चाहिए । २५. जीवन में शंकाओं से ग्रस्त-भीत होकर मत चलो। २६. बुरे के साथ बुरा होना, बचकानापन है। २७. आत्मा का कभी नाश नहीं होता। २८. “आज नहीं मिला है तो क्या है, कल मिल जाएगा"-जो यह विचार कर लेता है, वह कभी अलाभ के कारण पीडित नहीं होता। २९. इस संसार में प्राणियों को चार परम अंग (उत्तम संयोग) अत्यन्त दुर्लभ हैं--१. मनुष्य जन्म, २. धर्म का सुनना, ३. सम्यक् श्रद्धा और ४. संयम में पुरुषार्थ । ३०. संसार में आत्माएँ क्रमशः शुद्ध होते-होते मनुष्यभव को प्राप्त करती हैं। ३१. धर्म में श्रद्धा होमा परम दुर्लभ है। . ..... .. ..। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी एक सौ चार ३२. सोही उज्जुअभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । ३३. असंखयं जीविय मा पमायए, -३।१२ -४१ ३४. वेराणुबद्धा नरयं उवेंति । --४।२ ३५. कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि । --४१३ ३६. सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। --४।३ ३७. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था। ३८. घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्ते। ३९. सुत्तेसु या वि पडिबुद्धजीवी । -~~~४।६ ४०. छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं । --४१८ -४।१३ ४१. कंखे गुणे जाव सरीरभेऊ । ४२. चीराजिणं नगिणिणं, जडी संघाडि मुंडिणं । एयाणि वि न तायंति, दुस्सीलं परिगाययं ॥ ४३. भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुब्बए कम्मई दिनं । –५।२१ -५।२२ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ पांच ३२. ऋजु अर्थात सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है । ३३. जीवन का धागा टूट जाने पर पुन: जुड़ नहीं सकता, वह असंस्कृत है, इसलिए प्रमाद मत करो । ३४. जो व्यक्ति वैर की परम्परा को लम्बा किए रहते हैं, वे नरक को प्राप्त होते हैं । ३५. कृत कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है । ३६. पापात्मा अपने ही कर्मों से पीडित होता है । ३७. प्रमत्त मनुष्य धन के द्वारा अपनी रक्षा नहीं कर सकता - न इस लोक में और न परलोक में ! ३८. समय बड़ा भयकर है और इधर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता हुआ शरीर है | अतः साधक को सदा अप्रमत्त होकर भारंडपक्षी ( सतत सतर्क रहने वाला एक पौराणिक पक्षी) की तरह विचरण करना चाहिए । ३९. प्रबुद्ध साधक सोये हुओं ( प्रमत्त मनुष्यों) के बीच भी सदा जागृतअप्रमत्त रहे । ४०. इच्छाओं को रोकने से ही मोक्ष प्राप्त होता है । ४१. जब तक जीवन है, ( शरीर-भेद न हो) सद्गुणों की आराधना करते रहना चाहिए । ४२. चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाएँ, कन्था और शिरोमुंडन - यह सभी उपक्रम आचारहीन साधक की ( दुर्गति से ) रक्षा नहीं कर सकते । ४३. भिक्षु हो चाहे गृहस्थ हो, जो सुव्रती ( सदाचारी) है, वह दिव्यगति को प्राप्त होता है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ छह ४४. गिहिवासे वि सुव्वए । ४५. न संतसंति मरणंते, सीलवंता ४६. जावंतऽविज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुक्ख संभवा । लुपंति बहुसो मूढा, संसारम्मि अनंतए । ४७. अप्पणा सच्चमेसेज्जा । बहुस्सुया । ४८. मेति भूएसु कप्पए । ४९. न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए । ५०. भणता अकरेन्ता य, बंधमोक्खपइण्णिणो । वायावीरियमेत्तेण, समासासेन्ति अप्पयं ॥ ५१. न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं । ५२. पुव्वकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे । ५३. आसुरीयं दिसं बाला, गच्छति अवसा तमं । ५४. माणुसत्तं भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छेएण जीवाणं, नरगतिरिवखत्तणं धुवं ॥ सूक्ति त्रिवेणी -५१२४ -५/२९ -६।१ -- ६२ -६।२ -६/७ - ६११० - ६।११ -६।१४ -७११० -७।१६ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ सात ४४. धर्मशिक्षासंपन्न गृहस्थ गृहवास में भी सुव्रती है। ४५. ज्ञानी और सदाचारी आत्माएँ मरणकाल में भी त्रस्त अर्थात भयाक्रांत नहीं होते। ४६. जितने भी अज्ञानी-तत्त्व-बोध-हीन पुरुष हैं, वे सब दुःख के पात्र हैं। इस अनन्त संसार में वे मूढ प्राणी बार-बार विनाश को प्राप्त होते रहते अपनी स्वयं की आत्मा के द्वारा सत्य का अनुसंधान करो। ४८. समस्त प्राणियों पर मित्रता का भाव रखो। ४९. जो भय और वैर से उपरत-मुक्त हैं, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते। ५०. जो केवल बोलते हैं, करते कुछ नहीं, वे बन्ध-मोक्ष की बातें करने वाले दार्शनिक केवल वाणी के बस पर ही अपने आप को आश्वस्त किए रहते हैं। ५१. विविध भाषाओं का पाण्डित्य मनुष्य को दुर्गति से नहीं बचा सकता, फिर भला विद्याओं का अनुशासन-अध्ययन किसी को कैसे बचा सकेगा। ५२. पहले के किए हुए कर्मों को नष्ट करने के लिए इस देह की सार-संभाल रखनी चाहिए। ५३. अज्ञानी जीव विवश हुए अंधकाराच्छन्न आसुरीगति को प्राप्त होते हैं। ५४. मनुष्य-जीवन मूल-धन है। देवगति उसमें लाभ रूप है। मूल-धन के ___ नाश होने पर नरक, तिर्यंच-गति रूप हानि होती है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ आठ सूक्ति त्रिवेणी ५५. कम्मसच्चा हु पाणिणो । ५६. बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसि । -७।२० -८४१५ ५७. कसिणं पि जो इमं लोयं, पडिपुण्णं दलेज्ज इक्कस्स । तेणावि से ण संतुस्से, इइ दुप्पूरए इमे आया । -८1१६ ५८. जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई। दोमासकयं कज्ज, कोडीए वि न निट्ठियं ।। -८१७ ५९. संसयं खलु सो कुणइ, जो मग्गे कुणइ घरं । ---९।२६ -९।३४ ६०. जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिए। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।। ६१. सव्वं अप्पे जिए जियं । ६२. इच्छा हु आगाससमा अणंतिया । ६३. कामे पत्थेमाणा अकामा जंति दुग्गई। -९।३६ -९।४८ -९।५३ ६४. अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई। माया गइपडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं ॥ -९।५४ ६५. दुमपत्तए पंडुयए जहा, निवड राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए। -१०१ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ नो ५५. प्राणियों के कर्म ही सत्य हैं। ५६. जो आत्माएं बहुत अधिक कर्मों से लिप्त हैं, उन्हें बोधि प्राप्त होना अति दुर्लभ है। ५७. धन-धान्य से भरा हुआ यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक व्यक्ति को दे दिया जाए , तब भी वह उससे संतुष्ट नहीं हो सकता-इस प्रकार मात्मा की यह तृष्णा बडी दुष्पूर (पूर्ण होना कठिन) है । ५८. ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ होता है। इस प्रकार लाभ से लोभ निरंतर बढ़ता ही जाता है। दो माशा सोने से संतुष्ट होने वाला करोड़ों (स्वर्ण मुद्रामों) से भी संतुष्ट नहीं हो पाया। ५९. साधना में संशय वही करता हैं, जो कि मार्ग में ही पर करना (रुक जाना) चाहता है। ६०. भयंकर युद्ध में हजारों-हजार दुर्दान्त शत्रुओं को जितने की अपेक्षा अपने आप को जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है । ६१. एक अपने (विकारों) को जीत लेने पर सबको जीत लिया जाता है । ६२. इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं । ६३. काम-भोग की लालसा-ही-लालसा में प्राणी, एक दिन, उन्हें बिना भोगे ही दुर्गति में चला जाता है। ६४. क्रोध से आत्मा नीचे गिरता है । मान से अधम गति प्राप्त करता है । माया से सद्गति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। लोभ से इस लोक और परलोक दोनों में ही भय = कष्ट होता है। ६५. जिस प्रकार वृक्ष के पत्ते समय आने पर पीले पड़ जाते हैं, एवं भूमि पर झड़ पड़ते हैं, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी आयु के समाप्त होने पर क्षीण हो जाता है । अतएव हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद न कर। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ दस सूक्ति त्रिवेणी ६६. कुसग्गे जह ओसबिन्दुए थोवं चिट्ठई लम्बमाणए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ -१०१२ ६७. विहुणाहि रयं पुरे कडं । -१०३ ६८. दुल्लहे खलु माणुसे भवे । -१०४ ६९. परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवन्ति ते । से सव्वबले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए । -१०।२६ ७०. तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ? अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए । -१०॥३४ ७१. अह पंचहि ठाणेहिं जेहिं सिक्खा न लब्भई । थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण वा ।। -११।३ ७२. न य पावपरिक्खेवी न य मित्तेसु कुप्पई । अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई -११।१२ ७३. पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लधु मरिहई । -११११४ ७४. महप्पसाया इसिणो हवंति, न हु मुणि कोवपरा हवंति । -१२॥३१ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ । एक सौ ग्यारह ६६. जैसे कुश (घास) की नोंक पर हिलती हुई ओस की बूंद बहुत थोडे समय के लिए टिक पाती है, ठीक ऐसा ही मनुष्य का जीवन भी क्षणभंगुर है । अतएव हे गौतम ! क्षणभर के लिए भी प्रमाद न कर ! ६७. पूर्वसंचित कर्म-रूपी रज को साफ कर ! ६८. मनष्य जन्म निश्चय ही बड़ा दुर्लभ है । ६९. तेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है, केश पक कर सफेद हो चले हैं। शरीर का सब बल क्षीण होता जा रहा है, अतएव हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद न कर । ७०. तू महासमुद्र को तैर चुका है, अब किनारे आकर क्यों बैठ गया ? उस पार पहुँचने के लिए शीघ्रता कर । है गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद उचित नहीं है। ७१. अहंकार, क्रोध, प्रमाद (विषयासक्ति), रोग और आलस्य-इन पांच कारणों से व्यषित शिक्षा (ज्ञान) प्राप्त नहीं कर सकता। ७२. सुशिक्षित व्यक्ति न किसी पर दोषारोपण करता है और न कभी परिचितों पर कुपित ही होता है । और तो क्या, मित्र से मतभेद होने पर भी परोक्ष में उसकी भलाई की ही बात करता है। ७३. प्रिय (अच्छा) कार्य करने वाला और प्रिय वचन बोलने वाला, अपनी ____ अभीष्ट शिक्षा प्राप्त करने में अवश्य सफल होता है। ७४. ऋषि-मुनि सदा प्रसन्नचित रहते हैं, कभी किसी पर क्रोध नहीं करते । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी एक सौ बारह ७५. सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई । -१२।३७ ७६. तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजमजोगसन्ती । - होमं हुणामि इसिणं पसत्यं ॥ १२१४४ ७७. धम्मे हरए बम्भे सन्तितित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे । जहि सिणाओ विमलो विसुतो, सुसीइभूओ पजहामि दोस । ७८. सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं । ----१२१४६ १३।१० ७९. सव्वे कामा दुहावहा । ८०. कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं । १३।२३ ८१. वणं जरा हरइ नरस्स रायं ! -१३।२६ ८२. उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी । -१३।९३ ८३. वेया अहीया न हवंति ताणं । -१४११२ ८४. खणमित्तसुक्खा बहुकालदुक्खा । -१४।१३ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ तेरह ७५. तप (चरित्र) की विशेषता तो प्रत्यक्ष में दिखलाई देती है, किन्तु जाति की तो कोई विशेषता नजर नहीं आती। ७६. तप-ज्योति अर्थात अग्नि है, जीव ज्योतिस्थान है; मन, वचन काया के योग जुवा = आहुति देने की कड़छी है, शरीर कारीषांग = अग्नि प्रज्वलित करने का साधन है; कर्म जलाए जाने वाला इंधन है, संयम योग शान्तिपाठ है । मैं इस प्रकार का यज्ञ--होम करता हूँ, जिसे ऋषियों ने श्रेष्ठ बताया है। ७७. धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य शांतितीर्थ है, आत्मा की प्रसन्नलेश्या मेरा निर्मल घाट है, जहाँ पर आत्मा स्नान कर कर्ममल से मुक्त हो जाता है। ७८. मनुष्य के सभी सुचरित (सत्कर्म) सफल होते हैं। ७९. सभी काम भोग अन्ततः दुःखावह (दुःखद) ही होते हैं। ८०. कर्म सदा कर्ता के पीछे-पीछे (साथ) चलते हैं। ८१. हे राजन् ! जरा, मनुष्य की सुन्दरता को समाप्त कर देती है। ८२. जैसे वृक्ष के फल क्षीण हो जाने पर पक्षी उसे छोडकर चले जाते हैं, वैसे ही पुरुष का पुण्य क्षीण होने पर भोगसाधन उसे छोड़ देते हैं, उसके हाथ से निकल जाते हैं। ८३. अध्ययन कर लेने मात्र से वेद (शास्त्र) रक्षा नहीं कर सकते । ८४. संसार के विषय भोग क्षण भर के लिए सुख देते हैं, किन्तु बदले में चिर काल तक दुःखदायी होते हैं। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ चौदह सूक्ति त्रिवेणी ८५. धणेण किं धम्मधुराहिगारे ? -१४।१७ ८६. नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्चं । --१११९ ८७. अज्झत्थ हे निययस्स बंधो। --१४।१९ ८८. मच्चुणाऽब्भाहओ लोगो, जराए परिवारिओ। -१४१२३ ८९. जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ ।। --१४१२५ जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वऽत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ।। --१४।२७ ९१. सद्धा खमं णे विणइत्तु रागं । --१४।२८ ९२. साहाहिं रुक्खो लहई समाहिं, छिन्नाहिं साहाहिं तमेव खाणुं । --१४।२९ ९३. जुण्णा व हंसो पडिसोत्तगामो । --१४॥३३ ९४. सव्वं जगं जइ तुब्भं, सव्वं वा वि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणाय तं तव । --१४।३९ ९५. एक्को ह धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जई अन्नमिहेह किंचि । -१४।४० Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ पंद्रह ८५. धर्म की धुरा को खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है ? वहाँ तो सदाचार की जरूरत है। ८६. आत्मा आदि अमूर्त तत्त्व इंद्रिय ग्राह्य नहीं होते और जो अमूर्त होते हैं वे अविनाशी-नित्य भी होते हैं । ८७. अंदर के विकार ही वस्तुतः बंधन के हेतु हैं । ८८. जरा से घिरा हुआ यह संसार मृत्यु से पीडित हो रहा है । ८९. जो रात्रियाँ बीत जाती हैं, वे पुनः लौट कर नहीं आतीं; किन्तु, जो धर्म का आचरण करता रहता है, उसकी रात्रियाँ सफल हो जाती हैं । ९०. जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता हो, जो उससे कहीं भाग कर बच सकता हो, अथवा जो यह जानता हो कि मैं कभी मरूँगा ही नहीं, वही कल पर भरोसा कर सकता है। ९१. धर्म-श्रद्धा हमें राग (आसक्ति) से मुक्त कर सकती है। ९२. वृक्ष की सुन्दरता शाखाओं से है । शाखाएँ कट जाने पर वही वृक्ष-ठूठ (स्थाणु) कहलाता है। ९३. बूढ़ा हंस प्रतिस्रोत (जलप्रवाह के सम्मुख) में तैरने से डूब जाता है। (असमर्थ व्यक्ति समर्थ का प्रतिरोध नहीं कर सकता)। ९४. यदि यह जगत् और जगत का समस्त धन भी तुम्हें दे दिया जाए तब भी वह (जरा मृत्यु आदि से) तुम्हारी रक्षा करने में अपर्याप्त-असमर्थ ९५. राजन् ! एक धर्म ही रक्षा करने वाला है, उसके सिवा विश्व में कोई भी मनुष्य का त्राता नहीं है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ सोलाह सूक्ति त्रिवेणी ९६. उरगो सुवण्णपासे व्व, संकमाणो तणुं चरे । -१४।४७ ९७. देव-दाणव-गंधव्वा, जक्ख-रक्खस्स-किन्नरा। बंभयारि नमसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥ -१६।१६ भुच्चा पिच्चा सुहं सुवई, पावसमणे त्ति वुच्चई । -१७।३ असंविभागी अचियत्ते, पावसमणे त्ति उच्चई । -१७।११ १००. अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसज्जसि ? -१८।११ १०१. जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपायचंचलं । -१८।१३ १०२. दाराणि य सुया चेव, मित्ता य तह बन्धवा । जीवन्तमणुजीवंति, मयं नाणुव्वयंति य ॥ -१८।१४ १०३. किरिअं च रोयए धीरो। -१८।३३ १०४. जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतुणो ॥ -१९।१६ १०५. भासियव्वं हियं सच्चं । -१९।२७ १०६. दन्तसोहणमाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं । -१९।२८ १०७. बाहाहिं सागरो चेव, तरियव्वो गुणोदही । -१९।३७ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ सत्रह ९६. सर्प, गरुड के निकट डरता हुआ बहुत संभल कर चलता है । ९७. देवता, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी ब्रह्मचर्य के साधक को ___ नमस्कार करते हैं, क्यों कि वह एक बहुत दुष्कर कार्य करता है। ९८. जो श्रमण खा-पीकर खूब सोता है, समय पर धर्माराधना नहीं करता, वह ___ 'पापश्रमण' कहलाता है । ९९. जो श्रमण असंविभागी है (प्राप्त सामग्री को साथियों में बांटता नहीं है, और परस्पर प्रेमभाव नहीं रखता है), वह 'पाप श्रमण' कहलाता है। १००. जीवन अनित्य है, क्षणभंगुर है, फिर क्यों हिंसा में आसक्त होते हो ? १०१. जीवन और रूप, बिजली की चमक की तरह चंचल हैं। १०२. स्त्री, पुत्र, मित्र और बंधुजन सभी जीते-जी के साथी हैं, मरने के बाद कोई किसी के पीछे नहीं जाता। १०३. धीर पुरुष सदा क्रिया (कर्तव्य) में ही रुचि रखते हैं । १०४. संसार में जन्म का दुःख है, जरा, रोग और मृत्यु का दुःख है, चारों ओर दुःख-ही-दुःख है । अतएव वहाँ प्राणी निरंतर कष्ट ही पाते रहते हैं। १०५. सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए । १०६. अस्तेयव्रत का साधक विना किसी की अनुमति के और तो क्या, दांत साफ करने के लिए एक तिनका भी नहीं लेता। १०७. सद्गुणों की साधना का कार्य भुजाओं से सागर तैरने जैसा है । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ अठारह सूक्ति त्रिवेणी १०८. असिधारागमणं चेव, दुक्करं चरिउं तवो । -१९।३८ १०९. इह लोए निप्पिवासस्स, नत्थि किंचि वि दुक्करं ।। -१९।४५ ११०. ममत्तं छिन्दए ताए, महानागोव्व कंचुयं । -१९।८७ १११. लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निंदा पसंसासू, समो माणावमाणओ ।। -१९।९१ ११२. अप्पणा अनाहो संतो, कहं नाहो भविस्ससि ? -२०११२ अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली अप्पा कामदुहा धेणू, अप्पा मे नन्दणं वणं । -२०१३६ ११४. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ ॥ -२०१३७ ११५. राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ हु जाणएसु । - ०१४२ ११६. न तं अरी कंठछित्ता करेई, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । -२०१४८ ११७. कालेण कालं विहरेज्ज रठे, बलाबलं जाणिय अप्पणो य । -२०१४ ११८. · सीहो व सद्देण न संतसेज्जा । -२१।१४ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ उन्नीस १०८. तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर है। १०९. जो व्यक्ति संसार की पिपासा-तृष्णा से रहित है, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है । ११०. आत्म साधक ममत्व के बंधन को तोड़ फेंके-जैसे कि सर्प शरीर पर आई हुई केंचुली को उतार फेंकता है । १११. जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुतः मुनि है । ११२. तू स्वयं अनाथ है, तो फिर दूसरे का नाथ कैसे हो सकता है ? ११३. मेरी (पाप में प्रवृत्त) आत्मा ही वैतरणी नदी और कूट शाल्मली वृक्ष के समान कष्टदायी है और मेरी आत्मा ही (सत्कर्म में प्रवृत्त) कामधेनु और नंदन वन के समान सुखदायी भी है। ११४. आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र के तुल्य है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है । ११५. वैडूर्य रत्न के समान चमकने वाले कांच के टुकड़े का, जानकार (जौहरी) के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं रहता। ११६. गर्दन काटने वाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी हानि . दुराचार में प्रवृत्त अपना ही स्वयं का आत्मा कर सकता है । ११७. अपनी शक्ति को ठीक तरह पहचान कर यथावसर यथोचित कर्तव्य का __ पालन करते हुए राष्ट्र (विश्व) में विचरण करिए । ११८. सिंह के समान निर्भीक रहिए, केवल शब्दों (आवाजों) से न डरिए । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी एक सौ बीस ११९. पियमप्पियं सव्व तितिक्खएज्जा। -२१११५ १२०. न सव्व सव्वत्थभिरोयएज्जा । -२१११५ १२१. अणेगछन्दा इह माणवेहिं । -२०१६ १२२. अणुन्नए नावणए महेसी, न यावि पूयं, गरिहं च संजए। -२१२२० १२३. नाणेणं दसणेणं च, चरित्तेणं तवेण य । खंतीए मुत्तीए य, वड्ढमाणो भवाहि य ॥ -२२।२६ १२४. पण्णा समिक्खए धम्म । -२३।२५ १२५. वित्राणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छिउं -२३॥३१ १२६. पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं । -२३।३२ १२७. एगप्पा अजिए सत्तू । -२३१३८ १२८. भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया। -२३६४८ १२९. कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुय सील तवो जलं । -२३६५३ १३०. मणो साहस्सिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावई । तं सम्मं तू निगिण्हामि, धम्मसिक्खाई कन्थगं ॥ -२३१५५ . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यन की सूक्तियाँ एक सौ इक्कीस ११९. प्रिय हो या अप्रिय, सबको समभाव से सहन करना चाहिए । १२०. हर कहीं, हर किसी वस्तु में मन को मत लगा बैठिए। . १२१. इस संसार में मनुष्यों के विचार (छन्द = रुचियाँ) भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। १२२. जो पूजा-प्रशंसा सुनकर कभी अहंकार नहीं करता और निन्दा सुनकर स्वयं को हीन (अवनत) नहीं मानता, वही वस्तुतः महर्षि है । १२३. ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, क्षमा और निर्लोभता की दिशा में निरन्तर वर्द्धमान = बढ़ते रहिए। १२४. साधक की स्वयं की प्रज्ञा ही समय पर धर्म की समीक्षा कर सकती है। १२५. विज्ञान (विवेक-ज्ञान) से ही धर्म के साधनों का निर्णय होता है । १२६. धर्मों के वेष आदि के नाना विकल्प जनसाधारण में प्रत्यय (परिचय पहिचान) के लिए हैं। १२७. स्वयं की अविजित = असंयत आत्मा ही स्वयं का एक शत्रु है। १२८. संसार की तृष्णा भयंकर फल देने वाली विष-बेल है। १२९. कषाय-(क्रोध, मान, माया और लोभ) को अग्नि कहा है । उसको बुझाने के लिए श्रुत (ज्ञान), शील, सदाचार और तप जल है । १३०. यह मन बड़ा ही साहसिक, भयंकर, दुष्ट घोड़ा है, जो बड़ी तेजी के साथ दौड़ता रहता है। धर्मशिक्षारूप लगाम से उस घोड़े को अच्छी तरह वश में किए रहता हूँ। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ बाईस सूक्ति त्रिवेणी १३१. जरामरण वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ।। -२३॥६८ १३२. जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी । जा निरस्साविणी नावा, सा उ पारस्स गामिणी । --२३१७१ १३३. सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥ -२३३७३ १३४. जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ।। -२५।२७ १३५. न वि मुंडिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो । न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो । -२५।३? समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ, तवेणं होई तावसो। -२५।३२ १३७. कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। बइस्सो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मुणा ॥ -२५३३ १३८. उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई । -२५।४१ १३९. विरत्ता हु न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए । -२५३४३ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ तेईस १३१. जरा और मरण के महाप्रवाह में डूबते प्राणिओं के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा आधार है, गति है, और उत्तम शरण है । १३२. छिद्रों वाली नौका पार नहीं पहुँच सकती, किंतु जिस नौका में छिद्र नहीं है, वही पार पहुँच सकती है । १३३. यह शरीर नौका है. जीव आत्मा उसका नाविक ( मल्लाह ) है और संसार समुद्र है | महर्षि इस देहरूप नौका के द्वारा संसार सागर को तैर जाते हैं । १३४. ब्राह्मण वही है - जो संसार में रह कर भी काम भोगों से निर्लिप्त रहता है, जैसे कि कमल जल में रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता | १३५. सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, ओंकार का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जंगल में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुशचीवर= वल्कल धारण करने से कोई तापस नहीं होता । १३६. समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस कहलाता है । १३७. कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य होता है। और कर्म से ही शूद्र । १३८. जो भोगी ( भोगासक्त) है, वह कर्मों से लिप्त होता है और जो अभोगी है, भोगासक्त नहीं है, वह कर्मों से लिप्त नहीं होता । भोगासक्त संसार में परिभ्रमण करता है । भोगों में अनासक्त ही संसार से मुक्त होता है । १३९. मिट्टी के सूखे गोले के समान विरक्त साधक कहीं भी चिपकता नहीं है, अर्थात् आसक्त नहीं होता । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ चौबीस सूक्ति त्रिवेणी १४०. सज्झाएवा निउत्तेण, सव्वदुक्खविमोक्खणे । -२६१० १४१. सज्झायं च तओ कुज्जा, सव्वभावविभावणं । -२६१३७ १४२. नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गे त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।। --२८१२ १४३. नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं । -२८१२६ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुति चरणगुणा । अगुणिस्स णत्थि मोक्खो, णत्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं ॥ -२८।३० १४५. ___ नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाई, तवेण परिसुज्झई ॥ -२८१३५ १४६. सामाइएणं सावज्जजोगविरइं जणयई । -२९।८ १४७. खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ । -२९।१७ १४८. सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्म खवेई। -२९।१८ १४९. वेयावच्चेणं तित्थयरं नामगोत्तं कम्मं निबन्धई। -२९।४३ १५०. वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि, तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिदई ॥ -२९।४५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यन की सूक्तियां एक सौ पच्चीस १४०. स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है। १४१. स्वाध्याय सब भावों (विषयों), का प्रकाश करने वाला है। १४२. वस्तुस्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाले जिन भगवान ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बताया है। १४३. सम्यक्त्व (सत्यदृष्टि) के अभाव में चारित्र नहीं हो सकता । १४४. सम्यक दर्शन के अभाव में ज्ञान प्राप्त नहीं होता, ज्ञान के अभाव में चारित्र के गुण नहीं होते, गुणों के अभाव में मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के अभाव में निर्वाण (शाश्वत आत्मानंद) प्राप्त नहीं होता। १४५. ज्ञान से भावों (पदार्थों) का सम्यक-बोध होता है, दर्शन से श्रद्धा होती है। चारित्र से कर्मों का निरोध होता है और तप से आत्मा निर्मल होता है। १४६. सामायिक की साधना से पापकारी प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है। १४७. क्षमापना से आत्मा में प्रसन्नता की अनुभूति होती है । १४८. स्वाध्याय से ज्ञानावरण (ज्ञान को आच्छादन करने वाले) कर्म का क्षय होता है। १४९. वैयावृत्य (सेवा) से आत्मा तीर्थकर होने जैसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म का उपार्जन करता है। १५०. वीतराग भाव की साधना से स्नेह (राग) के बंधन और तृष्णा के बंधन कट जाते हैं। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ छब्बीस सूक्ति त्रिवेणी १५१. अविसंवायणसंपन्नयाए णं जीवे, धम्मस्स आराहए भवइ । -२९।४८ १५२. करण सच्चे वट्टमाणे जीवे, जहावाई तहाकारी यावि भवइ । ---२९।५१ १५३. वयगुत्तयाए णं णिविकारत्तं जणयई । ----२९।५४ १५४. जहा सूई ससुत्ता, पडियावि न विणस्सइ ।। तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ।। --२९।५९ १५५. कोहविजए णं खंति जणयई । --२९।६७ १५६. माणविजए णं मद्दवं जणयई । --२९।६८ १५७. मायाविजए णं अज्जवं जणयइ । --२९॥६९ १५८. लोभविजए णं संतोसं जणयई । -~-२९।७० १५९. भवकोडी-संचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ । १६०. असंजमे नियत्ति च, संजमे य पवत्तणं । --३१।२ १६१. नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं । --३२१२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ सत्ताईस १५१. दम्भरहित, अविसंवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है। १५२. करणसत्य-व्यवहार में स्पष्ट तथा सच्चा रहने वाला आत्मा जैसी कथनी वैसी करनी' का आदर्श प्राप्त करता है । १५३. वचन गुप्ति से निर्विकार स्थिति प्राप्त होती है। १५४. धागे में पिरोई हुई सूई गिर जाने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञानरूप धागे से युक्त आत्मा संसार में भटकता नहीं, विनाश को प्राप्त नहीं होता। १५५. क्रोध को जीत लेने से क्षमाभाव जागृत होता है। १५६. अभिमान को जीत लेने से मृदुता (नम्रता) जागृत होती है । १५७. माया को जीत लेने से ऋजुता (सरल भाव) प्राप्त होती है । १५८. लोभ को जीत लेने से संतोष की प्राप्ति होती है । १५९. साधक करोड़ों भवों के संचित कर्मों को तपस्या के द्वारा क्षीण कर देता है। १६०. असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए । १६१. ज्ञान के समग्र प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विवर्जन से तथा राग एवं द्वेष के क्षय से आत्मा एकान्तसुख-स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ अट्ठाईस १६२. १६३. १६४. १६५. १६६. १६७. १६८. जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बला गप्पभवं जहा य । एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयंति । रागोय दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति । दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई ॥ रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥ सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स, कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं । लोभाविले आययई अदत्तं । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाह । सूक्ति त्रिवेणी --३२।६ -३२१७ --३२१८ -- ३२।१० -- ३२।१९ -३२।२९ --३२१३६ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियां एक सौ उनतीस १६२. जिस प्रकार बलाका ( बगुली ) अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से; इसी प्रकार मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है और तृष्णा मोह से। १६३. राग और द्वेष, ये दो कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म __ ही जन्म मरण का मूल है और जन्म-मरण ही वस्तुतः दुःख है। १६४. जिसको मोह नहीं होता उसका दुःख नष्ट हो जाता है। जिसको तृष्णा नहीं होती, उसका मोह नष्ट हो जाता है। जिसको लोभ नहीं होता, उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है और जो अकिंचन (अपरिग्रही) है, उसका लोभ नष्ट हो जाता है। १६५. ब्रह्मचारी को घी-दूध आदि रसों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रस प्राय: उद्दीपक होते हैं। उद्दीप्त पुरुष के निकट कामभावनाएँ वैसे ही चली आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष के पास पक्षी चले आते हैं। १६६. देवताओं सहित समग्र संसार में जो भी दुःख है, वे सब कामासक्ति के कारण ही हैं। १६७. जब आत्मा लोभ से कलुषित होता है, तो वह चोरी करने को प्रवृत्त होता १६८. मनोज्ञ शब्द आदि राग के हेतु होते हैं और अमनोज्ञ द्वेष के हेतु । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ तीस सूक्ति त्रिवेणी १६९. सद्दे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुठिं । --३२१४२ १७०. पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे । ३२।४६ १७१. न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं । --३२।४७ १७२. समो य जो तेसु स वीयरागो । --३२१६१ १७३. एविदियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो । ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेंति किंचि ॥ -३२।१०० १७४. न कामभोगा समयं उवेंति, न यावि भोगा विगई उति । जे तप्पओसी य परिग्गही य, सो तेस मोहा विगई उवेइ ।। -३२।१०१ १७५. न रसठाए भुंजिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी । ---.३५:१७ १७६. अउलं सुहसंपत्ता उवमा जस्स नत्थि उ -३६६६६ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियां एक सौ इकत्तीस १६९. शब्द आदि विषयों में अतृप्त और परिग्रह में आसक्त रहने वाला आत्मा कभी संतोष को प्राप्त नहीं होता। १७०. आत्मा प्रदुष्ट चित्त (रागद्वेष से कलुषित) होकर कर्मों का संचय करता है। __ वे कर्म विपाक (परिणाम) में बहुत दुःखदायी होते हैं । १७१. जो आत्मा विषयों के प्रति अनासक्त है, वह संसार में रहता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता। जैसे कि पुष्करिणी के जल में रहा हुआ पलाशकमल । १७२. जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादि विषयों में सम रहता है, वह वीतराग १७३. मन एवं इन्द्रियों के विषय, रागात्मा को ही दुःख के हेतु होते हैं। वीतराग को तो वे किंचित् मात्र भी दुःखी नहीं कर सकते । १७४. कामभोग-शब्दादि विषय न तो स्वयं में समता के कारण होते हैं और न विकृति के ही। किंतु जो उनमें द्वेष या राग करता है, वह उनमें मोह से राग-द्वेष रूप विकार को उत्पन्न करता है। १७५. साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, किंतु जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए करे । १७६. मोक्ष में आत्मा अनंत सुखमय रहता है । उस सुख की कोई उपमा नहीं है और न कोई गणना ही है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियां १. अंगाणं किं सारो ? आयारो । आचारांग नियुक्ति, गाथा १६ २. सारो परूवणाए चरणं, तस्स वि य होइ निव्वाणं । --आचा० नि० १७ ३. एक्का मणुस्सजाई। --आचा० नि० १९ ४. हेट्ठा नेरइयाणं अहोदिसा उवरिमा उ देवाणं । __ --आचा० नि० ५८ ५. सायं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति । --आचा० नि० ९४ ६. भावे अ असंजमो सत्थं । --आचा० नि० ९६ ७. कामनियत्तमई खलु, संसारा मुच्चई खिप्पं । --आचा० नि० १७७ ८. कामा चरित्तमोहो । --आचा० नि० १८८ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जिनवाणी ( अंग - साहित्य) का सार क्या है ? 'आचार' सार है । २. प्ररूपणा का सार है--आचरण । आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ आचरण का सार ( अन्तिम फल ) है -- निर्वाण ! ३. समग्र मानव जाति एक है । ४. नारकों की दिशा, अधोदिशा है और देवताओं की दिशा, ऊर्ध्व दिशा । ( यदि अध्यात्मदृष्टि से कहा जाए, तो अधोमुखी विचार नारक के प्रतीक हैं और ऊर्ध्वमुखी विचार देवत्व के ) । ५. कुछ लोग अपने सुख की खोज में दूसरों को दुःख पहुँचा देते हैं । ६. भाव - दृष्टि से संसार में असंयम ही सबसे बड़ा शस्त्र है । ७. जिसकी मति, काम (वासना) से मुक्त है, वह शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है । ८. वस्तुतः काम की वृत्ति ही चारित्रमोह (चरित्र - मूढ़ता ) है । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ चौतीस सूक्ति त्रिवेणी ९. संसारस्स उ मूलं कम्म, तस्स वि हुंति य कसाया । --आचा० नि० १८९ १०. अभयकरो जीवाणं, सीयघरो संजमो भवइ सीओ। -आचा० नि० २०६ ११. न हु बालतवेण मुक्खु त्ति । -आचा० नि० २१४ १२. न जिणइ अंधो पराणीयं । --आचा० नि० २१९ १३. कुणमाणोऽवि निवित्ति, परिच्चयंतोऽवि सयण-धण-भोए। दितोऽवि दुहस्स उरं, मिच्छद्दिट्ठी न सिज्झई उ ।। -आचा० नि० २२० १४. दंसणवओ हि सफलाणि, हुंति तवनाणचरणाई । -आचा० नि० २२१ १५. न हु कइतवे समणो। -आचा० नि० २२४ १६. जह खलु झुसिरं कठे, सुचिरं सुक्कं लहुं डहइ अग्गी । तह खलु खवंति कम्म, सम्मच्चरणे ठिया साहू ।। -आचा० नि० २३४ १७. लोगस्स सार धम्मो, धम्म पि य नाणसारियं बिति । __ नाणं संजमसारं संजमसारं च निव्वाणं ।। -आचा० नि० २४४ १८. देसविमुक्का साहू, सव्वविमुक्का भवे सिद्धा। -आचा० नि० २५९ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ पैंतीस आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ ९. संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कषाय हैं । १०. प्राणिमात्र को अभय करने के कारण संयम शीतगृह (वातानुकूलित गृह) के समान शीत अर्थात् शान्तिप्रद है । ११. अज्ञान-तप से कभी मुक्ति नहीं मिलती। १२. अंधा कितना ही बहादुर हो, शत्रुसेना को पराजित नहीं कर सकता । इसी प्रकार अज्ञानी साधक भी अपने विकारों को जीत नहीं सकता। १३. एक साधक निवृत्ति की साधना करता है, स्वजन, धन और भोग-विलास का परित्याग करता है, अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करता है, किंतु यदि वह मिथ्यादृष्टि है, तो अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। १४. सम्यक्-दृष्टि के ही तप, ज्ञान और चारित्र सफल होते हैं। १५. जो दंभी है, वह श्रमण नहीं हो सकता । १६. जिस प्रकार पुराने सूखे, खोखले काठ को अग्नि शीघ्र ही जला डालती है, वैसे ही निष्ठा के साथ आचार का सम्यक् पालन करने वाला साधक कर्मों को नष्ट कर डालता है। १७. विश्व--सृष्टि का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान (सम्यक्-बोध) है, ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण--(शाश्वत आनंद की प्राप्ति ) है। १८. साधक कर्म-बंधन से देश-मुक्त (अंशतः मुक्त) होता है और सिद्ध सर्वथा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ छत्तीस सूक्ति त्रिवेणी १९. जह खलु मइलं वत्थं, सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहिं । एवं भावुवहाणेण, सुज्झए कम्ममट्ठविहं ॥ --आचा० नि० २८२ २०. जह वा विसगंडूस, कोई घेत्तूण नाम तुण्हिक्को । अण्णेण अदीसंतो, किं नाम ततो न व मरेज्जा ! ___ --सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा ५२ २१. धम्ममि जो दढमई, सो सूरो सत्तिओ य वीरो य । ण हु धम्मणिरुस्साहो, पुरिसो सूरो सुबलिओऽवि ॥ --सूत्र० नि० ६० २२. अहवा वि नाणदंसणचरित्तविणए तहेव अज्झप्पे । जे पवरा होंति मुणी, ते पवरा पुंडरीया उ ।। --सूत्र० नि० १५६ २३. अवि य ह भारियकम्मा, नियमा उक्कस्सनिरयठितिगामी। तेऽवि हु जिणोवदेसेण, तेणेव भवेण सिझंति ॥ --सूत्र० नि० १६० २४. धम्मो उ भावमंगलमेत्तो सिद्धि त्ति काऊणं ।। --दशवकालिक नियुक्ति, गाथा ४४ २५. हिंसाए पडिवक्खो होइ अहिंसा । ---दशव०नि० ४५ २६. सुहदुक्खसंपओगो, न विज्जई निच्चवायपक्खंमि । एगतुच्छेअंमि य, सुहदुक्ख विगप्पणमजुत्तं ।। -दशवै० नि० ६० २७. उक्कामयंति जीवं, धम्माओ तेण ते कामा।। -दशव०नि० १६४ २८. मिच्छत्तं वेयन्तो, जं अन्नाणी कहं परिकहेइ । लिंगत्थो व गिही वा, सा अकहा देसिया समए । तवसंजमगुणधारी, जं चरणत्था कहिंति सब्भावं । सव्वजगज्जीवहियं, सा उ कहा देसिया समए । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ एक सौ सैंतीस १९. जिस प्रकार जल आदि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक तप साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि अष्टविध कमल से मुक्त हो जाता है । २०. जिस प्रकार कोई चुपचाप लुकछिपकर विष पी लेता है, तो क्या वह उस विष से नहीं मरेगा ? अवश्य मरेगा । उसी प्रकार जो छिपकर पाप करता है, तो क्या वह उससे दूषित नहीं होगा ? अवश्य होगा । २१. जो व्यक्ति धर्म में दृढ़ निष्ठा रखता है, वस्तुतः वही बलवान है, वही शूरवीर है । जो धर्म में उत्साहहीन है, वह शारीरिक शक्ति से वीर एवं बलवान होते हुए भी अध्यात्म दृष्टि से न वीर है, न बलवान है । २२. जो साधक अध्यात्मभावरूप ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विनय में श्रेष्ठ हैं, वे ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ पुंडरीक कमल हैं । २३. कोई कितना ही पापात्मा हो और निश्चय ही उत्कृष्ट नरकस्थिति को प्राप्त करने वाला हो, किंतु वह भी वीतराग के उपदेश द्वारा उसी भव में मुक्तिलाभ कर सकता है । २४. धर्म भावमंगल है, इसी से आत्मा को सिद्धि प्राप्त होती है । २५. हिंसा का प्रतिपक्ष--अहिंसा है । २६. एकांत नित्यवाद के अनुसार सुख-दुःख का संयोग संगत नहीं बैठता और एकांत उच्छेदवाद = अनित्यवाद के अनुसार भी सुख-दुःख की बात उपयुक्त नहीं होती । अतः नित्यानित्यवाद ही इसका सही समाधान कर सकता है । २७. शब्द आदि विषय आत्मा को धर्म से उत्क्रमण करा देते हैं, दूर हटा देते हैं, अतः इन्हें 'काम' कहा है । २८. मिथ्यादृष्टि अज्ञानी -- चाहे वह साधु के वेष में हो या गृहस्थ के वेष में, उसका कथन 'अकथा' कहा जाता है । तप संयम आदि गुणों से युक्त मुनि सद्भावमूलक सर्व जग-जीवों के हित के लिये जो कथन करते हैं, उसे 'कथा' कहा गया है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ अडतीस सूक्ति त्रिवेणी जो संजओ पमत्तो, रागद्दोसवसगओ परिकहेइ । सा उ विकहा पवयणे, पण्णत्ता धीरपुरिसेहिं ।। --दशवै० नि० २०९-१०-११ २९. जीवाहारो भण्णइ आयारो। --दशव नि० २१५ ३०. धम्मो अत्थो कामो, भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता। जिणवयणं उत्तिन्ना, असवत्ता होंति नायव्वा । --दशव०नि० २६२ ३१. जिणवयणंमि परिणए, अवत्थविहिआणुठाणओ धम्मो । 'सच्छासयप्पयोगा अत्थो, वीसंभओ' कामो ॥ ---दशवै० नि० २६४ ३२. वयणविभत्तिअकुसलो, वओगयं बहुविहं अयाणंतो। जइ वि न भासइ किंची, न चेव वयगत्तयं पत्तो ॥ वयणविभत्ती कुसलो, वओगयं बहुविहं वियाणंतो । दिवसं पि भासमाणो, तहावि वयगुत्तयं पत्तो । --दशवै० नि० २९०.२९१ ३३. सद्देसु अ रूवेसु अ, गंधेसु रसेसु तह य फासेसु । न वि रज्जइ न वि दुस्सइ, एसा खलु इंदिअप्पणिही । -दशबै० नि० २९५ ३४. जस्स खलु दुप्पणिहिआणि इंदिआई तवं चरंतस्स । सो हीरइ असहीणेहिं सारही व तुरंगेहिं ।। -दशबै० नि० २९८ १. स्वच्छाशयप्रयोगाद् विशिष्टलोकतः, पुण्यबलाच्चार्यः । २. विश्रम्भत उचितकलत्राङ्गीकरणतापेक्षो विश्रम्भेण कामः ।। --इति हारिभद्रीया वृत्तिः । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ एक सौ उनतालीस जो संयमी होते हुये भी प्रमत्त है, वह रागद्वेष के वशवर्ती होकर जो कथा करता है, उसे 'विकथा' कहा गया है । २९. तप-संयमरूप आचार का मूल आधार आत्मा (आत्मा में श्रद्धा) ही है । ३०. धर्म, अर्थ, और काम को भले ही अन्य कोई परस्पर विरोधी मानते हों, किंतु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने के कारण परस्पर असपत्न = अविरोधी हैं । ३१. अपनी अपनी भूमिका के योग्य विहित अनुष्ठान रूप धर्म, स्वच्छ आशय से प्रयुक्त अर्थ, विस्रंभयुक्त (मर्यादानुकूल वैवाहिक नियंत्रण से स्वीकृत ) काम - जिन वाणी के अनुसार ये परस्पर अविरोधी हैं । ३२. जो वचन - कला में अकुशल है, और वचन की मर्यादाओं से अनभिज्ञ है, वह कुछ भी न बोले, तब भी 'वचनगुप्त' नहीं हो सकता । जो वचन - कला में कुशल है और वचन की मर्यादा का जानकार हैं, वह दिनभर भाषण करता हुआ भी ' वचनगुप्त' कहलाता है । ३३. शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में जिसका चित्त न तो अनुरक्त होता है और न द्वेष करता है, उसी का इन्द्रियनिग्रह प्रशस्त होता है । ३४. जिस साधक की इन्द्रियाँ, कुमार्गगामिनी हो गई हैं, वह दुष्ट घोडों के वश में पडे सारथि की तरह उत्पथ में भटक जाता है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ चालीस सूक्ति त्रिवेणी ३५. जस्स वि अ दुप्पणिहिआ होंति कसाया तवं चरंतस्स । सो बालतवस्सी वि व गयण्हाणपरिस्समं कुणइ ।। -दशव०नि० ३०० ३६. सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति । मन्नामि उच्छुफुल्लं व निप्फलं तस्स सामन्नं ।। --दशवै० नि० ३०१ ३७. खतो अ मद्दवऽज्जव विमुत्तया तह अदीणय तितिक्खा । आवस्सगपरिसुद्धी अ होंति भिक्खुस्स लिंगाई ॥ --दशवै० नि० ३४९ ३८. जो भिक्खू गुणरहिओ भिक्खं गिण्हइ न होइ सो भिक्खू । वण्णण जुत्तिसुवण्णगं व असइ गुणनिहिम्मि ।। --दशवै० नि० ३५६ ३९. जह दीवा दीवसयं, पईप्पए सो य दिप्पए दीवो। दीवसमा आयरिया, अप्पं च परं च दीवंति ।। --उत्तराध्ययन नियुक्ति, ८ ४०. जावइया ओदइया सव्वो सो बाहिरो जोगो। --उत्त० नि० ५२ ४१. आयरियस्स वि सीसो सव्वे हि वि गुणेहिं । --उत्त० नि० ५८ ४२. सुहिओ हु जणो न बुज्झई। -उत्त०नि० १३५ ४३. राइसरिसवमित्ताणि, परछिद्दाणि पाससि । अप्पणो बिल्लमित्ताणि, पासंतो वि न पाससि । -उत्त नि० १४० ४४. मज्जं विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया। इअ पंचविहो एसो होई पमाओ य अप्पमाओ ।। -उत्त० नि० १८० Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ एक सौ इकतालीस ३५. जिस तपस्वी ने कषायों को निगृहीत नहीं किया, वह बाल तपस्वी है । उसके तपरूप में किये गए सब कायकष्ट गजस्नान की तरह व्यर्थ हैं । ३६. श्रमण धर्म का अनुचरण करते हुए भी जिसके क्रोध आदि कषाय उत्कट हैं, तो उसका श्रमणत्व वैसा ही निरर्थक है, जैसा कि ईख का फूल । ३७. क्षमा, विनम्रता, सरलता, निर्लोभता, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक क्रियाओं की परिशुद्धि-ये सब भिक्षु के वास्तविक चिन्ह हैं । ३८. जो भिक्षु गुणहीन है, वह भिक्षावृत्ति करने पर भी भिक्षु नहीं कहला सकता । सोने का झोल चढ़ा देने भर से पीतल आदि सोना तो नहीं हो सकता ! ३९. जिस प्रकार दीपक स्वयं प्रकाशमान होता हुआ अपने स्पर्श से अन्य सैंकडों दीपक जला देता है, उसी प्रकार सदगुरु - आचार्य स्वयं ज्ञान ज्योति से प्रकाशित होते हैं एवं दूसरों को भी प्रकाशमान करते हैं । ४०. कर्मोदय से प्राप्त होने वाली जीवन की जितनी भी अवस्थाएँ हैं, वे सब बाह्य भाव हैं । ४१. यदि शिष्य गुणसंपन्न है, तो वह अपने आचार्य के समकक्ष माना जाता है । ४२. सुखी मनुष्य प्रायः जल्दी नहीं जग पाता । ४३. दुर्जन दूसरों के राई और सरसों जितने दोष भी देखता रहता है, किंतु अपने बिल्व (बेल) जितने बड़े दोषों को देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है । ४४. मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा ( अर्थहीन रागद्वेषवर्द्धक वार्ता ) यह पांच प्रकार का प्रमाद है । इन से विरक्त होना ही अप्रमाद है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ बियालीस सूक्ति त्रिवेणी ४५. भावंमि उ पव्वज्जा आरंभपरिग्गहच्चाओ। -उत्त० नि० २६३ ४६. अहिअत्थं निवारितो, न दोसं वत्तुमरिहसि । --उत्त० नि० २७९ ४७. भदएणव होअव्वं पावइ भदाणि भददओ। सविसो हम्मए सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुच्चइ। --उत्त० नि० ३२६ ४८. जो भिदेइ खुहं खलु, सो भिक्खू भावओ होइ । __ --उत्त० नि० ३७५ । ४९. नाणी संजमसहिओ नायव्वो भावओ समणो । --उत्त० नि० ३८९ ५०. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । --आवश्यक नियुक्ति ९२ ५१. वाएण विणा पोओ, न चएइ महण्णवं तरि उं । -आव० नि० ९५ ५२. निउणो वि जीवपोओ, तवसंजममारुअविहूणो। --आव० नि० ९६ ५३. चरणगुणविप्पहीणो, बुड्डइ सुबहुपि जाणंतो। --आव० नि० ९७ ५४. सुबहुंपि सुयमहीयं, किं काही चरणविप्पहीणस्स ? अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ।। --आव० नि० ९८ ५५. अप्पं पि सुयमहीयं, पयासयं होइ चरणजुत्तस्स । __ इक्को वि जह पईवो, सचक्खुअस्सा पयासेइ । --आव० नि० ९९ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ एक सौ तेतालीस ४५. हिंसा और परिग्रह का त्याग ही वस्तुतः भाव प्रव्रज्या है। ४६. बुराई को दूर करने की दृष्टि से यदि आलोचना की जाए, तो कोई दोष नहीं है। ४७. मनुष्य को भद्र (सरल) होना चाहिए, भद्र को ही कल्याण की प्राप्ति होती है । विषधर सांप ही मारा जाता है, निविष को कोई नहीं मारता । ४८. जो मन की भूख (तृष्णा) का भेदन करता है, वही भाव रूप में भिक्षु है। ४९. जो ज्ञानपूर्वक संयम की साधना में रत है, वही भाव (सच्चा) श्रमण ५०. तीर्थकर की वाणी अर्थ (भाव) रूप होती है और निपुण गणधर उसे सूत्र-बद्ध करते हैं। ५१. अच्छे से अच्छा जलयान भी हवा के बिना महासागर को पार नहीं कर सकता। ५२. शास्त्रज्ञान में कुशल साधक भी तप, संयम रूप पवन के विना संसार सागर को तैर नहीं सकता। ५३. जो साधक चरित्र के गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार समुद्र में डूब जाता है। ५४. शास्त्रों का बहुत-सा अध्ययन भी चरित्र-हीन के लिए किस काम का ? क्या करोड़ों दीपक जला देने पर भी अंधे को कोई प्रकाश मिल सकता है ? ५५. शास्त्र का थोड़ा-सा अध्ययन भी सच्चरित्र साधक के लिए प्रकाश देने वाला होता है। जिसकी आँखें खुली हैं, उसको एक दीपक भी काफी प्रकाश दे देता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ चौवालीस सूक्ति त्रिवेणी ५६. जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सोग्गईए॥ ---आव०नि० १०० ५७. हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो अ अंधओ ।। -आव० नि० १०१ ५८. संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा । -~-आव० नि० १०२ ५९. गाणं पयासगं, सोहओ तवो, संजमो य गुत्तिकरो । तिण्हं पि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ -आव०नि० १०३ ६०. केवलियनाणलंभो, नन्नत्थ खए कसायाणं। -आम नि० १०४ ६१. अणथोवं वणथोवं अग्गीथोवं कसायथोवं च । ण हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हु ते बहु होइ ।। -आव० नि० १२० ६२. तित्थप्पणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं । -आव०नि० ५६७ ६३. भासंतो होइ जेठो, नो परियाएण तो वन्दे । --आव० नि० ७०४ ६४. सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । --आव० नि० ८०२ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ एक सौ पैंतालीस ५६. चंदन का भार उठाने वाला गधा सिर्फ भार ढोने वाला है। उसे चंदन की सुगंध का कोई पता नहीं चलता। इसी प्रकार चरित्र-हीन ज्ञानी सिर्फ ज्ञान का भार ढोता है, उसे सद्गति प्राप्त नहीं होती। ५७. आचार-हीन ज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान-हीन आचार । जैसे वन में अग्नि लगने पर पंगु उसे देखता हुआ और अंधा दौड़ता हुआ भी आग से बच नहीं पाता, जलकर नष्ट हो जाता है। संयोगसिद्धि (ज्ञान-क्रिया का संयोग) ही फलदायी (मोक्ष रूप फल देने वाला) होता है । एक पहिए से कभी रथ नहीं चलता। जैसे अंध और पंगु मिलकर वन के दावानल से पार होकर नगर में सुरक्षित पहुँच गए, इसी प्रकार साधक भी ज्ञान और क्रिया के समन्वय से ही मुक्ति-लाभ करता है। ज्ञान प्रकाश करने वाला है, तप विशुद्धि एवं संयम पापों का निरोध करता है । तीनों के समयोग से ही मोक्ष होता है- यही जिनशासन का कथन है। ६०. क्रोधादि कषायों को क्षय किए बिना केवलज्ञान ( पूर्णज्ञान ) की प्राप्ति नहीं होती। ६१. ऋण, व्रण (घाव), अग्नि और कषाय-यदि इनका थोड़ा-सा अंश भी है, तो उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ये अल्प भी समय पर बहुत (विस्तृत) हो जाते हैं। ६२. तीर्थकर देव प्रथम तीर्थ (उपस्थित संघ) को प्रणाम करके फिर जन कल्याण के लिए लोकभाषा में उपदेश करते हैं। ६३. शास्त्र का प्रवचन (व्याख्यान) करने वाला बड़ा है, दीक्षा-पर्याय से कोई बड़ा नहीं होता। अतः पर्यायज्येष्ठ भी अपने कनिष्ठ शास्त्र के व्याख्याता को नमस्कार करें। ६४. सामायिक की साधना करता हुआ श्रावक भी श्रमण के तुल्य हो जाता है। ...१० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ छियालीस सूक्ति त्रिवेणी ६५. जो ण वि वट्टइ रागे, ण वि दोसे दोण्हमज्झयारंमि । सो होइ उ मज्झत्थो, सेसा सव्वे अमज्झत्था । -आव० नि० ८०४ ६६. दिट्ठीय दो णया खलु, ववहारो निच्छओ चेव । -आव० नि० ८१५ ६७. ण कुणइ पारत्तहियं, सो सोयइ संकमणकाले । -आव०नि० ८३७ ६८. तं तह दुल्लहलंभं, विज्जलया चंचलं माणसत्तं ।। लळूण जो पमायइ, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो । -आव० नि० ८४१ दव्वुज्जोउज्जोओ, पगासई परिमियम्मि खित्तंमि । भावुज्जोउज्जोओ, लोगालोगं पगासेइ ।। -आव० नि० १०६९ ७०. कोहंमि उ निग्गहिए, दाहस्सोवसमणं हवइ तित्थं । लोहंमि उ निग्गहिए, तण्हावुच्छेअणं होइ । -आव०नि० १०७४ ७१. जियकोहमाणमाया, जियलोहा तेण ते जिणा हुँति । अरिणो हंता, रयं हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति ।। ___ --आव० नि० १०८३ ७२. मिच्छत्तमोहणिज्जा, नाणावरणा चरित्तमोहाओ। तिविहतमा उम्मुक्का, तम्हा ते उत्तमा हुति ।। --आव० नि० ११०० ७३. जं तेहिं दायव्वं, तं दिन्नं जिणवरेहिं सव्वेहिं । दसण-नाण-चरित्तस्स, एस तिविहस्स उवएसो ॥ -आव० नि० ११०३ ७४. जह नाम महरसलिलं सायरसलिलं कमेण संपत्तं । पावेइ लोणभावं, मेलणदोसाणुभावेणं ।। एवं खु सीलवंतो, असीलवंतेहिं मीलिओ संतो। हंदि समुद्दमइगयं, उदयं लवणत्तणमुवेइ ॥ --आव०नि० ११२७-२८ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियां एक सौ सेंतालीस ६५. जो न राग करता है, न द्वेष करता है, वही वस्तुतः मध्यस्थ है, बाकी सब अंमध्यस्थ हैं। ६६. जैन-दर्शन में दो नय (विचार-दृष्टियाँ) हैं- निश्चयनय और व्यवहार नय। ६७. जो इस जन्म में परलोक की हितसाधना नहीं करता, उसे मृत्यु के समय पछताना पड़ता है। ६८. जो बड़ी मुश्किल से मिलता है, बिजली की चमक की तरह चंचल है, ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर भी जो धर्म साधना में प्रमत्त रहता है, वह कापुरुष (अधम पुरुष) ही है, सत्पुरुष नहीं । ६९. सूर्य आदि का द्रव्य प्रकाश परिमित क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है, किंतु ज्ञान का प्रकाश तो समस्त लोकालोक को प्रकाशित करता है। ७०. क्रोध का निग्रह करने से मानसिक दाह (जलन) शांत होती है, लोभ का निग्रह करने से तृष्णा शांत हो जाती है- इसलिए धर्म ही सच्चा तीर्थ है। ७१. क्रोध, मान, माया और लोभ को विजय कर लेने के कारण 'जिन' कहलाते हैं । कर्मरूपी शत्रुओं का तथा कर्म रूप रज का हनन नाश करने के कारण अरिहंत कहे जाते हैं। ७२. मिथ्यात्व-मोह, ज्ञानावरण और चारित्र-मोह-ये तीन प्रकार के तम (अंधकार) हैं । जो इन तमों-अंधकारों से उन्मुक्त है, उसे उत्तम कहा जाता है। ७३. सभी तीर्थंकरों ने जो कुछ देने योग्य था, वह दे दिया है, वह समग्र दान यही है-दर्शन, ज्ञान और चारित्र का उपदेश ! ७४. जिस प्रकार मधुर जल, समुद्र के खारे जल के साथ मिलने पर खारा हो जाता है, उसी प्रकार सदाचारी पुरुष दुराचारियों के संसर्ग में रहने के कारण दुराचार से दूषित हो जाता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ अडतालीस ७५. न नाणमित्तेण कज्जनिष्पत्ती । ७६. जाणतोऽवि य तरिउं, काइयजोगं न जुंजइ नईए । सो वुज्झइ सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो ॥ ७७. ७८. सालंबणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इ सालंबणसेवा, धारेइ जई असढभावं ॥ जह जह सुज्झइ सलिलं, तह तह रूवाई पासई दिट्ठी । इजह जह तत्तरुई, तह तह तत्तागमो होइ ॥ ८०. अइनिद्धेण विसया उइज्जति । - आव० नि० ११५१ ८२. चित्तस्सेग गया हवइ झाणं । ७९. जह दूओ रायाणं, णमिउं कज्जं निवेइउं पच्छा । वीसज्जिओ वि वंदिय, गच्छइ साहू वि एमेव ॥ - आव० नि० ११५४ सूक्ति त्रिवेणी - आव० नि० ११६३ - आव० नि० ११८० ८१. थोवाहारो थोवभणिओ य, जो होइ थोवनिद्दो य । थोवो हि उवगरणो, तस्स हु देवा वि पणमंति || - आव० नि० १२३४ - आव० नि० १२६३ ८३. अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवु त्ति एव कयबुद्धी । दुक्ख - परिकिलेसकरं, छिंद ममत्तं सरीराओ ॥ - आव० नि० १२६५ - आव० नि० १४५९ - आव० नि० १५४७ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ ७५. जान लेने मात्र से कार्य की सिद्धि नहीं हो जाती । ७७. ७६. तैरना जानते हुए भी यदि कोई जलप्रवाह में कूद कर कायचेष्टा न करे, हाथ पाँव हिलाए नहीं, तो वह प्रवाह में डूब जाता है । धर्म को जानते हुए भी यदि कोई उस पर आचरण न करे, तो वह संसारसागर को कैसे तैर सकेगा ? एक सौ उणपचास 4 जल ज्यों-ज्यों स्वच्छ होता है त्यों-त्यों द्रष्टा उसमें प्रतिबिंबित रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है । इसी प्रकार अन्तर में ज्यों-ज्यों तत्त्व रुचि जाग्रत होती है, त्यों-त्यों आत्मा तत्त्वज्ञान प्राप्त करता जाता है । ७८. किसी आलंबन के सहारे दुर्गम गर्त आदि में नीचे उतरता हुआ व्यक्ति अपने को सुरक्षित रख सकता है । इसी प्रकार ज्ञानादिवर्धक किसी विशिष्ट हेतु का आलंबन लेकर अपवाद मार्ग में उतरता हुआ सरलात्मा साधक भी अपने को दोष से बचाए रख सकता है । ७९. दूत जिस प्रकार राजा आदि के समक्ष निवेदन करने से पहले भी और पीछे भी नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य को भी गुरुजनों के समक्ष जाते और आते समय नमस्कार करना चाहिए । ८०. अतिस्निग्ध आहार करने से विषय कामना उद्दीप्त हो उठती है । ८१. जो साधक थोड़ा खाता है, थोड़ा बोलता है, थोड़ी नींद लेता है और थोड़ी ही धर्मोपकरण की सामग्री रखता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं । ८२. किसी एक विषय पर चित्त को स्थिर = एकाग्र करना, ध्यान है । " ८३. ' यह शरीर अन्य है, आत्मा अन्य है | साधक इस तत्त्वबुद्धि के द्वारा दुःख एवं क्लेशजनक शरीर की ममता का त्याग करे । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ पचास सूक्ति त्रिवेणी ८४. जे जत्तिआ अ हेउं भवस्स, ते चेव तत्तिआ मुक्खे । -ओघनियुक्ति ५३ ८५. इरिआवहमाईआ, जे चेव हवंति कम्मबंधाय । अजयाणं ते चेव उ, जयाण निव्वाणगमणाय ॥ -ओघ नि० ५४ ८६. एगंतेण निसेहो, जोगेसु न देसिओ विही वाऽवि । दलिअं पप्प निसेहो, होज्ज विही वा जहा रोगे ।। -ओघ० नि० ५५ ८७. अणुमित्तो वि न कस्सई, बंधो परवत्थुपच्चओ भणिओ। -ओघ० नि० ५७ ८८. मुत्तनिरोहेण चक्खू, वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ । -ओघ० नि० १९७ ८९. हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा तिगिच्छति अप्पाणं ते तिगिच्छगा । -ओघ० नि० ५७८ ९०. अतिरेग अहिगरणं । -ओघ० नि० ७४१ ९१. अज्झत्थविसोहीए, उवगरणं बाहिरं परिहरंतो।। अपरिग्गही त्ति भणिओ, जिणेहि तेलोक्कदरिसीहि ॥ -ओघ० नि० ७४५ ९२. अज्झत्थ विसोहीए, जीवनिकाएहिं संथडे लोए। देसियमहिंसगत्तं, जिणेहिं तेलोक्कदरिसीहिं । --ओघ० नि० ७४७ ९३. उच्चालियंमि पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी, मरिज्ज तं जोगमासज्ज । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ एक सौ इक्यावन ८४. जो और जितने हेतु संसार के हैं, वे और उतने ही हेतु मोक्ष के हैं । ८५. जो ईपिथिक (गमनागमन) आदि क्रियाएँ असंयत के लिए कर्मबंध का कारण होती हैं, वे ही यतनाशील संयत से लिए मुक्ति का कारण बन जाती ८६. जिन शासन में एकांत रूप से किसी क्रिया का न तो निषेध है और न विधान ही है । परिस्थिति को देखकर ही उनका निषेध या विधान किया जाता है, जैसा कि रोग में चिकित्सा के लिए। ८७. बाहय वस्तु के आधार पर किसी को अणुमात्र भी कर्मबंध नहीं होता। (कर्मबंध अपनी भावना के आधार पर ही होता है)। ८८. अत्यधिक मूत्र के वेग को रोकने से आँखें नष्ट हो जाती हैं और तीन मल वेग को रोकने से जीवन ही नष्ट हो जाता है । ८९. जो मनुष्य हिताहारी हैं, मिताहारी हैं और अल्पाहारी हैं, उन्हें किसी वैद्य से चिकित्सा करवाने की आवश्यकता नहीं । वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, चिकित्सक हैं। ९०. आवश्यकता से अधिक एवं अनुपयोगी उपकरण (सामग्री) अधिकरण ही (क्लेशप्रद एवं दोषरूप) हो जाते हैं । ९१. जो साधक बाहय उपकरणों को अध्यात्म विशुद्धि के लिए धारण करता है, उसे त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों ने अपरिग्रही ही कहा है। ९२. त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों का कथन है कि अनेकानेक जीवनसमूहों से परि व्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर् में अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, बाहय हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं। ९३. कभी-कभार ईर्यासमित से गतिशील साधु के पैर के नीचे भी कीट, पतंग आदि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं और दब कर मर भी जाते हैं Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ बावन सूक्ति त्रिवेणी न य तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो वि देसिओ समए । अणवज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ॥ -ओघ०नि० ७४८-४९ ९४. जो य पमत्तो पुरिसो, तस्स य जोगं पडुच्च जे सत्ता । वावज्जंते नियमा, तेसि सो हिंसओ होइ । जे वि न वावज्जती, नियमा तेसि पि हिंसओ सो उ । सावज्जो उ पओगेण, सव्वभावेण सो जम्हा ।। -ओघ० नि. ७५२-५३ ९५. आया चेव अहिंसा, आया हिंस त्ति निच्छओ एसो । जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो ॥ -ओघ०नि० ७५४ ९६. न य हिंसामेत्तेणं, सावज्जेणावि हिंसओ होइ । सुद्धस्स उ संपत्ती, अफला भणिया जिणवरेहिं ।। -ओघ० नि० ७५८ ९७. जा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निज्जरफला, अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ।। -ओघ नि० ७५९ ९८. निच्छयमवलंबंता, निच्छ यतो निच्छयं अयाणंता । नासंति चरणकरणं, बाहिरकरणालसा केइ ॥ -ओघ० नि० ७६१ ९९. सुचिरं पि अच्छमाणो, वेरुलिओ कायमणिओमीसे । न य उवेइ कायभावं, पाहन्नगुणेण नियएण ॥ -ओघ० नि० ७७२ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियां एक सौ तिरेपन परंतु उक्त हिंसा के निमित्त से उस साधु को सिद्धान्त में सूक्ष्म भी कर्मबन्ध नहीं बताया है, क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन उस हिंसाव्यापार से निर्लिप्त होने के कारण अनवद्य = निष्पाप है । ९४. जो प्रमत्त व्यक्ति है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं, वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है । परन्तु जो प्राणी नहीं मारे गये हैं, वह प्रमत्त उनका भी हिंसक ही है; क्यों कि वह अन्तर में सर्वतोभावेन हिंसावृत्ति के कारण सविद्य है, पापात्मा है। ९५. निश्चय दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा । जो प्रमत्त है, वह हिंसक है और जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक । ९६. केवल बाहर में दृश्यमान पापरूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता। यदि साधक अन्दर में राग द्वेष से रहित शुद्ध है, तो जिनेश्वर देवों ने उसकी बाहर की हिंसा को कर्मबंध का हेतु न होने से निष्फल बताया है। ९७. जो यतनावान् साधक अन्तरंग-विशुद्धि से युक्त है, और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा होने वाली विराधना (हिंसा) भी कर्मनिर्जरा का कारण है। ९८. जो निश्चयदृष्टि के आलम्बन का आग्रह तो रखते हैं, परन्तु वस्तुतः उसके सम्बन्ध में कुछ जानते-बूझते नहीं हैं। वे सदाचार की व्यवहारसाधना के प्रति उदासीन हो जाते हैं, और इस प्रकार सदाचार को ही मूलतः नष्ट कर डालते हैं । ९९. वैडूर्यरत्न काच की मणियों में कितने ही लम्बे समय तक क्यों न मिला रहे, वह अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण रत्न ही रहता है, कभी काच नहीं होता। (सदाचारी उत्तम पुरुष का जीवन भी ऐसा ही होता है ।) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ च उपन सूक्ति त्रिवेणी १००. जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं व उज्जुयं भणइ । तं तह आलोएज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ । --ओघ० नि० ८०१ १०१. उद्धरिय सव्वसल्लो, आलोइय निदिओ गुरुसगासे । होइ अतिरेगलहुओ, ओहरियभरो व्व भारवहो । --ओघ० नि० ८०६ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ एक सौ पचपन १००. बालक जो भी सचित या अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरल भाव से कह देता है । इसी प्रकार साधक को भी गुरुजनों के समक्ष दंभ और अभिमान से रहित होकर यथार्थ आत्मालोचन करना चाहिए । १०१. जो साधक गुरुजनों के समस्त मन के शल्यों (कांटों) को निकाल कर आलोचना, निंदा ( आत्मनिंदा) करता है, उसकी आत्मा उसी प्रकार हलकी हो जाती है, जैसे शिर का भार उतार देने पर भारवाहक । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियाँ १. तह ववहारेण विणा, ३. ४. ६. परमत्थुवएसणमसक्कं । भूयत्थमस्सिदो खलु, सम्माइट्ठी हवइ जीवो । ववहारणयो भासदि, जीवो देहो य हवदि खलु इक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो, देहो य कदापि एकट्ठो ॥ णयरम्मि वणिदे जह ण वि, देहगुणे रणो वण्णणा कदा होदि । थुव्वंते, ण केवलिगुणा थुदा होंति ॥ उवओग एव अहमिक्को । समयसार, ८ 'अहमिक्को खलु सुद्धो, दंसणणाणमइयो सदा रूवी । ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि, अण्णं परमाणुमित्तंपि ॥ समय ० ११ -समय० २७ -समय० ३० समय० ३७ - समय० ३८ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियां १. व्यवहार (नय) के विना परमार्थ (शुद्ध आत्म-तत्त्व) का उपदेश करना अशक्य है। २. जो भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ-शुद्ध दृष्टि का अवलम्बन करता है, वही सम्यग्दृष्टि है। ३. व्यवहार नय से जीव (आत्मा) और देह एक प्रतीत होते हैं, किंतु निश्चय दृष्टि से दोनों भिन्न हैं, कदापि एक नहीं हैं। ४. जिस प्रकार नगर का वर्णन करने से राजा का वर्णन नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के गुणों का वर्णन करने से शुद्धात्मस्वरूप केवलज्ञानी के गुणों का वर्णन नहीं हो सकता। ५. मैं (आत्मा) एक मात्र उपयोगमय = ज्ञानमय हूँ। ६. आत्म-द्रष्टा विचार करता है कि- " मैं तो शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वरूप, सदा काल अमूर्त, एक शुद्ध शाश्वत तत्त्व हूँ। परमाणु मात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है।" Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ अट्ठावन सूक्ति त्रिवेणी ७. णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करोदि । वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ।। --समय० ८३ ८. अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि । --समय० ९२ ९. कम्ममसुहं कुसीलं, सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि ।। -समय० १४५ १०. रत्तो बंधदि कम्मं, मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो।। --समय० १५० ११. वदणियमाणि धरता, सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । परमट्ठबाहिरा जे, णिव्वाणं ते ण विदंति ।। -समय० १५३ १२. जह कणयमग्गितवियं पि, ___कणयभावं ण तं परिच्चयइ । तह कम्मोदयत्तविदो, ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ॥ --समय०१८४ १३. पक्के फलम्हि पडिए, जह ण फलं बज्झए पुणो विटे । जीवस्स कम्मभावे, पडिए ण पुणोदयमुवेइ ।। ---समय०१६८ १४. सुद्धं तु वियाणंतो, सुद्धं चेवप्पयं लहइ जीवो। जाणतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहइ ।। -समय० १८६ १५. जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं । --समय० १९३ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियाँ एक सौ उनसठ ७. निश्चय दृष्टि से तो आत्मा अपने को ही करता है, और अपने को ही भोगता है। ८. अज्ञानी आत्मा ही कर्मों का कर्ता होता है । ९. अशुभ कर्म बुरा (कुशील) और शुभ कर्म अच्छा (सुशील) है, यह साधा रण जन मानते हैं। किंतु वस्तुतः जो कर्म प्राणी को संसार में परिभ्रमण कराता है, वह अच्छा कैसे हो सकता है ? अर्थात शुभ या अशुभ सभी कर्म अन्ततः हेय ही हैं। १०. जीव रागयुक्त होकर कर्म बांधता है और विरक्त होकर कर्मों से मुक्त होता है। ११. भले ही व्रत नियम को धारण करे, तप और शील का आचरण करे. किंतु जो परमार्थरूप आत्मबोध से शून्य है, वह कभी निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता। १२. जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि से तप्त होने पर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता, वैसे ही ज्ञानी भी कर्मोदय के कारण उत्तप्त होने पर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते। १३. जिस प्रकार पका हुआ फल गिर जाने के बाद पुन: वृन्त से नहीं लग सकता, उसी प्रकार कर्म भी आत्मा से वियुक्त होने के बाद पुन: आत्मा (वीतराग) को नहीं लग सकते। १४. जो अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है, वह शुद्ध भाव को प्राप्त करता है, और जो अशुद्ध रूप का अनुभव करता है, वह. अशुद्ध भाव को प्राप्त होता है। १५. सम्यक् दृष्टि आत्मा जो कुछ भी करता है, वह उसके कर्मों की निर्जरा के लिए ही होता है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ साठ सूक्ति त्रिवेणी १६. जह विसमुव जंतो, वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि । पुग्गलकम्मस्सुदयं, तह भुंजदि णेव बज्झए णाणी । -समय० १९५ १७. सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई । --समय० १९७ १८. अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो। . -समय० २१२ १९. णाणी रागप्पजहो, सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो । णो लिप्पइ रजएण दु, कद्दममझे जहा कणयं ।।। अण्णाणी पुण रत्तो, सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो । लिप्पदि कम्मरएण दु, कद्दममज्झे जहा लोहं । -समय० २१८-२१९ २०. जो अप्पणा दु मण्णदि, दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेति । सो मूढो अण्णाणी, णाणी एत्तो दु विवरीदो ।। -समय० २५३ २१. ण य वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोत्थि । -समय० २६५ २२. आदा खु मज्झ णाणं, आदा मे दसणं चरित्तं च । -समय० २७७ २३. कह सो घिप्पइ अप्पा ? पण्णाए सो उ घिप्पए अप्पा । -समय २९६ २४. जो ण कुणइ अवराहे, सो णिस्संको दु जणवए भमदि । --समय० ३०२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियां एक सौ इकसठ १६. जिस प्रकार वैद्य (औषध रूप में) विष खाता हुआ भी विष से मरता नहीं, उसी प्रकार सम्यक् दृष्टि आत्मा कर्मोदय के कारण सुख-दुःख का अनुभव करते हुए भी उनसे बद्ध नहीं होता । १७. ज्ञानी आत्मा (अंतर में रागादि का अभाव होने के कारण) विषयों का सेवन करता हुआ भी, सेवन नहीं करता। अज्ञानी आत्मा (अन्तर में रागादि का भाव होने के कारण) विषयों का सेवन नहीं करता हुआ भी, सेवन करता है। १८. वास्तव में अनिच्छा (इच्छामुक्ति) को ही अपरिग्रह कहा है । १९. जिस प्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ सोना कीचड़ से लिप्त नहीं होता, उसे जंग नहीं लगता है, उसी प्रकार ज्ञानी संसार के पंदार्थसमूह में विरक्त होने के कारण कर्म करता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता। किंतु जिस प्रकार लोहा कीचड़ में पड़कर विकृत हो जाता है, उसे जंग लग जाता है, उसी प्रकार अज्ञानी पदार्थों में राग भाव रखने के कारण कर्म करते हुए विकृत हो जाता है, कर्म से लिप्त हो जाता है । २०. जो ऐसा मानता है कि " मैं दूसरों को दुःखी या सुखी करता हूँ"-वह वस्तुतः अज्ञानी है । ज्ञानी ऐसा कभी नहीं मानते । २१. कर्मबंध वस्तु से नहीं, राग और द्वेष के अध्यवसाय-संकल्प से होता २२. मेरा अपना आत्मा ही ज्ञान (ज्ञानरूप) है, दर्शन है और चारित्र है। २३. यह आत्मा किस प्रकार जाना जा सकता है ? आत्मप्रज्ञा अर्थात् भेदविज्ञान रूप बुद्धि से ही जाना जा सकता है। २४. जो किसी प्रकार का अपराध नहीं करता, वह निर्भय होकर जनपद में भ्रमण कर सकता है । इसी प्रकार निरपराध = निर्दोष आत्मा (पाप नहीं करने वाला) भी सर्वत्र निर्भय होकर विचरता है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ बासठ सूक्ति त्रिवेणी २५. ण मुयइ पयडिमभव्वो, सुठ्ठ वि अज्झाइऊण सत्थाणि । गुडदुद्धं पि पिबंता, ण पण्णया णिव्विसा हुति । --समय० ३१७ २६. सत्थं णाणं ण हवइ, जम्हा सत्थं ण याणए किंचि । तम्हा अण्णं णाणं, अण्णं सत्यं जिणा बिति ।। -समय० ३९० २७. चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥ --प्रवचनसार ११७ २८. आदा धम्मो मुणेदव्वो। --प्रवचन० ११८ २९. जीवो परिणमदि जदा, सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । सुद्धेण तदा सुद्धो, हवदि हि परिणामसब्भावो। -प्रवचन० ११९ ३०. णत्थि विणा परिणामं, अत्थो अत्थं विणेह परिणामो। --प्रवचन० ११० ३१. समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ।। -प्रवचन० १११४ ३२. आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाणमद्दिठें। णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।। -प्रवचन० ११२३ ३३. तिमिरहरा जइ दिट्ठी, जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं । तह सोक्खं सयमादा, विसया किं तत्थ कुव्वंति ? -प्रवचन० ११६७ ३४. सपरं बाधासहियं, विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इन्दियेहिं लद्धं, तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥ -प्रचचन० ११७६ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियां एक सौ तिरेसठ २५. अभव्य जीव चाहे कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर ले, किंतु फिर भी वह अपनी प्रकृति (स्वभाव) नहीं छोडता । सांप चाहे कितना ही गुड-दूध पी ले, किंतु अपना विषेला स्वभाव नहीं छोडता । २६. शास्त्र, ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्र स्वयं में कुछ नहीं जानता है। इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य है । २७. चारित्र ही वास्तव में धर्म है, और जो धर्म है, वह समत्व है । मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का अपना शुद्ध परिणमन ही समत्व है । २८. आत्मा ही धर्म है, अर्थात् धर्म आत्मस्वरूप होता है । २९. आत्मा परिणम स्वभाव वाला है, इसलिए जब वह शुभ या अशुभ भाव में परिणत होता है, तब वह शुभ या अशुभ हो जाता है । और, जब शुद्ध भाव में परिणत होता है, तब वह शुद्ध होता है । ३०. कोई भी पदार्थ विना परिणमन के नहीं रहता है, और परिणमन भी विना पदार्थ के नहीं होता है। ३१. जो सुख-दुख में समान भाव रखता है, वही वीतराग श्रमण शुद्धोपयोगी कहा गया है। ३२. आत्मा ज्ञानप्रमाण (ज्ञान जितना) है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण (ज्ञेय जितना) है, और ज्ञेय लोकालोकप्रमाण है, इस दृष्टि से ज्ञान सर्वव्यापी हो जाता है। ३३. जिसकी दृष्टि ही स्वयं अंधकार का नाश करने वाली है, उसे दीपक क्या प्रकाश देगा? इसी प्रकार जब आत्मा स्वयं सुख-रूप है, तो उसे विषय क्या सुख देंगे। ३४. जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह पराश्रित, बाधासहित, विच्छिन्न, बंध का कारण तथा विषम होने से वस्तुतः सुख नहीं, दुःख ही है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ चौंसठ सूक्ति त्रिवेणी ३५. किरिया हि णत्थि अफला, धम्मो जदि णिप्फलो परमो । --प्रवचन० २।२४ ३६. असुहो मोह-पदोसो, सुहो व असुहो हवदि रागो।। --प्रवचन० २।८८ ३७. कीरदि अज्झवसाणं, अहं ममेदं ति मोहादो।। --प्रवचन० २।९१ ३८. मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥ --प्रवचन० ३११७ ३९. चरदि जदं जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो । --प्रवचन० ३।१८ ४०. ण हि णिरवेक्खो चागो, ____ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी । अविसुद्धस्स हि चित्ते, कहं णु कम्मक्खओ होदि । -प्रवचन० ३२० ४१. इहलोगणिरावेक्खो, अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि । जुत्ताहार-विहारो, रहिदकसाओ हवे समणो ।। --प्रवचन० ३।२६ ४२. जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा । अणं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥ -प्रवचन० ३१२७ ४३. आगमहीणो समणो, णेवप्पाणं परं वियाणादि । --प्रवचन० ३३२ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियाँ एक सौ पैंसठ ३५. संसार की कोई भी मोहात्मज क्रिया निष्फल (बंधनरहित) नहीं है, एक मात्र धर्म ही निष्फल है, अर्थात स्व-स्वभाव रूप होने से बन्धन का हेतु नहीं है। ३६. मोह और द्वेष अशुभ ही होते हैं। राग शुभ और अशुभ दोनों होता है। ३७. मोह के कारण ही मैं और मेरे का विकल्प होता है । ३८. बाहर में प्राणी मरे या जीये, अयताचारी-प्रमत्त को अन्दर में हिंसा निश्चित है परन्तु जो अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, समितिवाला है, उसको बाहर में प्राणी की हिंसा होने मात्र से कर्मबन्ध नहीं है, अर्थात् वह हिंसा नहीं है। ३९. यदि साधक प्रत्येक कार्य यतना से करता है, तो वह जल में कमल की भांति निर्लेप रहता है। ४०. जब तक निरपेक्ष त्याग नहीं होता है, तब तक साधक की चित्तशुद्धि नहीं होती है और जब तक चित्तशुद्धि (उपयोग की निर्मलता) नहीं होती है, तब तक कर्मक्षय कैसे हो सकता है ? ४१. जो कषायरहित है, इस लोक से निरपेक्ष है, परलोक में भी अप्रतिबद्ध -अनासक्त है, और विवेकपूर्वक आहार-विहार की चर्या रखता है, वही सच्चा श्रमण है। ४२. परवस्तु की आसक्ति से रहित होना ही, आत्मा का निराहाररूप वास्तविक तप है। अस्तु, जो श्रमण भिक्षा में दोषरहित शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह निश्चय दृष्टि से अनाहार (तपस्वी) ही है। ४३. शास्त्रज्ञान से शून्य श्रमण न अपने को जान पाता है, न पर को। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ छियासठ सूक्ति त्रिवेणी ४४. आगम चक्खू साहू, इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि । --प्रवचन० ३।३४ ४५. जं अण्णाणी कम्म, खवेदि भवसयसहस्स-कोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥' --प्रवचन०३।३८ ४६. कत्ता भोत्ता आदा, पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो। नियमसार १८ ४७. जारिसिया सिद्धप्पा, भवमल्लिय जीव तारिसा होति । --नियम० ४७ ४८. झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । तम्हा दु झाणमेव हि, सव्वदिचारस्स पडिकमणं ॥ ---नियम० ९३ ४९. केवलसत्तिसहावो, सोहं इदि चिंतए णाणी । --नियम० ९६ ५०. आलंबणं च मे आदा । --नियम० ९९ ५१. एगो मे सासदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥२ -नियम० १०२ ५२. सम्मं मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झ न केणइ । -नियम० १०४ ५३. कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो । -नियम० ११० १. महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक, १०१ २. आतुर प्रत्याख्यान प्रकीर्णक, २६ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियाँ एक सौ सडसठ ४४. अन्य सब प्राणी इंद्रियों की आँख वाले हैं, किन्तु साधक आगम की आँख वाला है। ४५. अज्ञानी साधक बाल-तप के द्वारा लाखों-करोड़ों जन्मों में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म मन, वचन, काया को संयत रखने वाला ज्ञानी साधक एक श्वास मात्र में खपा देता है। ४६. आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता है, यह मात्र व्यवहार दृष्टि ४७. जैसी शुद्ध आत्मा सिद्धों (मुक्त आत्माओं) की है, मूल स्वरूप से वैसी ही शुद्ध आत्मा संसारस्थ प्राणियों की है। ४८. ध्यान में लीन हुआ साधक सब दोषों का निवारण कर सकता है। इसलिए ध्यान ही समग्र अतिचारों (दोषों) प्रतिक्रमण है । ४९. "मैं केवल शक्तिस्वरूप हूँ" ज्ञानी ऐसा चिंतन करे । ५०. मेरा अपना आत्मा ही मेरा अपना एकमात्र आलंबन है। ५१. ज्ञान -दर्शन स्वरूप मेरा आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है, इससे भिन्न जितने भी (राग, द्वेष, कर्म, शरीर आदि) भाव हैं, वे सब संयोग जन्य बाह्य भाव हैं, अतः वे मेरे नहीं हैं। ५२. सब प्राणियों के प्रति मेरा एक जैसा समभाव है, किसीसे मेरा वैर नहीं ५३. कर्मवृक्ष के मूल को काटने वाला आत्मा का अपना ही निजभाव (समत्व है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ अडसठ सूक्ति त्रिवेणी ५४. जो झायइ अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स ।। --नियम० १२३ ५५. अन्तर-बाहिरजप्पे, जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा । जप्पेसु जो ण वट्टइ, सो उच्चइ अंतरंगप्पा ॥ -नियम० १५० ५६. अप्पाणं विणु णाणं, णाणं विणु अप्पगो न संदेहो। -नियम० १७१ ५७. दव्वं सल्लक्खणयं उपादव्वयधुवत्ततंजुत्तं । -पंचास्तिकाय १० ५८. दवेण विणा न गुणा, गुणेहि दव्वं विणा न संभवदि । -पंचास्ति० १३ ५९. भावस्स णत्थि णासो, गस्थि अभावस्स चेव उप्पादो। --पंचास्ति०१५ ६०. चारित्तं समभावो। --पंचास्ति० १०७ ६१. सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावं ति हवदि जीवस्स । ---पंचास्ति० १३२ ६२. रागो जस्स पसत्थो, अणुकंपासंसिदो य परिणामो । चित्तम्हि पत्थि कलुसं, पुण्णं जीवस्स आसवदि ॥ ___ --पंचास्ति० १३५ ६३. चरिया पमादबहुला, कालुस्सं लोलदा य विसयेसु । परपरितावपवादो, पावस्स य आसवं कुणदि । --पंचास्ति० १३९ ६४. जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदन्वेसु । णासवदि सुहं असुह, समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ॥ -पंचास्ति० १४२ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियाँ एक सौ उनहत्तर ५४. जो अपनी आत्मा का ध्यान करता है, उसे परम समाधि की प्राप्ति होती है । ५५. जो अन्दर एवं बाहिर के जल्प ( वचनविकल्प ) में रहता है, वह बहिरात्मा है, और जो किसी भी जल्प में नहीं रहता, वह अन्तरात्मा कहलाता है । ५६. यह निश्चित सिद्धान्त है कि आत्मा के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के विना आत्मा नहीं । ५७. द्रव्य का लक्षण सत् है, और वह सदा उत्पाद्, व्यय एवं ध्रुवत्व भाव से युक्त होता है । ५८. द्रव्य के विना गुण नहीं होते हैं और गुण के विना द्रव्य नहीं होते । ५९. भाव ( सत् ) का कभी नाश नहीं होता और अभाव (असत्) का कभी उत्पाद (जन्म) नहीं होता । ६०. समभाव ही चारित्र है । ६१. आत्मा का शुभ परिणाम (भाव) पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है । ६२. जिसका राग प्रशस्त है, अन्तर में अनुकंपा की वृत्ति है और मन में कलुष भाव नहीं है, उस जीव को पुण्य का आस्रव होता है । ६३. प्रमादबहुल चर्या, मन की कलुषता, विषयों के प्रति लोलुपता, परपरिताप ( परपीडा ) और परनिंदा - इनसे पाप का आस्रव ( आगमन ) होता है । ६४. जिस साधक का किसी भी द्रव्य के प्रति राग, द्वेष और मोह नहीं है जो सुख-दुःख में समभाव रखता है, उसे न पुण्य का आश्रव होता है और न पाप का । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ सत्तर सूक्ति त्रिवेणी ६५. दंसणमूलो धम्मो। -दर्शन पाहुड, २ ६६. देसणहीणो ण वंदिव्वो। -दर्शन० २ ६७. तस्स य दोस कहंता, भग्गा भग्गत्तणं दिति । -दर्शन० ९ ६८. मूलविणट्ठा ण सिझंति । -दर्शन० १० ६९. अप्पाणं हवइ सम्मत्तं । --दर्शन० २० ७०. सोवाणं पढम मोक्खस्स । --दर्शन० २१ ७१. णाणं णरस्स सारो। -दर्शन० ३१ ७२. हेयाहेयं च तहा, जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी । --सूत्रपाहुड ५ ७३. गाहेण अप्पगाहा, समुद्दसलिले सचेल-अत्थेण । -सूत्र० २७ ७४. जं देइ दिक्ख सिक्खा, कम्मक्खयकारणे सुद्धा । -बोध पाहुड १६ ७५. धम्मो दयाविसुद्धो। --बोध० २५ ७६. तणकणए समभावा, पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। -बोध० ४७ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियां एक सौ इकहत्तर ६५. धर्म का मूल दर्शन-(सम्यक्श्रद्धा) है । ६६. जो दर्शन से हीन- (सम्यक्-श्रद्धा से रहित, या पतित) है, वह वन्दनीय नहीं है। ६७. धर्मात्मा पुरुष के प्रति मिथ्या दोष का आरोप करने वाला, स्वयं भी भ्रष्ट-पतित होता है और दूसरों को भी भ्रष्ट-पतित करता है । ६८. सम्यक्त्व रूप मूल के नष्ट हो जाने पर मोक्षरूप फल की प्राप्ति नहीं होती। ६९. निश्चय दृष्टि से आत्मा ही सम्यक्त्व है। ७०. सम्यक् दर्शन ( सम्यक्-श्रद्धा) मोक्ष की पहली सीढ़ी है । ७१. ज्ञान मनुष्य-जीवन का सार है । ७२. जो हेय और उपादेय को जानता है, वही वास्तव में सम्यक्-दृष्टि है । ७३. ग्राह्य वस्तु में से भी अल्प (आवश्यकतानुसार) ही ग्रहण करना चाहिए। जैसे समुद्र के अथाह जल में से अपने वस्त्र धोने के योग्य अल्प ही जल ग्रहण किया जाता है। ७४. आचार्य वह है-जो कर्म को क्षय करने वाली शुद्ध दीक्षा और शुद्ध शिक्षा देता है। ७५. जिसमें दया की पवित्रता है, वही धर्म है। ७६. तृण और कनक (सोना) में जब समान बुद्धि रहती है तभी उसे प्रव्रज्या (दीक्षा) कहा जाता है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ बहत्तर सूक्ति त्रिवेणी ७७. जह णवि लहदि हु लक्खं, रहिओ कंडस्स वेज्झयविहीणो। तह णवि लक्खदि लक्खं, ___ अण्णाणी मोक्खमग्गस्स ।। -बोध० २१ ७८. भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिणा बिति । -भाव पाहुड २ ७९. भावरहिओ न सिज्झइ । -भाव० ४ ८०. बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स । -भाव० १३ ८१. अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। -भाव० ३१ ८२. दुज्जणवयणचडक्कं, णिठुर कडुयं सहति सप्पुरिसा । -भाव० १०७ ८३. परिणामादो बंधो, मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो। -भाव० ११६ ८४. छिदंति भावसमणा , झाणकुठारेहिं भवरुक्खं । -भाव. १२२ ८५. तह रायानिलरहिओ, झाणपईवो वि पज्जलई । -भाव० १२३ ८६. उत्थरइ जा ण जरओ, रोयग्गी जा ण डहइ देहउडि । इन्दियबलं न वियलइ, ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ॥ -भाव० १३२ ८७. जीवविमुक्को सवओ, दंसणमुक्को य होइ चलसवओ। सवओ लोयअपुज्जो, लोउत्तरयम्मि चलसवओ ॥ -भाव०१४ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियाँ एक सौ तिहत्तर ७७. जिस प्रकार धनुर्धर बाण के बिना लक्ष्य वेध नहीं कर सकता है, उसी प्रकार साधक भी बिना ज्ञानके मोक्ष के लक्ष्यको नहीं प्राप्त कर सकता। ७८. गुण और दोष के उत्पन्न हाने का कारण भाव ही है। ७९. भाव (भावना) से शून्य मनुष्य कभी सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता । ८०. जिस के आभ्यन्तर में ग्रन्थि (परिग्रह) है, उसका बाहय त्याग व्यर्थ है। ८१. जो आत्मा, आत्मा में लीन है, वही वस्तुतः सम्यक् दृष्टि है । ८२. सज्जन पुरुष, दुर्जनों के निष्ठुर अर कठोर वचन रूप चपेटों को भी समभाव पूर्वक सहन करते हैं। ८३. परिणाम (भाव) से ही बंधन और परिणाम से ही मोक्ष होता है, ऐसा जिनशासन का कथन हैं। ८४. जो भाव से श्रमण हैं, वे ध्यानरूप कुठार से भव-वृक्ष को काट डालते हैं। ८५. हवा से रहित स्थान में जैसे दीपक निविघ्न जलता रहता है, वैसे ही राग की वायु से मुक्त रहकर (आत्ममंदिर में) ध्यान का दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है। ८६. जब तक बुढापा आक्रमण नहीं करता है, रोगरूपी अग्नि देह रूपी झौंपडी को जलाती नहीं है, इन्द्रियों की शक्ति विगलित-क्षीण नहीं होती है, तब आत्म-हित के लिए प्रयत्न कर लो। ८७. जीव से रहित शरीर शव (मुर्दा-लाश) है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति चलता-फिरता 'शव' है । शव लोक में अनादरणीय (त्याज्य) होता है, और वह चलशव लोकोत्तर अर्थात् धर्म-साधना के क्षेत्र में अनादरणीय और त्याज्य रहता है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ चौहत्तर सूक्ति त्रिवेणी ८८. अप्पो वि य परमप्पो, कम्मविमुक्को य होइ फुडं । -भाव० १५१ ८९. दुक्खे णज्जइ अप्पा । -मोक्ष पाहुड ६५ ९०. तिपयारो सो अप्पा, परमंतरबाहिरो दु हेऊणं । -मोक्ष०४ ९१. अक्खाणि बहिरप्पा, अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो । -मोक्ष० ५ ९२. जो सुत्तो ववहारे, सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे, सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ।। -मोक्ष० ३१ ९३. आदाहु मे सरणं । -मोक्ष० १०५ ९४. सीलेण विणा विसया, णाणं विणासंति । -शोल पाहुड २ ९५. गाणं चरित्तसुद्धं....थोओ पि महाफलो होई । -शोल० ६ ९६. सीलगुणवज्जिदाणं, णिरत्थयं माणुसं जम्म । - शील० १५ . ९७. जीवदया दम सच्चं, अचोरियं बंभचेर संतोसे । सम्मइंसण-णाणे, तओ य सीलस्स परिवारो। ९८. सीलं मोक्खस्स सोवाणं । -शोल० १९ -शील० २० ९९. सीलं विसयविरागो। -शील. ४० Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियां एक सौ पचहत्तर आत्मा जब कर्म - मल से मुक्त हो जाता है, तो वह परमात्मा बन जाता है । ८९. आत्मा बड़ी कठिनता से जाना जाता है । ८८. ९०. आत्मा के तीन प्रकार हैं- परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा । ( इनमें बहिरात्मा से अन्तरात्मा, और अन्तरात्मा से परमात्मा की ओर बढें ) । ९१. इन्द्रियों में आसक्ति बहिरात्मा है, और अन्तरंग में आत्मानुभव रूप आत्मसंकल्प अन्तरात्मा है । ९२. जो व्यवहार (संसार) के कार्यों में मोता ( उदासीन ) है, वह योगी स्वकार्य में जागता (सावधान) है । और जो व्यवहार के कार्यों में जागता है, वह आत्मकार्यों में सोता है । ९३. आत्मा ही मेरा शरण है । ९४. शील ( आचार) के विना इन्द्रियों के विषय, ज्ञान को नष्ट कर देते हैं । ९५. चारित्र से विशुद्ध हुआ ज्ञान यदि अल्प भी है, तब भी वह महान फल देने वाला है । ९६. शीलगुण से रहित व्यक्ति का मनुष्य जन्म पाना निरर्थक ही है । ९७. जीवदया, दम, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यक् दर्शन, ज्ञान और तप - यह सब शील का परिवार है । अर्थात् शील के अंग हैं । ९८. शील ( सदाचार) मोक्ष का सोपान है । ९९. इन्द्रियों के विषयों से विरक्त रहना, शील है । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ १. गुणसुठ्ठियस्स वयणं, घयपरिसित्तु व्व पावओ भाइ । गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो । -बहत्कल्पभाष्य २४५ २. को कल्लाणं निच्छइ । -बृह० भा० २४७ ३. जो उत्तमेहिं पहओ, मग्गो सो दुग्गमो न सेसाणं । -बृह. भा० २४९ ४. जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुँति अववाया । जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ।। -बृह० भा० ३२२ ५. अंबत्तणेण जीहाइ कूइया होइ खीरमुदगम्मि। हंसो मोत्तूण जलं, आपियइ पयं तह सुसीसो ॥ -बृह० भा० ३४७ ६. मसगो व्व तुदं जच्चाइएहिं निच्छुब्भइ कुसीसो वि । --बृह० भा० ३५० ७. अद्दागसमो साहू। ---बह० भा० ८१२ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ १. गुणवान व्यक्ति का वचन घृतसिंचित अग्नि की तरह तेजस्वी होता है, जब कि गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेह-रहित (तैलशून्य) दीपक की तरह तेज और प्रकाश से शून्य होता है । २. संसार में कौन ऐसा है, जो अपना कल्याण न चाहता हो ? 3. जो मार्ग महापुरुषों द्वारा चलकर प्रहत् = सरल बना दिया गया है, वह अन्य सामान्य जनों के लिए दुर्गम नहीं रहता । ४. जितने उत्सर्ग (निषेध - वचन) हैं, उतने ही उनके अपवाद ( विधि-वचन ) भी हैं । और जितने अपवाद हैं, उतने ही उत्सर्ग भी हैं । ५. हंस जिस प्रकार अपनी जिह्वा की अम्लता शक्ति के द्वारा जलमिश्रित दूध में से जल को छोड़कर दूध को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार सुशिष्य दुर्गुणों को छोड़कर सद्गुणों को ग्रहण करता है । ६. जो कुशिष्य गुरु को जाति आदि की निन्दा द्वारा, मच्छर की तरह हर समयं तंग करता रहता है, वह मच्छर की तरह ही भगा दिया जाता है । ७. साधु को दर्पण के समान निर्मल होना चाहिए । ...१२ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ अठहत्तर सूक्ति त्रिवेणी ८. पावाणं जदकरणं, तदेव खलु मंगलं परमं । --बृह० भा० ८१४ ९. रज्जं विलुत्तसारं जह, तह गच्छो वि निस्सारो। -बृह० भा० ९३७ १०. जह ण्हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे । सुठु वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ । --बृह० भा० ११४७ ११. न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झाय समं तवोकम्मं । --बृह० भा० ११६९ १२. जो वि पगासो बहुसो, गुणिओ पच्चक्खओ न उवलद्धो । जच्चंधस्स व चंदो, फुडो वि संतो तहा स खलु ॥ -बृह० भा० १२२४ १३. कत्थ व न जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होइ ? कत्थ वरलक्खणधरा, न पायडा होंति सप्पुरिसा ॥ -बृह० भा० १२४५ १४. सुक्किधणम्मि दिप्पइ अग्गी, मेहरहिओ ससी भाइ । तविहजणे य निउणे, विज्जा पुरिसा वि भायंति ॥ --बृह० भा० १२४७ १५. को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए । दुठे वि उ जो आसे, दमेइ तं आसियं बिति ॥ --बृह० भा० १२७५ १६. माई अवन्नवाई, किदिवसियं भावणं कुव्वइ । -बृह० भा० १३०२ १७. काउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ। -बृह० भा० १३१९ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियां __ एक सौ उनाअसी ८. पाप कर्म न करना ही वस्तुतः परम मंगल है । ९. राजा के द्वारा ठीक तरह से देख-भाल किए विना जैसे कि राज्य ऐश्वर्य हीन हो जाता है, वैसे ही आचार्य के द्वारा ठीक तरह से संभाल किए विना संघ भी श्रीहीन हो जाता है। १०. जिस प्रकार हाथी स्नान करके फिर बहुत-सी धूल अपने ऊपर डाल लेता है, वैसे ही अज्ञानी साधक साधना करता हुआ भी नया कर्ममल संचय करता जाता है। ११. स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कभी हुआ, न वर्तमान में कहीं है, और न भविष्य में कभी होगा। १२. शास्त्र का बार-बार अध्ययन कर लेने पर भी यदि उसके अर्थ की साक्षात् स्पष्ट अनुभूति न हुई हो, तो वह अध्ययन वैसा ही अप्रत्यक्ष रहता है, जैसा कि जन्मांध के समक्ष चंद्रमा प्रकाशमान होते हुए भी अप्रत्यक्ष ही रहता है। १३. अग्नि कहाँ नहीं जलती है ? चन्द्रमा कहाँ नहीं प्रकाश करता है ? और श्रेष्ठ लक्षणों (गुणों) से युक्त सत्पुरुष कहाँ नहीं प्रतिष्ठा पाते हैं ? अर्थात् सर्वत्र पाते हैं। १४. सूखे ईंधन में अग्नि प्रज्वलित होती है, बादलों से रहित स्वच्छ आकाश में चन्द्र प्रकाशित होता है, इसी प्रकार चतुर लोगों में विद्वान् शोभा (यश) पाते हैं। १५. उस आश्विक (घुड़ सवार) का क्या महत्त्व है, जो सीधे-सादे घोड़ों को काबू में करता है ? वास्तव में घुड़सवार तो उसे कहा जाता है, जो दुष्ट (अड़ियल) घोडों को भी काबू में किए चलता है। १६. जो मायावी है, और सत्पुरुषों को निंदा करता है, वह अपने लिए किल्वि षिक भावना (पापयोनि की स्थिति) पैदा करता है। १७. अपने द्वारा किसी प्राणी को कष्ट पहुंचने पर भी, जिसके मन में पश्चात्ताप नहीं होता, उसे निष्कृप-निर्दय कहा जाता है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ अस्सी सूक्ति त्रिवेणी १८. जो उ परं कंपंतं, दळूण न कंपए कढिणभावो। एसो उ निरणुकंपो, अणु पच्छाभावजोएणं ।। -बृह० भा० १३२० १९. अप्पाहारस्स न इंदियाई, विसएसु संपत्तंति ।। नेव किलम्मइ तवसा, रसिएसु न सज्जए यावि ।। --बृह० भा० १३३१ २०. तं तु न विज्जइ सज्झं, जं धिइमंतो न साहेइ । -बृह० भा० १३५७ २१. धंतं पि दुद्धकंखी, न लभइ दुद्धं अधेणूतो। --बृह० भा० १९४४ २२. सीहं पालेइ गुहा, अविहाडं तेण सा महिड्ढीआ । तस्स पुण जोव्वणम्मि, पओअणं किं गिरिगुहाए ? --बृह० भा० २११४ २३. न य सो भावो विज्जइ, अदोसवं जो अनिययस्स । -बृह० भा० २१३८ २४. वालेण य न छलिज्जइ, ओसहहत्थो वि किं गाहो ? --बृह० भा० २१६० २५. उदगघडे वि करगए, किमोगमादीवितं न उज्जलइ । अइइद्धो वि न सक्कइ, विनिव्ववेउं कुडजलेणं ।। -बृह० भा० २१६१ २६. चूयफलदोसदरिसी, चूयच्छायंपि वज्जेई । -बृह० भा० २१६६ २७. छाएउं च पभायं, न वि सक्का पडसएणावि ।। ---बृह० भा० २२६६ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ एक सौ इक्यासी १८. जो कठोरहृदय दूसरे को पीडा से प्रकंपमान देखकर भी प्रकम्पित नहीं होता, वह निरनुकंप ( अनुकंपा रहित ) कहलाता है। चूंकि अनुकंपा का अर्थ ही है - काँपते हुए को देखकर कंपित होना । १९. जो अल्पाहारी होता है, उसकी इंद्रियां विषयभोग की ओर नहीं दौडतीं, तप का प्रसंग आने पर भी वह क्लांत नहीं होता और न ही सरस भोजन में आसक्त होता है । २०. वह कौन-सा कठिन कार्य है, जिसे धैर्यवान् व्यक्ति संपन्न नहीं कर सकता ? २१. दूध पाने की कोई कितनी ही तीव्र आकांक्षा क्यों न रखे, पर बांझ गाय से कभी दूध नहीं मिल सकता । २२. गुफा बचपन में सिंह- शिशु की रक्षा करती है, अतः तभी तक उसकी उपयोगिता है । जब सिंह तरुण हो गया, तो फिर उसके लिए गुफा का क्या प्रयोजन है ? २३. पुरुषार्थहीन व्यक्ति के लिए ऐसा कोई कार्य नहीं, जो कि निर्दोष हो, अर्थात् वह प्रत्येक कार्य में कुछ-न-कुछ दोष निकालता ही रहता है । २४. हाथ में नागदमनी औषधि के होते हुए भी क्या सर्प पकडने वाला गारुड़ी दुष्ट सर्प से नहीं छला जाता है, काट लिया नहीं जाता है ? ( साधक को भी तप आदि पर विश्वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिए । हर क्षण विकारों से सतर्क रहने की आवश्यकता है ।) २५. गृहस्वामी के हाथ में जल से भरा घडा होते हुए भी क्या आग लगने पर घर नहीं जल जाता है ? अवश्य जल जाता है । क्योंकि सब ओर अत्यन्त प्रदीप्त हुआ दावानल एक घड़े के जल से बुझ नहीं सकता ! ( जितना महान् साध्य हो उतना ही महान् साधन होना चाहिए । ) २६. आम खाने से जिसे व्याधि होती हो, वह आम की छाया से भी बच कर चलता है । २७. वस्त्र के सैकड़ों आवरणों (प्रावरणों) के द्वारा भी प्रभात के स्वर्णिम आलोक को ढका नहीं जा सकता । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ बियासी सूक्ति त्रिवेणी २८. अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी । -बृह० भा० २७११ २९. अकसायं खु चरित्तं, कसायसहिओ न संजओ होइ । -बह० भा० २७१२ ३०. जो पुण जतणारहिओ, गुणो वि दोसायते तस्स । --बृह० भा० ३१८१ ३१. कुलं विणासेइ सयं पयाता, नदीव कूलं कुलडा उ नारी । --बृह० भा० ३२५१ ३२. अंधो कहिं कत्थइ देसियत्तं ? --बह० भा० ३२५३ ३३. वसुंधरेयं जह वीरभोज्जा । --बृह० भा० ३२५४ ३४. ण सुत्तमत्थं अतिरिच्च जाती। --बृह० भा० ३६२७ ३५. जस्सेव पभावुम्मिल्लिताई तं चेव यकतग्घाई । कुमुदाई अप्पसंभावियाइं चंदं उवहसंति ।। --बृह. भा० ३६४२ ३६. जहा जहा अप्पतरो से जोगो, तहा तहा अप्पतरो से बंधो। निरुद्धजोगिस्स व से ण होति, __अछिद्दपोतस्स व अंबुणाघे ॥ --बृह० भा० ३९२६ ३७. आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्वतो होति ण भावतो उ । भावेण हिंसा तु असंजतस्स, ___ जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति ॥ --बृह. भा० ३९३३ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ एक सौ तिरासी २८. धार्मिक जनों में परस्पर वात्सल्य भाव की कमी होने पर सम्यग्दर्शन की हानि होती है। २९. अकषाय (वीतरागता) ही चारित्र है । अतः कषायभाव रखने वाला संयमी नहीं होता। ३०. जो यतनारहित है, उसके लिए गुण भी दोष बन जाते हैं। ३१. स्वच्छंद आचरण करने वाली नारी अपने दोनों कुलों (पितृकुल व श्वसुर कुल) को वैसे ही नष्ट कर देती है, जैसे कि स्वच्छंद बहती हुई नदी अपने दोनों कूलों (तटों) को। ३२. कहाँ अंधा और कहाँ पथप्रदर्शक ? (अंधा और मार्गदर्शक, यह कैसा मेल ?) ३३. यह वसुंधरा वीरभोग्या है। ३४. सूत्र, अर्थ (व्याख्या) को छोड़कर नहीं चलता है । ३५. जिस चन्द्र की ज्योत्स्ना द्वारा कुमुद विकसित होते हैं, हन्त ! वे ही कृतघ्न होकर अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन करते हुए उसी चन्द्रमा का उपहास करने लग जाते हैं। ३६. जैसे-जैसे मन, वचन, काया के योग (संघर्ष) अल्पतर होते जाते हैं, वैसे वैसे बंध भी अल्पतर होता जाता है । योगचक्र का पूर्णतः निरोध होने पर आत्मा में बंध का सर्वथा अभाव हो जाता है, जैसे कि समुद्र में रहे हुए अच्छिद्र जलयान में जलागमन का अभाव होता है। ३७. संयमी साधक के द्वारा कभी हिंसा हो भी जाए, तो वह द्रव्य हिंसा होती है, भाव हिंसा नहीं। किंतु जो असंयमी है, वह जीवन में कभी किसी का वध न करने पर भी, भावरूप से सतत हिंसा करता रहता है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ चौरासी ३८. जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणमपरो अविरतो य । तत्थ वि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए ॥ ३९. विरतो पुण जो जाणं, कुणति अजाणं व अप्पमत्तो वा । तत्थ वि अज्झत्यसमा, संजायति णिज्जरा ण चयो || ४०. देहबलं खलु विरियं, बलसरिसो चेव होति परिणामो । ४१. संजमहेऊ जोगो, पउज्जमाणो अदोसवं होइ । जह आरोग्गणिमित्तं, गंडच्छेदो व विज्जस्स || सूक्ति त्रिवेणी - बह० भा० ३९३८ ४४. -- बह० भा० ३९३९ - बृह० भा० ३९४८ ४२. ण भूसणं भूसयते सरीरं, विभूसणं सील हिरी य इथिए । - बह० ० भा ४११८ ४३. गिरा हि संखारजुया वि संसती, अपेसला होइ असाहुवादिणी । -- बुह० भा० ४११८ - बृह० भा० ३९५१ बाला य बुड्ढा य अजंगमा य, लोगे वि एते अणुकंप णिज्जा | -बृह० भा० ४३४२ ४५. न य मूलविभिन्नए घडे, जलमादीणि धलेइ कण्हुई । ४६. जहा तवस्सी धुणते तवेणं, कम्मं तहा जाण तवोऽणुमंता । -- बृह० भा० ४३६३ बह० भा० ४४० १ / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ एक सौ पिच्यासी ३८. एक अविरत (असंयमी) जानकर हिंसा करता है और दूसरा अनजान में । शास्त्र में इन दोनों के हिंसाजन्य कर्मबंध में महान् अन्तर बताया है। अर्थात् तीव्र भावों के कारण जानने वाले को अपेक्षाकृत कर्मबंध तीव्र होता है। ३९. अप्रमत्त संयमी (जागृत साधक) चाहे जान में (अपवाद स्थिति में) हिंसा करे या अनजान में, उसे अन्तरंग शुद्धि के अनुसार निर्जरा ही होगी, बन्ध नहीं। ४०. देह का बल ही वीर्य है और बल के अनुसार ही आत्मा में शुभाशुभ भावों का तीव्र या मंद परिणमन होता है । ४१. संयम के हेतु की जाने वाली प्रवृत्तियाँ निर्दोष होती हैं, जैसे कि वैद्य के द्वारा किया जाने वाला व्रणच्छेद (फोड़े का ऑपरेशन) आरोग्य के लिए होने से निर्दोष होता है। ४२. नारी का आभूषण शील और लज्जा है। बाह्य आभूषण उसकी शोभा नहीं बढ़ा सकते । ४३. संस्कृत, प्राकृत आदि के रूप में सुसंस्कृत भाषा भी यदि असभ्यतापूर्वक बोली जाती है, तो वह भी जुगुप्सित हो जाती है। ४४. बालक, वृद्ध और अपंग व्यक्ति, विशेष अनुकंपा (दया) के योग्य होते हैं । ४५. जिस घड़े की पेंदी में छेद हो गया हो, उसमें जल आदि कैसे टिक सकते ४६. जिस प्रकार तपस्वी तप के द्वारा कर्मों को धुन डालता है, वैसे ही तप का अनुमोदन करने वाला भी। १. यो जानन् जीवहिंसां करोति स तीव्रानुभावं बहुतरं पाप कर्मोपचिनोति, इतरस्तु मन्दतरविपाकमल्पतरं ...। --इति भाष्यवृत्तिकारः क्षेमकीर्तिः Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ छियासी सूक्ति त्रिवेणी ४७. जोइंति पक्कं न उ पक्कलेणं, ठावेंति तं सूरहगस्स पासे । एक्कंमि खंभम्मि न मत्तहत्थी, वज्झंति वग्घा न य पंजरे दो। -बृह० भा० ४४१० ४८. धम्मस्स मूलं विणयं वदंति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए । -बृह० भा० ४४४१ ४९. मणो य वाया काओ अ, तिविहो जोगसंगहो । ते अजुत्तस्स दोसा य, जुत्तस्स उ गुणावहा ।। -बृह० भा० ४४४९ ५०. जहिं णत्थि सारणा वारणा य पडिचोयणा य गच्छम्मि । सो उ अगच्छो, गच्छो, संजमकामीण मोत्तव्यो । -बृह० भा० ४४६४ ५१. जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्स वि, एत्तियगं जिणसासणयं ॥ -बृह० भा० ४५८४ ५२. सव्वारंभ-परिग्गहणिक्खेवो सव्वभूतसमया य । __ एक्कग्गमणसमाहाणया य, अह एत्तिओ मोक्खो ।। -बृह० भा० ४५८५ ५३. जं कल्लं कायव्वं, णरेण अज्जेव तं वरं काउं ।। मच्चू अकलुणहिअओ, न हु दीसइ आवयंतो वि ।। -बह० भा० ४६७४ ५४. तूरह धम्म काउं, मा हु पमायं खणं पि कुव्वत्था । बहुविग्धो हु मुहुत्तो, मा अवरण्हं पडिच्छाहि ।। -बह० भा० ४६७५ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियां एक सौ सत्तासी ४७. पक्व (झगड़ालू) को पक्व के साथ नियुक्त नहीं करना चाहिए, किंतु शांत के साथ रखना चाहिए, जैसे कि एक खंभे से दो मस्त हाथियों को नहीं बाँधा जाता और न एक पिंजरे में दो सिंह रखे जाते हैं । ४८. धर्म का मूल विनय है और धर्म सद्गति का मूल है । ४९. मन, वचन और काया के तीनों योग अयुक्त (अविवेकी) के लिए दोष के हेतु हैं और युक्त (विवेकी) के लिए गुण के हेतु । . ५०. जिस संघ में न सारणा' है, न वारणा है और न प्रतिचोदना३ है वह संघ संघ नहीं है, अतः संयम आकांक्षी को उसे छोड देना चाहिए । ५१. जो अपने लिए चाहते हो वह दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए, जो अपने लिए नहीं चाहते हो वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए -बस इतना मात्र जिन शासन है, तीर्थंकरों का उपदेश है। ५२. सब प्रकार के आरम्भ और परिग्रह का त्याग, सब प्राणियों के प्रति समता और चित्त की एकाग्रतारूप समाधि-बस इतना मात्र मोक्ष है। ५३. जो कर्तव्य कल करना है वह आज ही कर लेना अच्छा है । मृत्यु अत्यंत निर्दय है, यह कब आ जाए, मालूम नहीं । ५४. धर्माचरण करने के लिए शीघ्रता करो, एक क्षणभर भी प्रमाद मत करो। जीवन का एक एक क्षण विघ्नों से भरा है, इसमें संध्या की भी प्रतिक्षा नहीं करनी चाहिए। १. कर्तव्य की सूचना : २. अकर्तव्य का निषेध । कर्तव्य के लिए कठोरता के साथ शिक्षा देना । ३. भूल होने पर Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ अठासी सूक्ति त्रिवेणी ५५. तुल्लम्मि अवराधे, परिणामवसेण होति णाणत्तं । -~-बृह० भा० ४९७४ ५६. कामं परपरितावो, असायहेतू जिणेहिं पण्णत्तो। आत-परहितकरो पुण, इच्छिज्जइ दुस्सले स खलु ।। --बृह. भा० ५१०८ ५७. विणयाहीया विज्जा, देंति फलं इह परे य लोगम्मि । न फलंति विणयहीणा, सस्साणि व तोयहीणाई ॥ -बह० भा० ५२०३ ५८. वुग्गाहितो न जाणति, हितएहिं हितं पि भण्णतो। --बृह० भा० ५२२८ ५९. निश्विकप्पसुहं सुहं । ----बृह. भा० ५७१७ ६०. एगागिस्स हि चित्ताई, विचित्ताई खणे खणे । उप्पज्जति वियंते य, वसेवं सज्जणे जणे ।। --बृह० भा० ५७१९ ६१. जह कोति अमयरुक्खो, विसकंटगवल्लिवेढितो संतो। ___ण चइज्जइ अल्लीतुं, एवं सो खिसमाणो उ ।। --बृह० भा० ६०९२ ६२. सव्वे वि होंति सुद्धा, नत्थि असुद्धो नयो उ सट्ठाणे ।। --व्यवहारभाष्य पीठिका ४७ ६३. पुचि बुद्धीए पासेत्ता, तत्तो वक्कमुदाहरे । अचक्खुओ व नेयारं, बुद्धिमन्नेसए गिरा ।।। -व्य० भा० पी० ७६ ६४. अकुसलमणनिरोहो, कुसलमणउदीरणं चेव । -व्यव० भा० पी० ७७ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियां एक सौ नवासी ५५. बाहर में समान अपराध होने पर भी अन्तर में परिणामों की तीव्रता व मन्दता सम्बन्धी तरतमता के कारण दोष की न्यूनाधिकता होती है। ५६. यह ठीक है कि जिनेश्वरदेव ने परपरिताप को दुःख का हेतु बताया है। किंतु शिक्षा की दृष्टि से दुष्ट शिष्य को दिया जाने वाला परिताप इस कोटि में नहीं है, चूंकि वह तो स्व-पर का हितकारी होता है । ५७. विनयपूर्वक पढ़ी गई विद्या, लोक परलोक में सर्वत्र फलवती होती है। विन यहीन विद्या उसी प्रकार निष्फल होती है, जिस प्रकार जल बिना धान्य की खेती। . ५८. हितैषियों के द्वारा हित की बात कहे जाने पर भी धूर्तों के द्वारा बहकाया हुआ व्यक्ति (व्युद्ग्राहित) उसे ठीक नहीं समझता-अर्थात् उसे उल्टी समझता है। ५९. वस्तुतः रागद्वेष के विकल्प से मुक्त निर्विकल्प सुख ही सुख है । ६०. एकाकी रहने वाले साधक के मन में प्रतिक्षण नाना प्रकार के विकल्प उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं । अतः सज्जनों की संगति में रहना ही श्रेष्ठ है। ६१. जिस प्रकार जहरीले कांटों वाली लता से वेष्टित होने पर अमृत वृक्ष का भी कोई आश्रय नहीं लेता, उसी प्रकार दूसरों को तिरस्कार करने और दुर्वचन कहने वाले विद्वान को भी कोई नहीं पूछता । ६२. सभी नय (विचारदृष्टियाँ) अपने अपने स्थान (विचार केन्द्र) पर शुद्ध हैं. कोई भी नय अपने स्थान पर अशुद्ध (अनुपयुक्त) नहीं है। ६३. पहले बुद्धि से परख कर फिर बोलना चाहिए। अंधा व्यक्ति जिस प्रकार पथ-प्रदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है। ६४. मन को अकुशल-अशुभ विचारों से रोकना चाहिए और कुशल-शुभ विचारों के लिए प्रेरित करना चाहिए। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी एक सौ नब्बे ६५. न उ सच्छंदता सेया, लोए किमुत उत्तरे । -व्यव० भा० पी०८९ ६६. जा एगदेसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए सा उ करेइ कज्जं । जा दुब्बला संठविया वि संती, न तं तु सीलंति विसण्णदारुं ।। -व्यव० भा० पी० १८१ ६७. सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं । -व्यव० भा० पी० १८४ ६८. अलस अणुबद्धवेरं, सच्छंदमती पयहीयव्वो। -व्यव० भा० ११६६ ६९. तुल्ले वि इंदियत्थे, एगो सज्जइ विरज्जई एगो। अज्झत्थं तु पमाणं, न इंदियत्था जिणा विति ।। --व्यव० भा० २०५४ ७०. कम्माण निज्जरट्ठा, एवं खु गणो भवे धरेयव्वो । --व्यव० भा० ३।४५ ७१. अत्थेण य वंजिज्जइ, सुत्तं तम्हाउ सो बलवं । -व्यव. भा० ४।१०१ ७२. बलवाहणत्थहीणो, बुद्धीहीणो न रक्खए रज्जं । ---व्यव० भा० ५।१०७ ७३. जो सो मणप्पसादो, जायइ सो निज्जरं कुणति । --व्यव० भा० ६।१९० ७४. नवणीयतुल्ल हियया साहू । -व्यव० भा० ७।१६५ ७५. जइ नत्थि नाणचरणं, दिक्खा हु निरस्थिगा तस्स । --व्यव० भा० ७२१५ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ ६५. स्वच्छंदता लौकिक जीवन में भी हितकर नहीं है, ( साधक जीवन) में कैसे हितकर हो सकती है ? ६६. गाडी का कुछ भाग टूट जाने पर तो उसे फिर सुधार कर काम में लिया जा सकता है, किंतु जो ठीक करने पर भी टूटती जाए और बेकार बनी रहे, उसको कौन सँवारे ? अर्थात् उसे संवारते रहने से क्या लाभ है ? एक सौ इक्यानवे तो लोकोत्तर जीवन ६७. जो साधक किसी विशिष्ट ज्ञानादि हेतु से अपवाद ( निषिद्ध ) का आचरण करता है, वह मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी है । ६८. आलसी, वैर-विरोध रखने वाले और स्वच्छंदाचारी का साथ छोड़ देना चाहिए । ६९. इन्द्रियों के विषय समान होते हुए भी एक उनमें आसक्त होता है और दूसरा विरक्त । जिनेश्वरदेव ने बताया है कि इस सम्बन्ध में व्यक्ति का अन्तर्हृदय ही प्रमाणभूत है, इन्द्रियों के विषय नहीं । ७०. कर्मों की निर्जरा के लिए (आत्मशुद्धि के लिए ) ही आचार्य को संघ का नेतृत्व संभालना चाहिए । ७१. सूत्र ( मूल शब्द पाठ), अर्थ ( व्याख्या) से ही व्यक्त होता है; अतः अर्थ सूत्र से भी बलवान ( महत्त्व पूर्ण ) है । ७२. जो राजा सेना, वाहन, अर्थ (संपत्ति) एवं बुद्धि से हीन है, वह राज्य की रक्षा नहीं कर सकता । ७३. साधना में मनः प्रसाद ( मानसिक निर्मलता ) ही कर्मनिर्जरा का मुख्य कारण है । ७४. साधुजनों का हृदय नवनीत (मक्खन) के समान कोमल होता है । ७५. यदि ज्ञान और तदनुसार आचरण नहीं है, तो उसकी दीक्षा निरर्थक है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ बानवे सूक्ति त्रिवेणी ७६. सव्वजगुज्जोयकरं नाणं, नाणेण नज्जए चरणं । --व्यव० भा० ७॥२१६ ७७. नाणंमि असंतंमि, चरित्तं वि न विज्जए। --व्यव० भा० ७२१७ ७८. न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेइ । --व्यव० भा० १०१५४ ७९. अहवा कायमणिस्स उ, सुमहल्लस्स विउ कागणीमोल्लं । वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होति सयसहस्सं ।। --व्यव० भा० १०।२१६ ८०. जो जत्थ होइ कुसलो, सो उ न हावेइ तं सइ बलम्मि । --व्यव० भा० १०॥५०८ ८१. उवकरणेहि विहूणो, जह वा पुरिसो न साहए कज्ज । -व्यव० भा० १०॥५४० ८२. अत्थधरो तु पमाणं, तित्थ गरमुहुग्गतो तु सो जम्हा । ___-निशीथ भाष्य, २२ ८३. कामं सभावसिद्धं तु, पवयणं दिप्पते सयं चेव । --नि० भा० ३१ ८४. कुसलवइ उदीरंतो, जं वइगुत्तो वि समिओ वि । -नि० भा० ३७ --बृह• भा० ४४५१ ८५. ण हु वीरियपरिहीणो, पवत्तते णाणमादीसु। -~-नि० भा० ४८ ८६. णाणी ण विणा णाणं । --नि० भा० ७५ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियां एक सौ तिरानवे ७६. ज्ञान विश्व के समग्र रहस्यों को प्रकाशित करने वाला है। ज्ञान से ही चारित्र (कर्तव्य) का बोध होता है । ७७. ज्ञान नहीं है, तो चारित्र भी नहीं है। ७८. सूर्य के प्रकाश के समक्ष दीपक के प्रकाश का क्या महत्व है ? ७९. कांच के बड़े मनके का भी केवल एक काकिनी' का मूल्य होता है, और हीरे की छोटी-सी कणी भी लाखों का मूल्य पाती है। ८०. जो जिस कार्य में कुशल है, उसे शक्ति रहते हुए वह कार्य करना ही चाहिए। ८१. साधनहीन व्यक्ति अभीष्ट कार्य को सिद्ध नहीं कर पाता है । ८२. सूत्रधर (शब्द-पाठी) की अपेक्षा अर्थधर (सूत्ररहस्य का ज्ञाता) को प्रमाण मानना चाहिए, क्योंकि अर्थ साक्षात् तीर्थंकरों की वाणी से निःसृत है। ८३. जिनप्रवचन सहज सिद्ध है, अतः वह स्वयं प्रकाशमान है । ८४. कुशल वचन (निरवद्य वचन) बोलने वाला वचन-समिति का भी पालन करता है, और वचन-गुप्ति का भी। ८५. निर्वीर्य (शक्तिहीन) व्यक्ति ज्ञान आदि की भी सम्यक्-साधना नहीं कर सकता। ८६. ज्ञान के विना कोई भी ज्ञानी नहीं हो सकता। १. काकिणी नाम रूवगस्स अस्सीतितमो भागः । रुपये का अस्सीवां भाग काकिणी (कोडी) होती है। --उत्त० चू०७ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी एक सौ चौरानवे ८७. धिती तु मोहस्स उवसमे होति । -नि. भा० ८५ ८८. सुहपडिबोहा णिद्दा, दुहपडिबोहा य णिद्दणिद्दा य ।। -नि० भा० १३३ ८९. णा णज्जोया साहू । -नि० भा० २२५ -बह० भा०३४५३ ९०. जा चिट्ठा सा सव्वा संजमहेउं ति होति समणाणं । --नि० भा० २६४ ९१. राग-द्दोसाणुगता, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा । अराधतो तु कप्पे, विराधतो होति दप्पेणं । --नि० भा० ३६३ --बृह० मा० ४९४३ ९२. संसारगड्डपडितो णाणादवलंबितुं समारुहति । __ मोक्खतडं जध पुरिसो, वल्लिविताणेण विसमाओ। --नि० भा० ४६५ ९३. ण हु होति सोयितव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि । सो होइ सोयियव्वो, जो संजम-दुब्बलो विहरे । -नि० भा० १७१७ --बृह० भा० ३७३९ ९४. णेहरहितं तु फरुसं । --नि० भा० २६०८ ९५. अलं विवाएण णे कतमुहेहिं । --नि० भा० २६१३ ९६. आसललिअं वराओ, चाएति न गद्दभो काउं ।। ---नि० भा० २६२८ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ ८७. मोह का उपशम होने पर ही धृति होती है । ८८. समय पर सहजतया जाग आ जाना 'निद्रा' है, कठिनाई से जो जाग आए वह 'निद्रा - निद्रा' है । ८९. साधक ज्ञान का प्रकाश लिए जीवन यात्रा करता है । ९०. श्रमणों की सभी चेष्टा अर्थात् क्रियाएँ संयम के हेतु होती हैं । ९१. राग-द्वेष पूर्वक की जानेवाली प्रतिसेवना ( निषिद्ध आचरण) दर्पिका है और राग-द्वेष से रहित प्रतिसेवना ( अपवाद काल में परिस्थितिवश किया जाने वाला निषिद्ध आचरण) कल्पिका है । कल्पिका में संयम की आराधना है और दपिका में विराधना । ९२. जिस प्रकार विषम गर्त में पड़ा हुआ व्यक्ति लता आदि को पकड़ कर ऊपर आता है, उसी प्रकार संसारगर्त में पड़ा हुआ व्यक्ति ज्ञान आदि का अवलंबन लेकर मोक्ष रूपी किनारे पर आ जाता है । ९३. वह शोचनीय नहीं है, जो अपनी साधना में प्राप्त कर गया है। शोचनीय तो वह है, जीवित घूमता फिरता है । एक सौ पिच्चानवे ९४. स्नेह से रहित वचन 'परुष - कठोर वचन' कहलाता है । 1 ९५. कृतमुख ( विद्वान ) दृढ रहता हुआ मृत्यु को जो संयम से भ्रष्ट होकर साथ विवाद नहीं करना चाहिए । ९६. शिक्षित अश्व की क्रीडाएँ बिचारा गर्दभ कैसे कर सकता है ? Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक सौ छियानवे सूक्ति त्रिवेणी ९७. जय कोहाइ विवढ्ढी, तह हाणी होइ चरणे वि । -नि० भा० २७९० -बृह० भा० २७११ ९८. जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुत्वकोडीए । तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुत्तेणं ।। -नि० भा० २७९३ -बह० भा० २७१५ ९९. राग-द्दोस-विमुक्को सीयघरसमो य आयरिओ। --नि० भा० २७९४ १००. तमतिमिरपडलभूओ, पावं चिंतेइ दीहसंसारी। --नि० भा० २८४७ १०१. सोऊण वा गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए । जति तुरियं णागच्छति, लग्गति गुरुए' सवित्थारं ॥ --नि० भा० २९५० --बह० भा० ३७६९ १०२. जह भमर-महुयर-गणा णिवतंति कुसुमितम्मि वणसंडे । तह होति णिवतियव्वं, गेलण्णे कतितवजढेणं ॥ --नि० भा० २९७१ १०३. पुवतव-संजमा होति, रागिणो पच्छिमा अरागस्स । --नि० भा० ३३३२ १०४. अप्पो बंधो जयाणं, बहुणिज्जर तेण मोक्खो तु ।। --नि० भा० ३३३५ १. चउम्मासे-इति बृहत्कल्पे । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ एक सौ सत्तानवे ९७. ज्यों-ज्यों क्रोधादि कषाय की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों चारित्र की हानि होती है। ९८. देशोनकोटिपूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र अजित किया है, वह ___ अन्तर्मुहूर्त भर के प्रज्वलित कषाय से नष्ट हो जाता है। ९९. राग-द्वेष से रहित आचार्य शीतगृह (सब ऋतुओं में एक समान सुखप्रद भवन) के समान है। १००. पुंजीभूत अंधकार के समान मलिन चित्तवाला दीर्घसंसारी जीव जब देखो तब पाप का ही विचार करता रहता है। १०१. विहार करते हुए, गाँव में रहते हुए, भिक्षाचर्या करते हुए यदि सुन पाए कि कोई साधु साध्वी बीमार है, तो शीघ्र ही वहां पहुंचना चाहिए। जो साधु शीघ्र नहीं पहुंचता है, उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता १०२. जिस प्रकार कुसुमित उद्यान को देख कर भौंरे उस पर मंडराने लग जाते हैं, उसी प्रकार किसी साथी को दुःखी देखकर उसकी सेवा के लिए अन्य साथियों को सहज भाव से उमड़ पड़ना चाहिए । १०३. रागात्मा के तप-संयम निम्न कोटि के होते हैं, वीतराग के तप-संयम उत्कृष्टतम होते हैं। १०४. यतनाशील साधक का कर्मबंध अल्प, अल्पतर होता जाता है, और निर्जरा तीव, तीव्रतर । अतः वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है। १. वड्ढ़कीरयण-णिम्मियं चक्किणो सीयघरं भवति । वासासु णिवाय-पवातं, सीयकाले सोम्हं, गिम्हे सीयलं."सव्वरिउक्खमं भवति । -निशीथचूर्णि। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी एक सौ अट्ठानवे १०५. इंदियाणि कसाये य, गारवे य किसे कुरु । णो वयं ते पसंसामो, किसं साह सरीरगं ।। --नि० भा० ३७५८ १०६. भण्णति सज्झमसज्झं, कज्जं सज्झं तू साहए मइमं । अविसझं सातो, किलिस्सति न तं च साहेई ।। --नि० भा० ४१५७ बृह० भा० ५२७९ १०७. मोक्खपसाहणहेतू, णाणादि तप्पसाहणो देहो । देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो ।। -नि० भा० ४१५९ -बृह० भा० ५२८१ १०८. णाणे णाणुवदेसे, अवट्टमाणो उ अन्नाणी। -नि० भा० ४७९१ --बृह० भा० ९३१ १०९. सुहसाहगं पि कज्ज करणविहूणमणुवायसंजुत्तं । अन्नायऽदेसकाले, विवत्तिमुवजाति सेहस्स ॥ -नि भा० ४८०३ -बृह० भा० ९४४ ११०. नखेणावि हु छिज्जइ, पासाए अभिनवुट्ठितो रुक्खो।। दुच्छेज्जो वड्ढंतो, सो च्चिय वत्थुस्स भेदाय ।। -नि० भा० ४८०४ -बह० मा० ९४५ १११. संपत्ती व विवत्ती व, होज्ज कज्जेसु कारगं पप्प । अणुपायओ विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं ।। -नि० भा० ४८०८ -बृह० भा० ९४९ ११२. जतिभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चयो कम्मे । -नि० भा० ५१६४ -बृह० भा० २५१५ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ एक सौ निन्यानवे १०५. हम साधक के केवल अनशन आदि से कृश (दुर्बल) हुए शरीर के प्रशंसक नहीं हैं, वस्तुतः तो इन्द्रिय (वासना), कषाय और अहंकार को ही कृश (क्षीण) करना चाहिए । १०६. कार्य के दो रूप हैं - साध्य और असाध्य | बुद्धिमान साध्य को साधने में ही प्रयत्न करें। चूंकि असाध्य को साधने में व्यर्थ का क्लेश ही होता है, और कार्य भी सिद्ध नहीं हो पाता । १०७. ज्ञान आदि मोक्ष के साधन हैं, और ज्ञान आदि का साधन देह है, देह का साधन आहार है, अतः साधक को समयानुकूल आहार की आज्ञा दी गई है । १०८. जो ज्ञान के अनुसार आचरण नहीं करता है, वह ज्ञानी भी वस्तुतः अज्ञानी है । १०९. देश, काल एवं कार्य को बिना समझे समुचित एवं उपाय से हीन किया जाने वाला कार्य, सुख-साध्य होने पर भी सिद्ध नहीं होता है । ११०. प्रासाद की दीवार में फूटनेवाला नया वृक्षांकुर प्रारंभ में नख से भी उखाड़ा जा सकता है, किंतु वही बढ़ते-बढ़ते एक दिन कुल्हाडी से भी दुच्छेद्य हो जाता है, और अन्ततः प्रासाद को ध्वस्त कर डालता है । १११. कार्य करने वाले को लेकर ही कार्य की सिद्धि या असिद्धि फलित होती है । समय पर ठीक तरह से करने पर कार्य सिद्ध होता है और समय बीत जाने पर या विपरीत साधन से कार्य नष्ट हो जाता है । ११२. राग की जैसी मंद, मध्यम और तीव्र मात्रा होती है, उसी के अनुसार मंद, मध्यम और तीव्र कर्मबंध होता है । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सो ११३. उस्सग्गेण णिसिद्धाणि, जाणि दव्वाणि संथरे मुणिणो । कारणजाए जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पंति ॥ ११४. णवि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिदेहि | एसा तेसिं आणा, कज्जे सच्चेण होयव्वं ॥ ११५. कज्जं णाणादीयं, उस्सग्गववायओ भवे सच्चं । - नि० मा० ५२४५ - बृह० भा० ३३२७ ११६. दोसा जेण निरंभंति, जेण खिज्जंति पुव्वकम्माई । सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं व ।। - नि० भा० ५२४८ - बृह० भा० ३३३० सूक्ति त्रिवेणी नि० ० भा० ५२४९ ११७. णिउणो खलु सुत्तत्थो, न हु सक्को अपडिबोहितो नाउं । - नि० भा० ५२५० - बह० भा० ३३३१ ११८. निक्कारणम्मि दोसा, पडिबंधे कारणम्मि णिद्दोसा | - नि० भा० ५२५२ - बह० ० भा० ३३३३ ११९. जो जस्स उ पाओग्गो, सो तस्स तहिं तु दायव्वो । -- नि० भा० ५२८४ बुद्धी । १२०. जागरह ! णरा णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढते जो सुवति न सो सुहितो, जो जग्गति सो सया सुहितो || - नि० भा० ५२९१ ० मा० ३३७० - बह० १२१. सुवति सुवंतस्स सुयं संकियं खलियं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुयं, थिर-परिचितमप्पमत्तस्स ॥ - नि० भा० ५३०३ - बृह० भा० ३३८३ - नि० भा० ५३०४ -- बृह० भा० ३३८४ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियां दो सौ एक ११३. उत्सर्ग मार्ग में समर्थ मुनि को जिन बातों का निषेध किया गया है, विशिष्ट कारण होने पर अपवाद मार्ग में वे सब कर्तव्य रूप से विहित १९४. जिनेश्वरदेव से न किसी कार्य की एकांत अनुज्ञा दी है और न एकांत निषेध ही किया है । उनकी आज्ञा यही है कि साधक जो भी करे वह सच्चाई-प्रामाणिकता के साथ करे । ११५. ज्ञान आदि की साधना देश काल के अनुसार उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग के द्वारा ही सत्य (सफल) होती है । ११६. जिस किसी भी अनुष्ठान से रागादि दोषों का निरोध होता हो तथा पूर्व संचित कर्म क्षीण होते हों, वह सब अनुष्ठान मोक्ष का साधक है। जैसे कि रोग को शमन करने वाला प्रत्येक अनुष्ठान चिकित्सा के रूप में आरोग्यप्रद है। ११७. सूत्र का अर्थ अर्थात् शास्त्र का मूलभाव बहुत ही सूक्ष्म होता है, वह आचार्य के द्वारा प्रतिबोधित हुए विना नहीं जाना जाता। ११८. विना विशिष्ट प्रयोजन के अपवाद दोषरूप है, किंतु विशिष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिए वही निर्दोष है । ११९. जो जिसके योग्य हो, उसे बही देना चाहिए। १२०. मनुष्यो ! सदा जागते रहो, जागने वाले की बुद्धि सदा वधमान रहती है। जो सोता है वह सुखी नहीं होता, जाग्रत रहने वाला ही सदा सुखी रहता है। १२१. सोते हुए का श्रुत-ज्ञान सुप्त रहता है, प्रमत्त रहने वाले का ज्ञान शंकित एवं स्खलित हो जाता है । जो अप्रमत्त भाव से जाग्रत रहता है, उसका ज्ञान सदा स्थिर एवं परिचित रहता है। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ दो सूक्ति त्रिवेणी १२२. सुवइ य अजगरभूतो, सुयं पि से णासती अमयभूयं । होहिति गोणब्भूयो, णटुंमि सुये अमयभूये ।। -नि० भा० ५३०५ - बृह० भा० ३३८७ १२३. जागरिया धम्मीणं, आहम्मीणं च सुत्तया सेया । --नि० भा० ५३०६ -बृह० मा० ३३८६ १२४. णालस्सेण समं सोक्खं, ण विज्जा सह णिद्दया । __ण वेरग्गं ममत्तेणं, णारंभेण दयालुआ ।। -नि० भा० ५३०७ -बह० भा० ३३८५ १२५. दुक्खं खु णिरणुकंपा । -नि० भा० ५६३३ १२६. जो तु गुणो दोसकरो, ण सो गुणो दोस एव सो होती। अगुणो वि य होति गुणो, जो सुंदरणिच्छओ होति । -नि० भा० ५८७७ -बृह० भा० ४०५२ १२७. पीतीसुण्णो पिसुणो। --नि० भा० ६२१२ १२८. पुरिसम्मि दुव्विणीए, विणयविहाणं न किंचि आइक्खे । न वि दिज्जति आभरणं, पलियत्तियकण्ण-हत्थस्स ।। -नि० भा० ६२२१ -बृह० भा० ७८२ १२९. मद्दवकरणं णाणं, तेणेव य जे मदं समुवहति । ऊणगभायणसरिसा, अगदो वि विसायते तेसि ।। -नि० मा ६२२२ -बृह० भा० ७८३ १३०. खेत्तं कालं पुरिसं, नाऊण पगासए गुज्झं ।। -नि० भा० ६२२७ -बृह० भा० ७९० Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ दो सौ तीन १२२. जो अजगर के समान सोया रहता है, उसका अमृत स्वरूप श्रुत ( ज्ञान ) नष्ट हो जाता है, और अमृत स्वरूप श्रुत के नष्ट हो जाने पर व्यक्ति एक तरह से निरा बैल हो जाता है । १२३. धार्मिक व्यक्तियों का जागते रहना अच्छा है और अधार्मिक जनों का सोते रहना । १२४. आलस्य के साथ सुख का निद्रा के साथ विद्या का, ममत्व के साथ वैराग्य का और आरंभ = हिंसा के साथ दयालुता का कोई मेल नहीं है । १२५. किसी के प्रति निर्दयता का भाव रखना वस्तुतः दुःखदायी है । १२६. जो गुण, दोष का कारण है, वह वस्तुतः गुण होते हुए और वह दोष भी गुण है, जिसका कि परिणाम सुंदर है, का कारण है । १२७. जो प्रीति से शून्य है- वह 'पिशुन' है । १२८. जो व्यक्ति दुर्विनीत है, उसे सदाचार की शिक्षा नहीं देना चाहिए । भला जिसके हाथ पैर कटे हुए हैं, उसे कंकण और कुंडल आदि अलंकार क्या दिए जाएँ । भी दोष ही है अर्थात् जो गुण १२९. ज्ञान मनुष्य को मृदु बनाता है, किंतु कुछ मनुष्य उससे भी मदोद्धत होकर अधजल गगरी की भाँति छलकने लग जाते हैं, उन्हें अमृत स्वरूप औषधि भी विष बन जाती है । १३०. देश, काल और व्यक्ति को समझ कर ही गुप्त रहस्य प्रकट करना चाहिए । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ चार १३१. अप्पत्तं च ण वातेज्जा, पत्तं च ण विमाणए । १३२. आमे घडे निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेति । सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥ १३३. णाणं भावो ततो ऽण्णो । १३४. दुग्ग-विसमे वि न खलति, जो पंथे सो समे कहष्णु खले । १३७. उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइयं होइ । १३८. सत्तभयविप्प मुक्के, तहा भवंते भयंते अ । १३९. चित्तं तिकाल विसयं । - नि० भा० ६२३० सूक्ति त्रिवेणी १३५. सव्वे अ चक्कजोही, सव्वे अ हया सचक्केहिं । - आवश्यक नियुक्ति माष्य ४३ १३६. ववहारोऽपि हु बलवं, जं छउमत्थंपि वंदई अरहा । जो होइ अणाभिण्णो, जाणंतो धम्मयं एयं ॥ १४०. अणिदियगुणं जीवं दुनेयं मंसचक्खुणा । १४१. णिच्चो अविणासि सासओ जीवो । १४२. हे उप्पभवो बन्धो । - नि० भा० ६२४३ - नि० भा० ६२९१ - नि० भा० ६६९८ -आव० नि० भा० १२३ --आव० नि० भा० १४९ -आव० नि० भा० १८५ -- दशवेकालिक नियुक्ति मा० १९ - दशवं०नि० भा० ३४ - दशवं० नि० भा० ४२ - वशबै० नि० भा० ४६ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ दो सौ पांच १३१. अपात्र (अयोग्य) को शास्त्र का अध्ययन नहीं कराना चाहिए और पात्र (योग्य) को उससे वंचित नहीं रखना चाहिए। १३२. मिट्टी के कच्चे घड़े में रखा हुआ जल जिस प्रकार उस घड़े को ही नष्ट कर डालता है, वैसे ही मन्दबुद्धि को दिया हुआ गम्भीर शास्त्रज्ञान, उसके विनाश के लिए ही होता है। १३३. ज्ञान आत्मा का ही एक भाव है, इसलिए वह आत्मा से भिन्न नहीं है । १३४. जो दुर्गम एवं विषम मार्ग में भी स्खलित नहीं होता है, वह सम अर्थात सीधे, सरल मार्ग में कैसे स्खलित हो सकता है ? १३५. जितने भी चक्रयोधी (अश्वग्रीव, रावण आदि प्रति वासुदेव) हुए हैं, वे अपने ही चक्र से मारे गए हैं । १३६. संघव्यवस्था में व्यवहार बड़ी चीज है । केवली (सर्वज्ञ) भी अथने छद्मस्थ गुरु को स्वकर्तव्य समझकर तब तक वंदना करते रहते हैं, जब तक कि गुरु उसकी सर्वज्ञता से अनभिज्ञ रहते हैं। १३७. यतनापूर्वक साधना में यत्नशील रहने वाला आत्मा ही सामायिक है। १३८. सात प्रकार के भय से सर्वथा मुक्त होने वाले भदंत 'भावान्त' या 'भयान्त' कहलाते हैं। १३९. आत्मा की चेतना शक्ति त्रिकाल है । . १४०. आत्मा के गुण अनिन्द्रिय-अमूर्त हैं, अतः वह चर्म चक्षुओं से देख पाना . कठिन है। १४१. आत्मा नित्य है, अविनाशी है, एवं शाश्वत है । १४२. आत्मा को कर्म बंध मिथ्यात्व आदि हेतुओं से होता है । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ छह सूक्ति त्रिवेणी १४३. दविए दंसणसुद्धी, सणसुद्धस्स चरणं तु । --ओघ नियुक्ति भाष्य ७ १४४. चरणपडिवत्तिहेउं धम्मकहा। --ओघ० नि० भा० ७ १४५. नत्थि छुहाए सरिसया वेयणा । -ओघ० नि० भा० २९० १४६. नाण-किरियहिं मोक्खो । -विशेषावश्यक भाष्य गा० ३ १४७. सव्वं च णिज्जरत्थं सत्थमओऽमंगलमजुत्तं । -विशेषा० भा० १९ १४८. दव्वसुयं जो अणुवउत्तो। -विशेषा० भा० १२९ १४९. जग्गन्तो वि न जाणइ, छ उमत्थो हिययगोयरं सव्वं । जंतज्झवसाणाइं, जमसंखेज्जाइं दिवसेण ॥ -विशेषा० भा० १९९ १५०. धम्मोऽवि जओ सव्वो, न साहणं किंतु जो जोग्गो। --विशेषा० भा० ३३१ १५१. जह दुव्वयणमवयणं, कुच्छियसीलं असीलमसईए । भण्णइ तह नाणंपि हु, मिच्छादिट्ठिस्स अण्णाणं ।। -विशेषा० भा० ५२० १५२. नाणफलाभावाओ, मिच्छादिट्ठिस्स अण्णाणं ।। -विशेषा० भा० ५२१ १५३. सव्वं चिय पइसमयं, उप्पज्जइ नासए य निच्चं च । --विशेषा० भा० ५४४ १५४. उवउत्तस्स उ खलियाइयं पि सुद्धस्स भावओ सुत्तं । साहइ तह किरियाओ, सव्वाओ निज्जरफलाओ । --विशेषा० भा० ८६० Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ दो सौ सात १४३. द्रव्यानुयोग (तत्त्वज्ञान) से दर्शन (दृष्टि) शुद्ध होता है और दर्शन शुद्धि होने पर चारित्र की प्राप्ति होती है। १४४. आचार रूप सद्गुणों की प्राप्ति के लिए धर्मकथा कही जाती है। १४५. संसार में भूख के समान कोई वेदना नहीं है । १४६. ज्ञान एवं क्रिया (आचार) से ही मुक्ति होती है । १४७. समग्र शास्त्र निर्जरा के लिए है, अतः उसमें अमंगल जैसा कुछ नहीं है। १४८. श्रीं श्रुत उपयोगशून्य है, वह सब द्रव्य-श्रुत है । १४९. जाग्रत दशा में भी छद्मस्थ अपने मन के सभी विचारों को नहीं जान पाता, क्योंकि एक ही दिन में मन के अध्यवसाय (विकल्प) असंख्य रूप ग्रहण कर लेते हैं। १५०. सभी धर्म मुक्ति के साधन नहीं होते हैं, किंतु जो योग्य है, वही साधन होता है। १५१. जिस प्रकार लोक में कुत्सित वचन, 'अवचन' एवं कुत्सित शील, 'अशील' (शील का अभाव) कहलाता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि का ज्ञान कुत्सित होने के कारण अज्ञान कहलाता है । १५२. ज्ञान के फल (सदाचार) का अभाव होने से मिथ्या दृष्टि का ज्ञान अज्ञान १५३. विश्व का प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और साथ ही नित्य भी रहता है। १५४. उपयोगयुक्त शुद्ध व्यक्ति के ज्ञान में कुछ स्खलनाएँ होने पर भी वह शुद्ध ही है । उसी प्रकार धर्म क्रियाओं में कुछ स्खलनाएँ होने पर भी उस शुद्धोपयोगी की सभी क्रियाएँ कर्मनिर्जरा की हेतु होती हैं। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ आठ सूक्ति त्रिवेणी १५५. चित्तण्णू अणुकूलो, सीसो सम्मं सुयं लहइ । -विशेषा० भा० ९३७ १५६. मिच्छत्तमयसमूहं सम्मत्तं । --विशेषा० भा० ९५४ १५७. अन्नं पुट्ठो अन्नं जो साहइ, सो गुरू न बहिरोव्व । न य सीसो जो अन्नं सुणेइ, परिभासए अन्नं ।। --विशेषा० भा० १४४३ १५८. वयणं विण्णाण फलं, जइ तं भणिएऽवि नत्थि कि तेण ? -विशेषा० १५१३ १५९. सामाइओवउत्तो जीवो सामाइयं सयं चेव । -विशेषा० भा० १५२९ १६०. असुभो जो परिणामो सा हिंसा । --विशेषा० भा० १७६६ १६१. गंथोऽगंथो व मओ मुच्छा मुच्छाहि निच्छयओ । --विशेषा० भा० २५७३ १६२. इंदो जीवो सव्वोवलद्धि भोगपरमेसरत्तणओ । --विशेषा० २९९३ १६३. धम्मा-धम्मा न परप्पसाय-कोपाणुवत्तिओ जम्हा । --विशेषा० भा० ३२५४ १६४. विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे ।। विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो ? --विशेषा० भा० ३४६८ , Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ दो सौ नो १५५. गुरुदेव के अभिप्राय को समझकर उसके अनुकूल चलने वाला शिष्य सम्यक प्रकार से ज्ञान प्राप्त करता है। १५६. (अनेकान्त दृष्टि से युक्त होने पर) मिथ्यात्वमतों का समूह भी सम्यक्त्व बन जाता है। १५७. बहरे के समान-शिष्य पूछे कुछ और, बताए कुछ और-वह गुरु, गुरु नहीं है और वह शिष्य भी शिष्य नहीं है, जो सुने कुछ और, कहे कुछ और। १५८. वचन की फलश्रुति है-अथज्ञान ! जिस वचन के बोलने से अर्थ का ज्ञान नहीं हो, तो उस 'वचन' से भी क्या लाभ ? १५९. सामायिक में उपयोग रखने वाला आत्मा स्वयं ही सामायिक हो जाता १६०. निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा का अशुभ परिणाम ही हिंसा है। १६१. निश्चय दृष्टि से विश्व की प्रत्येक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी। यदि मूर्छा है, तो परिग्रह है; मूर्छा नहीं है, तो परिग्रह नहीं है। १६२. सब उपलब्धि एवं भोग के उत्कृष्ट ऐश्वर्य के कारण प्रत्येक जीव १६३. धर्म और अधर्म का आधार आत्मा की अपनी परिणति ही है। दूसरों की प्रसन्नता और नाराजगी पर उसकी व्यवस्था नहीं है । १६४. विनय जिनशासन का मूल है, विनीत ही संयमी हो सकता है। जो विनय से हीन है, उसका क्या धर्म, और क्या तप ? १४ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिसाहित्य की सूक्तियाँ . १. जो अहंकारो, भणितं अप्पलक्खणं । - आचारांग चूणि १।१।१ २. जह मे इट्ठाणिठे सुहासुहे तह सव्वजीवाणं । -आचा० चू० १।१।६ ३. असंतुट्ठाणं इह परत्थ य भयं भवति । -आचा० चू० १।२।२ ४. ण केवलं वयबालो ... कज्ज अयाणओ बालो चेव । --आचा० चू० श२।३ ५. विसयासत्तो कज्जं अकज्जं वा ण याणति । -आचा० च०१।२।४ ६. काले चरंतस्स उज्जमो सफलो भवति । -आचा० चू० १।२।५ ७. ण दीणो ण गवितो। ----आचा० चू० ११२१५ ८. धम्मे अणुज्जुत्तो सीयलो, उज्जुत्तो उण्हो । ---आचा० चू० १।३।१ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिसाहित्य की सूक्तियाँ १. यह जो अन्दर में 'अहं' है । २. जैसे इष्ट - अनिष्ट, सुख-दुःख मुझे होते हैं, वैसे ही सब जीवों को होते हैं । 'मैं' की चेतना है, यह आत्मा का लक्षण ३. असंतुष्ट व्यक्ति को यहाँ, वहाँ सर्वत्र भय रहता है । ४. केवल अवस्था से ही कोई बाल (बालक) नहीं होता, किंतु जिसे अपने कर्तव्य का ज्ञान नहीं है वह भी 'बाल' ही है । ५. विषयासक्त को कर्तव्य - अकर्तव्य का बोध नहीं रहता । ६. उचित समय पर काम करने वाले का ही श्रम सफल होता है । ७. साधक को न कभी दीन होना चाहिए और न अभिमानी । ८. धर्म में उद्यमी = क्रियाशील व्यक्ति, उष्ण = गर्म है, उद्यमहीन शीतल ठंडा है । = Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ बारह सूक्ति त्रिवेणी ९. ण याणंति अप्पणो वि, किन्नु अण्णेसि । ---आचा चू० १।३।३ १०. अप्पमत्तस्स णत्थि भयं, गच्छतो चिट्ठतो जमाणस्स वा । -आचा० चू० ॥३।४ ११. ण चिय अगिंधणे अग्गी दिप्पति । -- आचा० चू० १।३।४ १२. जत्तियाइं असंजमट्ठाणाई, तत्तियाइं संजमट्ठाणाई ॥ -- आचा० चू० १।४।२ १३. कोयि केवलमेव गंथमेहावी भवति, ण तु जहातहं पंडितो। --आचा० चू० १।५।३ १४. रागदोसकरो वादो। -आचा० चू० ११७।१ १५. विवेगो मोक्खो। -आचा० चू० ११७।१ १६. जइ वणवासमित्तेणं नाणी जाव तवस्सी भवति, तेण सीहवग्घादयो वि। -आचाचू० १।७।१ १७. छुहा जाव सरीरं, ताव अस्थि । -आचा० चू० ११७।३ १४. न वृद्धो भूत्वा पुनरुत्तानशायी क्षीराहारो बालको भवति ।। -सूत्र कृतांग चूणि १।२।२ १९. आरंभपूर्वको परिग्रहः। -सूत्र० चू० ११२।२ २०. समभावः सामाइयं । - सूत्र० 'चू० १।२।२ २१. चत्तं न दूषयितव्यं । -सूत्र० चू० १।२।२ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुणिसाहित्य की सूक्तियाँ दो सौ तेरह ९. जो अपने को ही नहीं जानता, वह दूसरों को क्या जानेगा ? १०. अप्रमत्त (सदा सावधान) को चलते, खड़े होते, खाते, कहीं भी कोई भय नहीं है। ११. बिना इंधन के अग्नि नहीं जलती। १२. विश्व में जितने असंयम के स्थान (कारण) हैं, उतने ही संयम के स्थान (कारण) हैं। १३. कुछ लोग केवल ग्रंथ के पंडित (शब्द-पंडित) होते हैं, 'यथार्थ पंडित' (भावपंडित) नहीं होते। १४. प्रत्येक 'वाद' रागद्वेष की वृद्धि करने वाला है । १५. वस्तुतः विवेक ही मोक्ष है। १६. यदि कोई वन में रहने मात्र से ही ज्ञानी और तपस्वी हो जाता है, तो फिर सिंह, वाघ आदि भी ज्ञानी, तपस्वी हो सकते हैं । १७. जब तक शरीर है, तब तक भूख है। १८. बूढ़ा होकर कोई फिर उत्तानशायी दूधमुंहा बालक नहीं हो सकता। १९. परिग्रह (धनसंग्रह) बिना हिंसा के नहीं होता। २०. समभाव ही सामायिक है । २१. कर्म करो, किंतु मन को दूषित न होने दो। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ चौदह सूक्ति त्रिवेणी २२. समाधिर्नाम रागद्वेषपरित्यागः -सूत्र० चू० १।२।२ २३. न हि सुखेन सुखं लभ्यते । --सूत्र० चू० १।३।४ २४. न निदानमेव रोगचिकित्सा । --सूत्र० पू० १।१२ २५. कर्मभीताः कर्माण्येव वर्धयन्ति । --सूत्र० चू० १।१२ २६. ज्ञानधनानां हि साधूनां किमन्यद् वित्तं स्यात् ? --सूत्र० चू० १।१४ २७. सयणे सुवंतो साधू, साधुरेव भवति । -सूत्र० चू० १।१४ २८. शरीरधारणार्थं स्वपिति, निद्रा हि परमं विश्रामणं । --सूत्र० चू० १११४ २९. गेहंमि अग्गिजालाउलंमि, जह णाम डज्झमाणंमि । जो बोहेइ सुयंतं, सो तस्स जणो परमबंधु ॥ -सूत्र० ५० १।१४ ३०. मणसंजमो णाम अकुसलमणनिरोहो, कुसलमणउदीरणं वा । -दशवकालिक पूर्णि, अध्ययन १ ३१. साहुणा सागरो इव गंभीरेण होयव्वं । – दशव० चू० १ ३२. मइलो पडो रंगिओ न सुंदरं भवइ । - दशव० धू०४ ३३. अरत्त-दुट्ठस्स परिभुंजतस्स ण परिग्गहो भवति । - दशव ० ५०६ ३४. कोवाकुलचित्तो जं संतमवि भासति, तं मोसमेव भवति । -वश• धू०७ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिसाहित्य की सूक्तियाँ २२. रागद्वेष का त्याग ही समाधि है । २३. सुख से ( आसानी से ) सुख नहीं मिलता । २४. केवल निदान ( रोग परीक्षा ) ही रोग की चिकित्सा नहीं है । २५. कर्मों से डरते रहने वाले प्रायः कर्म ही बढ़ाते रहते हैं । २६. जिनके पास ज्ञान का ऐश्वर्य है, उन साधु पुरुषों को, और क्या ऐश्वर्य चाहिए ? दो सौ पन्द्रह २७. बाहर में शय्या पर सोता हुआ भी साधु, ( अन्दर में जागृत रहने से ) साधु है, २८. साधक स्वास्थ्य रक्षा के लिए ही सोता है, क्योंकि निद्रा भी बहुत बड़ी विश्रांति है । २९. अग्नि की ज्वालाओं से जलते हुए घर में सोए व्यक्ति को, यदि कोई जगा देता है, तो वह उसका सर्वश्रेष्ठ बंधु है । ३०. अकुशल मन का निरोध और कुशल मन का प्रवर्तन -मन का संयम है । ३१. साधु को सागर के समान गंभीर होना चाहिए । ३२. मलिन वस्त्र रंगने पर भी सुंदर नहीं होता । ३३. राग-द्वेष से रहित साधक वस्तु का परिभोग ( उपयोग ) करता हुआ भी परिग्रही नहीं होता । ३४. क्रोध से क्षुब्ध हुए व्यक्ति का सत्य भाषण भी असत्य ही है । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ सोलह सूक्ति त्रिवेणी ३५. जं भासं भासंतस्स सच्चं मोसं वा चरित्तं विसुज्झइ, सव्वा वि सा सच्चा भवति । जं पुण भासमाणस्स चरित्तं न सुज्झति, सा मोसा भवति । - दशवै० चू० ७ ३६. न धर्मकथामन्तरेण दर्शनप्राप्तिरस्ति । -उत्तराध्ययन चूर्णि, अध्ययन १ ३७. सव्वणाणुत्तरं सुयणाणं । -उत्त० चू० १ ३८. न विनयशून्ये गुणावस्थानम् । --उत्त० च० १ ३९. यदा निरुद्धयोगास्रवो भवति, तदा जीवकर्मणोः पृथक्त्वं भवति । -उत्त० चू० १ ४०. पापाद् डीनः-पंडितः । - उत्त० चू० १ ४१. पुरुषस्य हि भुजावेव पक्षौ । --उत्त० चू० १ ४२. पासयति पातयति वा पापं । - उत्त० चू० २ ४३. समो सव्वत्थ मणो जस्स भवति स समणो। -उत्त० चू० २ ४४. मनसि शेते--मनुष्यः । -उत्त० चू० ३ ४५. मरणमपि तेषां जीवितवद् भवति । -उत्त० चू०५ ४६. सर्वो हि आत्मगृहे राजा। -उत्त० चू०७ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणिसाहित्य की सूक्तियाँ दो सौ सत्रह ३५. जिस भाषा को बोलने पर-चाहे वह सत्य हो या असत्य-चारित्र की शुद्धि होती है, तो वह सत्य ही है और जिस भाषा के बोलने पर चारित्र की शुद्धि नहीं होती-चाहे वह सत्य ही क्यों न हो--असत्य ही है । अर्थात् साधक के लिए शब्द का महत्त्व नहीं, भावना का महत्त्व है। ३६. धर्म कथा के बिना दर्शन (सम्यक्त्व) की उपलब्धि नहीं होती। ३७. साधना की दृष्टि से श्रुत ज्ञान सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है । ३८. विनयहीन व्यक्ति में सद्गुण नहीं ठहरते । ३९. जब आत्मा मन, वचन, काया की चंचलतारूप योगास्रव का पूर्ण निरोध __कर देता है, तभी सदा के लिए आत्मा और कर्म पृथक् हो जाते ४०. जो पाप से दूर रहता है, वह पंडित है। ४१. मनुष्य की अपनी दो भुजाएँ ही उसकी दो पाँखें हैं। ४२. जो आत्मा को बांधता है, अथवा गिराता है, वह पाप है। ४३. जिसका मन सर्वम सम रहता है, वह समण (श्रमण) है। ४४. जो मन में सोता है-अर्थात् चिंतन मन में लीन रहता है, वह मनुष्य ४५. उज्च आदर्श से लिए श्रेष्ठ पुरुषों का मरण भी, जीवन के समान है। ४६. अपने घर में हर कोई राजा होता है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ अठारह ४७. परिणिव्वुतो णाम रागद्दोसविमुक्के । सूक्ति त्रिवेणी ४८. यस्तु आत्मनः परेषां च शान्तये, तद् भावतीर्थं भवति । - उत्त० चू० १० - उत्त० चू० १२ ४९. शरीरलेश्यासु हि अशुद्धास्वपि आत्मलेश्याः शुद्धा भवन्ति । - ५०. द्रव्यब्रह्म अज्ञानिनां वस्तिनिग्रहः, मोक्षाधिकारशून्यत्वात् । -- उत्त० चू० १६ - उत्त० चू० १२ ५१. देशकालानुरूपं धर्मं कथयन्ति तीर्थंकराः । -- उत्त० चू० २३ ५२. परमार्थतस्तु ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षकारणं, न लिंगादीनि । -- उत्त० चू० २३ ५३. स्थिरीकरणात् स्थविरः । ५४. अमुक्तस्य च निर्वृतिर्नास्ति । उत्त० चू० २८ ५५. जो अप्पणो परस्स वा आवत्तीए वि न परिच्चयति, सो बंधू -- नंदी सूत्र, चूर्णि १ ५६. सव्वसत्ताण अहिंसादिलक्खणो धम्मो पिता, रक्खणत्तातो । ५७. चिंतिज्जइ जेण तं चित्तं । ५८. विसुद्धभावत्तणतो य सुगंधं । ५९. विविहकुलुप्पण्णा साहवो कप्परुक्खा | -- उत्त० ० २७ - नंदी० ० चू० १ -- मंदी० चू० २।१३ - नंदी० १० चू० २।१३ - नंदी० चू० २।१६ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणिसाहित्य की सूक्तियां दो सौ उन्नीस ४७. राग और द्वेष से मुक्त होना ही परिनिर्वाण है । ४८. जो अपने को और दूसरों को शान्ति प्रदान करता है, वह ज्ञान-दर्शन चारित्र रूप भावतीर्थ है । ४९. बाहर में शरीर को लेश्या (वर्ण आदि) अशुद्ध होने पर भी अन्दर में आत्मा की लेश्या (विचार) शुद्ध हो सकती है। ५०. अज्ञानी साधकों का चित्तशुद्धि के अभाव में किया जाने वाला केवल जननेंद्रिय-निग्रह द्रव्य ब्रह्मचर्य है, क्योंकि वह मोक्षाधिकार से शून्य है। ५१. तीर्थकर देश और काल के अनुरूप धर्म का उपदेश करते हैं। ५२. परमार्थ दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है, वेष आदि नहीं। ५३. जो अपने को और दूसरों को साधना में स्थिर करता है-वह स्थविर है। ५४. मुक्त हुए बिना शान्ति प्राप्त नहीं होती। ५५. जो अपने या दूसरे के संकट काल में भी अपने स्नेही का साथ नहीं छोड़ता है, वह बंधु है। ५६. अहिंसा, सत्य आदि धर्म सब प्राणियों का पिता है, क्यों कि वही सबका रक्षक है। ५७. जिससे चिंतन किया जाता है, वह चित्त है। ५८. विशुद्ध भाव अर्थात् पवित्र विचार ही जीवन की सुगंध है । ५९. विविध कुल एवं जातियों में उत्पन्न हुए साधु पुरुष पृथ्वी पर के कल्प वृक्ष हैं। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ बीस सूक्ति त्रिवेणी ६०. भूतहितं ति अहिंसा । -नंदी० चू० ५।३८ ६१. स्व-परप्रत्यायकं सुतनाणं । -नंदो० चू० ४४ ६२. खंडसंजुतं खीरं पित्तजरोदयतो ण सम्म भवइ । -नंदो० चू० ७१ ६३. अणेगधा जाणमाणो विण्णाता भवति । -नंदो० चू० ८५ ६४. संघयणा भावा उच्छाहो न भवति । दशाश्रुतस्कन्ध चूणि, पृ० ३ ६५. सीसस्स वा विणयादिजुत्तस्स दितो निरिणो भवति । --दशा० चू०, पृ० २३ ६६. मोक्खत्थं आहार-विहाराइसु अहिगारो कीरति । -निशीथ चूणि, भाष्य गाथा, ११ ६७. णाणं पि काले अहिज्जमाणं णिज्जराहेऊ भवति । अकाले पुण उवघाय करं कम्मबंधाय भवति । --नि० चू० ११ ६८. विणओववेयस्स इह परलोगे वि विज्जाओ फलं पयच्छंति । -नि० चू० १३ ६९. मोहो विण्णाण विवच्चासो । -नि० चू० २६ ७०. अण्णाणोवचियस्स कम्मचयस्स रित्तीकरणं चारित्तं । --- नि० चू० ४६ ७१. तप्पते अणेण पावं कम्ममिति तपो। -नि० चू० ४६ ७२. भावे णाणावरणातीणि पंको । -नि० चू०७० Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्णिसाहित्य की सूक्तियां दो सौ इक्कीस ६०. प्राणियों का हित अहिंसा है। ६१. स्व और पर को बोध कराने वाला ज्ञान-श्रुत-ज्ञान है । ६२. खांड मिला हुआ मधुर दूध भी पित्तज्वर में ठीक नहीं रहता। ६३ वस्तु स्वरूप को अनेक दृष्टियों से जानने वाला ही विज्ञाता है। ६४. संहनन (शारीरिक शक्ति) क्षीण होने पर धर्म करने का उत्साह नहीं होता। ६५. गुरु, विनयादि गुणयुक्त शिष्य को ज्ञानदान कर देने पर अपने गुरु के ऋण से मुक्त हो जाता है। ६६. साधक के आहार-विहार आदि का विधान मुक्ति के हेतु किया गया ६७. शास्त्र का अध्ययन उचित समय पर किया हुआ ही निर्जरा का हेतु होता है, अन्यथा वह हानि कर तथा कर्मबंध का कारण बन जाता है । ६८. विनयशील साधक की विद्याएं यहाँ वहाँ ( लोक परलोक में ) सर्वत्र सफल होती हैं। ६९. विवेकज्ञान का विपर्यास ही मोह है। ७०. अज्ञान से संचित कर्मों के उपचय को रिक्त करना--चारित्र है। ७१. जिस साधना से पाप कर्म तप्त होता है, वह तप है। ७२. भाव-दृष्टि से ज्ञानावरण (अज्ञान) आदि दोष आभ्यंतर पंक हैं । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ बाईस सूक्ति त्रिवेणी ७३. तवस्स मूलं धिती। -नि० चू० ८४ ७४. पमाया दप्पो भवति अप्पमाया कप्पो। -नि० ० ९१ ७५. सति पाणातिवाए अप्पमत्तो अवहगो भवति, एवं असति पाणातिवाए पमत्तताए वहगो भवति । -नि० चू० ९२ ७६. णाणातिकारणावेक्ख अकप्पसेवणा कप्पो। -नि० चू० ९२ ७७. माया-लोभेहितो रागो भवति । कोह-माणेहिंतो दोसो भवति । --नि० चू० १३२ ७८. गेलण्णे य बहुतरा संजमविराहणा। -नि० चू० १७५ ७९. निन्भएणगंतव्वं । - नि० चू० २७३ ८०. पिट्ठरं णिण्हेहवयणं खिसा । मउय सिणेहवयणं उवालंभो ॥ -नि० चू० २६३७ ८१. समभावोसामायियं, तं सकसायस्स णो विसुज्झेज्जा । -नि० चू० २८४६ ८२. गुणकारित्तणातो ओम भोत्तव्वं । --नि० चू० ६९५१ ८३. पुन्नं मोक्खगमणविग्धाय हवति । --नि० चू० ३३२९ ८४. यत्रात्मा तत्रोपयोगः, यत्रोपयोगस्तत्रात्मा । --नि० चू० ३३३२ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ तेईस चर्णिसाहित्य की सूक्तियां ७३. तप का मूल धृति अर्थात् धैर्य है। ७४. प्रमाद भाव से किया जाने वाला अपवादसेवन दर्प होता है और वही अप्रमाद भाव से किया जाने पर कल्प = आचार हो जाता है । ७५. प्राणातिपात, होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है, और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है। ७६. ज्ञानादि की अपेक्षा से किया जाने वाला अकल्पसेवन भी कल्प है। ७७. माया और लोभ से राग होता है। क्रोध और मान से द्वेष होता है । ७८. रोग हो जाने पर बहुत अधिक संयम की विराधना होती है। ७९. जीवन पथ पर निर्भय होकर विचरण करना चाहिए । ८०. स्नेहरहित निष्ठुर वचन खिसा (फटकार) है, स्नेहसिक्त मधुर वचन उपालंभ (उलाहना) है। ८१. समभाव सामायिक है, अतः कषाययुक्त व्यक्ति का सामायिक विशुद्ध नहीं होता। ८२. कम खाना गुणकारी है। ८३. परमार्थ दृष्टि से पुण्य भी मोक्ष प्राप्ति में विघातक = बाधक है । ८४. जहाँ आत्मा है, वहाँ उपयोग (चेतना) है, जहाँ उपयोग है, वहाँ आत्मा है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ चौबीस सूक्ति त्रिवेणी ८५. यत्र तपः, तत्र नियमात्संयमः । यत्र संयमः, तत्रापि नियमात् तपः । -नि० चू० ३३३२ ८६. अन्नं भासइ अन्नं करेइ त्ति मुसावाओ। -नि० चू० ३९८८ ८७. आवत्तीए जहा अप्पं रक्खंति, तहा अण्णोवि आवत्तीए रक्खियव्वो। -नि० चू० ५९४२ ८८. णाणदंसणविराहणाहिं णियमा चरणविराहणा। -नि० चू० ६१७८ ८९. दव्वेण भावेण वा, जं अप्पणो परस्स वा उवकारकरणं, तं सव्वं वेयावच्चं ॥ --नि० चू० ६६०५ ९०. पमायमूलो बंधो भवति । -नि० चू० ६६८९ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूणिसाहित्य की सूक्तियां दो सौ पच्चीस ८५. जहाँ तप है, वहाँ नियम से संयम है, और जहाँ संयम है, वहाँ नियम से तप है। ८६. 'कहना कुछ और करना कुछ '-- यही मृषावाद (असत्य भाषण) है । ८७. आपत्तिकाल में जैसे अपनी रक्षा की जाती है, उसी प्रकार दूसरों की भी रक्षा करनी चाहिए। ८८. ज्ञान और दर्शन की विराधना होने पर चारित्र की विराधना निश्चित भोजन, वस्त्र आदि द्रव्य रूप से, और उपदेश एवं सत्प्रेरणा आदि भावरूप से, जो भी अपने को तथा अन्य को उपकृत किया जाता है, वह सब वैय्यावृत्य है। ९०. कर्मबंध का मूल प्रमाद है । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्तिकण १. एगे आया। -- समवायांग १११ २. विणयमूले धम्मे पन्नत्ते । -ज्ञाता धर्मकथा ११५ ३. रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स पत्थि सोही । -ज्ञाता०११५ ४. अहं अव्वए वि, अहं अवट्ठिए वि । -ज्ञाता० ५।१ ५. भोगेहिं य निरवयक्खा, तरंति संसारकतारं । --ज्ञाता० ११६ ६. सुरूवा वि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा वि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति । -ज्ञाता० १११२ ७. चविखंदियदुइंतत्तणस्स, अह एत्तिओ हवइ दोसो ।। जं जलणंमि जलंते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ ।। -ज्ञाता० १११७।४ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. स्वरूपदृष्टि से सब आत्माएँ एक ( समान ) हैं । २. धर्म का मूल विनय आचार है । ३. रक्त से सना बस्त्र रक्त से धोने से शुद्ध नहीं होता । ४. मैं ( आत्मा ) अव्यय = अविनाशी हूँ, अवस्थित = एकरस हूँ । ५. जो विषय भोगों से निरपेक्ष रहते हैं, वे संसार वन को पार कर जाते हैं । सूक्तिकण ६. सुरूप पुद्गल (सुंदर वस्तुएँ) कुरूपता में परिणत होते रहते हैं और कुरूप पुद्गल सुरूपता में ७. चक्षुष इन्द्रिय की आसक्ति का इतना बुरा परिणाम होता है कि मूर्ख पतंगा जलती हुई भाग में गिर कर मर जाता है । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति त्रिवेणी दो सौ अट्ठाईस ८. सयस्स वि य णं कुडुंबस्स मेढीपमाणं, आहारे, आलंबणं, चक्खू । । -उपासक दशा ११५ ९. कालं अणवकंखमाणे विहरइ । --उपा० ११७३ १०. संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । --उपा० ११७६ ११. भारिया धम्मसहाइया, धम्मविइज्जिया, धम्माणुरागरत्ता समसुहदुक्खसहाइया । --उपा० ७२२।७ १२. जलबुब्बुयसमाणं कुसग्गजलबिंदुचंचलं जीवियं । --औपपातिक सूत्र २३ । १३. निरुवलेवा गगणमिव, निरालंबणा अणिलो इव ।। --औप० २७ १४. अजियं जिणाहि; जियं च पालेहि । -औप० ५३ १५. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति । दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति ।। --औप० ५६ १६. धम्म णं आइक्खमाणा तुब्भे उवसमं आइक्खह, उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह । --औप० ५८ १७. ण वि अस्थि माणुसाणं, तं सोक्खं ण वि य सव्व देवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं ॥ --औष. १८० Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति कण दो सौ उनतीस ८. गृहस्थ को अपने परिवार में मेढीभूत (स्तंभ के समान उत्तरदायित्व वहन करने नाला), आधार, आलंबन और चक्षु अर्थात् पथ-प्रदर्शक बनना चाहिए। ९. साधक कष्टों से जूझता हुआ काल = मृत्यु से अनपेक्ष होकर रहे । १०. साधक संयम और तप से आत्मा को सतत भावित करता रहे। . ११. पत्नी -धर्म में सहायता करनेवाली, धर्म की साथी, धर्म में अनुरक्त तथा सुख दुःख में समान साथ देने वाली होती है। १२. जीवन पानी के बुलबुले के समान और कुशा की नोंक पर स्थित जलबिंदु के समान चंचल है। १३. संत जन आकाश के समान निरवलेप और पवन के समान निरालंब होते १४. राजनीति का सूत्र है--'नहीं जीते हुए शत्रुओं को जीतो और जीते हुओं का पालन करो।' १५. अच्छे कर्म का अच्छा फल होता है। बुरे कर्म का बुरा फल होता है । १६. प्रभो! आपने धर्म का उपदेश देते हुए उपशम का उपदेश दिया और उपशम का उपदेश देते हुए विवेक का उपदेश दिया। १७. संसार के सब मनुष्यों और सब देवताओं को भी वह सुख प्राप्त नहीं है, जो सुख अव्याबाध स्थिति को प्राप्त हुए मुक्त आत्माओं को है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ तीस सूक्ति त्रिवेणी १८. जे से पुरिसे देति वि, सण्णवेइ वि से णं ववहारी । जे से पुरिसे नो देति, नो सण्णवेइ से णं अववहारी । --राजप्रश्नीय ४७० १९. जत्थेव धम्मायरियं पासेज्जा, तत्थेव वंदिज्जा नमंसिज्जा। -राजप्र० ४१७६ २०. मा णं तुमं पदेसी! पुव्वं रमणिज्जे भवित्ता, पच्छा अरमणिज्जे भवेज्जासि । । --राजप्र० ४१८२ २१. सम्मद्दिट्ठिस्स सुयं सुयणाणं, मिच्छद्दिट्ठिस्स सुयं सुयअन्नाणं । -नंदी सूत्र ४४ २२. सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो णिच्चुग्घाडियो।। -नंदी० ७५ २३. सुट्ठ वि मेहसमुदए होति पभा चंद-सूराणं । --नंदी० ७५ २४. अणुवओगो दव्वं । अनुयोग द्वार सू० १३ २५. सित्थेण दोणपाग, कविं च एक्काए गाहाए । --अनु० ११६ २६. जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे णिअमे तवे । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासि ॥' -अनु० १२७ २७. जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासि ॥२ -अनु० १२८ २८. जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं । .. म हणइ न हणावेइ अ, सममणइ तेण सो समणो ॥ -अनु० १२९ १-नियमसार १२७। २--नियमसार १२६ । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति कण दो सौ इकतीस १८. जो व्यापारी ग्राहक को अभीष्ट वस्तु देता है और प्रीतिवचन से संतुष्ट भी करता है, वह व्यवहारी है । जो न देता है और न प्रीतिवचन से संतुष्ट ही करता है, वह अव्यवहारी है। १९. जहाँ कहीं भी अपने धर्माचार्य को देखें, वहीं पर उन्हें वन्दना नमस्कार करना चाहिए। २०. हे राजन् ! तुम जीवन के पूर्वकाल में रमणीय होकर उत्तर काल में अरमणीय मत बन जाना। २१. सम्यक्दृष्टि का श्रुत, श्रुत ज्ञान है। मिथ्यादृष्टि का श्रुत, श्रुत अज्ञान है । २२. सभी संसारी जीवों का कम से कम अक्षर-ज्ञान का अनन्तवा भाग तो सदा उद्घाटित ही रहता है। २३. धने मेघावरणों के भीतर भी चंद्र सूर्य की प्रभा कुछ-न-कुछ प्रकाशमान रहती ही है। २४. उपयोगशून्य साधना द्रव्य-साधना है, भाव-साधना नहीं। २५. एक कण से द्रोण' भर पाक की और एक गाथा से कवि की परीक्षा हो जाती है। २६. जिसकी आत्मा संयम में, नियम में एवं तप में सन्निहित = तल्लीन है, उसी की राच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है। २७. जो त्रस (कीट, पतंगादि) और स्थावर (पृथ्वी, जल आदि) सब जीवों के _ प्रति सम है अर्थात् समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान ने कहा है। २८. जिस प्रकार मुझ को दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को दु:ख प्रिय नहीं है ; जो ऐसा जानकर न स्वयं हिंसा करता है, न किसी से हिंसा करवाता है, वह समत्वयोगी ही सच्चा 'समण' है। १--१६ या ३२ सेर का एक तील विशेष । -संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ बत्तीस सूक्ति त्रिवेणी २९. तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो । सयणे अ जणे अ समो, समो अ माणावमाणेसु ।। --अनु० १३२ ३०. उवसमसारं खु सामण्णं । -बृहत्कल्प सूत्र ११३५ ३१. जो उवसमइ तस्स अत्थि आराहणा, जो न उवसमइ तस्स णत्थि आराहणा । -बृह० ११३५ ३२. आगमबलिया समणा निग्गंथा । -व्यवहार सूत्र १० ३३. गिलाणं वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे, महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति । -व्यवहार० १० ३४. चत्तारि पुरिसजाया रूवे णाम एगे जहइ णो धम्म । धम्मे णाम एगे जहइ णो रूवं । एगे रूवं वि जहइ धम्म पि, एगे णो रूवं जहइ णो धम्म । --व्यवहार १० ३५. ओयं चित्तं समादाय झाणं समुप्पज्जह। धम्मे ठिओ अविमणे, निव्वाणमभिगच्छह ॥ -दशा श्रुतस्कंध ५।१ ३६. मं चित्तं समादाय, भुज्जो लोयंसि न जायइ । -दशा० ५।२ ३७. अप्पाहारस्स दंतस्स, देवा दंसेंति ताइणो । --दशा० ५।४ ३८. सुक्कमले जधा रुक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति । एवं कम्मा न रोहंति, मोहणिज्जे खयं गते । -दशा० ५।१४ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति कण दो सौ तेंतीस २९. जो मन से सु-मन (निमल मन वाला) है, संकल्प से भी कभी पापोन्मुख नहीं होता, स्वजन तथा परजन में, मान एवं अपमान में सदा सम रहता है, वह 'समण' होता है। ३०. श्रमणत्व का सार है---उपशम ! ३१. जो कषाय को शान्त करता है, वही आराधक है। जो कषाय को शांत नहीं करता, उसकी आराधना नहीं होती। ३२. श्रमण निर्ग्रन्थों का बल 'आगम' (शास्त्र) ही है। ३३. रुग्ण साथी की सेवा करता हुआ श्रमण महान् निर्जरा और महान् पर्य वसान (परिनिर्वाण) करता है । ३४. चार तरह के पुरुष हैं-- कुछ व्यक्ति वेष छोड़ देते हैं, किंतु धर्म नहीं छोड़ते । कुछ धर्म छोड़ देते हैं, किंतु वेष नहीं छोड़ते । कुछ वेष भी छोड़ देते हैं और धर्म भी। और कुछ ऐसे होते हैं जो न वेष छोड़ते हैं, और न धर्म ! ३५. चित्तवृत्ति निर्मल होने पर ही ध्यान की सही स्थिति प्राप्त होती है। जो बिना किसी विमनस्कता के निर्मल मन से धर्म में स्थित है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है। ३६. निर्मल चित्त वाला साधक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता। ३७. जो साधक अल्पाहारी है, इन्द्रियों का विजेता है, सभी प्राणियों के प्रति रक्षा की भावना रखता है, उसके दर्शन के लिए देव भी आतुर रहते हैं। ३८. जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सींचिए, वह हरा भरा नहीं होता । मोह के क्षीण होने पर कर्म भी फिर हरे भरे नहीं होते। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ चौंतीस ३९. जहा दड्ढाण बीयाणं, ण जायंति पुणंकुरा । कम्मबीएसु दड्ढेसु, न जायंति भवंकुरा ॥ ४०. धंसेई जो अभूएणं, अकम्मं अत्त-कम्मुणा । अदुवा तुम कासित्ति, महामोहं पकुव्वइ ॥ ४१. जाणमाणो परिसाए, सच्चामोसाणि भासइ । अक्खीण-झंझे पुरिसे, महामोहं पकुब्वइ || ४२. जं निस्सिए उव्वहइ, जससाहिगमेण वा । तस्स लुब्भइ वित्तं पि, महामोहं पकुव्वइ || ४३. बहुजणस्स णेयारं, दीव-ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हंता, महामोहं पकुब्वइ ॥ ४४. नाणी नवं न बन्धइ । ४६. तण-कट्ठेहि व अग्गी, लवणजलो वा नईसहस्से हिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेउं कामभोगेहि ॥ ४७. गहिओ सुग्गइमग्गो, नाहं मरणस्स बीहेमि । -दशा ० ५।१५ सूक्ति त्रिवेणी ४८. धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं दुहं पि हु मरियव्वे, वरं खु धीरतणे मरिउं ॥ -- दशवैकालिक नियुक्ति ३१६ ४५. हिअ - मिअ-अफरुसवाई, अणुवी इभासि वाइओविणओ । - दशवै० नि० ३२२ दशा ० ९१८ --दशा ० ९१९ - दशा० ९।१५ -- आतुर प्रत्याख्यान ५० - दशा० ९।१७ - आतुर० ६३ । -- आतुर० ६४ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति कण दो सो पेंतीस ३९. बीज जब जल जाता है, तो उससे नवीन अंकुर प्रस्फुटित नहीं हो सकता। ऐसे ही कर्म बीज के जल जाने पर उससे जन्ममरणरूप अंकुर प्रस्फुटित नहीं हो सकता। ४०. जो अपने किए हुए दुष्कर्म को दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर डाल कर उसे __ लांछित करता है कि 'यह पाप तूने किया है ' वह महामोह कर्म का बंध करता है। ४१. जो सही स्थिति को जानता हुआ भी सभा के बीच में अस्पष्ट एवं मिश्र भाषा (कुछ सच कुछ झूठ) का प्रयोग करता है, तथा कलह-द्वेष से युक्त है, वह महामोह रूप पाप कर्म का बंध करता है । ४२. जिसके आश्रय, परिचय तथा सहयोग से जीवनयात्रा चलती हो उसी की संपत्ति का अपहरण करने वाला दुष्ट जन महामोह कर्म का बंध करता है। ४३. दुःखसागर में डूबे हुए दुःखी मनुष्यों का जो द्वीप के समान सहारा होता है, जो बहुजन समाज का नेता है, ऐसे परोपकारी व्यक्ति की हत्या करने वाला महामोह कर्म का बन्ध करता है । ४४. ज्ञानी नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता। ४५. हित, मित, मृदु और विचार पूर्वक बोलना वाणी का विनय है । ४६. जिस प्रकार तृण, काष्ट से अग्नि, तथा हजारों नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता है, उसी प्रकार रागासक्त आत्मा काम-भोगों से तृप्त नहीं हो पाता। ४७. मैंने सद्गति का मार्ग (धर्म) अपना लिया है, अब मैं मृत्यु से नहीं डरता। ४८. धीर पुरुष को भी एक दिन अवश्य मरना है, और कायर को भी, जब दोनों को ही मरना है तो अच्छा है कि धीरता (शान्त भाव) में ही मरा जाए। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ छत्तीस सूक्ति त्रिवेणी ४९. दंसणभट्ठो भट्ठो, दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । --भक्तपरिज्ञा ६६ ५०. जह मक्कडओ खणमवि, मज्झत्थो अच्छिउं न सक्केइ । तह खणमवि मज्झत्थो, विसएहिं विणा न होइ मणो । -भक्त० ८४ ५१. धम्ममहिंसासमं नत्थि । -भक्त० ९१ ५२. जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ । -भक्त० ९३ ५३. अगीअत्थस्स वयणेणं, अमयंपि न घुटए । ----गच्छाचार ४६ ५४. जेण विरागो जायइ, तं तं सव्वायरेण कायव्वं । --महाप्रत्याख्यान १०६ ५५. सो नाम अणसणतवो, जेण मणो मंगलं न चितेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ।। --मरणसमाधि १३४ ५६. किं इत्तो लट्ठयरं अच्छेरययं व सुंदरतरं वा ? चंदमिव सव्वलोगा, बहुस्सुयमुहं पलोयंति , -मरण० १४४ ५७. नाणेण य करणेण य दोहि वि दुक्खक्खयं होइ ।। -मरण० १४७ ५८. अत्थो मूलं अणत्थाणं । -~मरण ६०३ ५९. न हु पावं हवइ हियं, विसं जहा जीवियत्थिस्स । --मरण०६१३ ६०. हुंति गुणकारगाई, सुयरज्जूहिं धणियं नियमियाइं । नियगाणि इंदियाइं, जइणो तुरगा इव सुदंता । --मरण०६२२ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गूक्ति कण दो सौ सेंतीस ४९. जो सम्यक्दर्शन से भ्रष्ट है, वस्तुतः वही भ्रष्ट है, पतित है। क्योंकि दर्शन से भ्रष्ट को मोक्ष प्राप्त नहीं होता। ५०. जैसे बंदर क्षणभर भी शांत होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही मन भी संकल्प विकल्प से क्षणभर के लिए भी शांत नहीं होता। ५१. अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है। ५२. किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुतः अपनी ही हत्या है और अन्य जीव की दया अपनी ही दया है। ५३. अगीतार्थ = अज्ञानी के कहने से अमृत भी नहीं पीना चाहिए । ५४. जिस किसी भी क्रिया से वैराग्य की जागृति होती हो, उसका पूर्ण श्रद्धा के साथ आचरण करना चाहिए । ५५. वही अनशन तप श्रेष्ठ है जिस से कि मन अमंगल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो और नित्यप्रति की योग-धर्म क्रियाओं में विघ्न न आए। ५६. इससे बढ़कर मनोहर, सुंदर और आश्चर्यकारक क्या होगा कि लोग बहुश्रुत के मुख को चन्द्र-दर्शन की तरह देखते रहते हैं । ५७. ज्ञान और चारित्र-इन दोनों की साधना से ही दुःख का क्षय होता है। ५८. अर्थ अनर्थों का मूल है। ५९. जैसे कि जीवितार्थी के लिए विष हितकर नहीं होता, वैसे ही कल्याणार्थी के लिए पाप हितकर नहीं है। ६०. ज्ञान की लगाम से नियंत्रित होने पर अपनी इन्द्रियां भी उसी प्रकार लाभकारी हो जाती हैं, जिस प्रकार लगाम से नियंत्रित तेज दौड़ने वाला घोड़ा। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ अडतीस सुक्ति त्रिवेणी ६१. माणुसजाई बहुविचित्ता। -मरण०६४० ६२. सव्वत्थेसु समं चरे। -इसिभासियाई १८ ६३. मूलसित्ते फलुप्पत्ती, मूलधाते हतं फल । -इसि० २।६ ६४. मोहमूलाणि दुक्खाणि । -इसि० २७ ६५. खीरे दूसिं जधा पप्प, विणासमुवगच्छति । एवं रागो व दोसो य, बंभचेरविणासणो ।। ६६. सक्का वण्ही णिवारेतुं, वारिणा जलितो बहिं । सव्वोदही जलेणावि, मोहग्गी दुण्णिवारओ ।। -इसि० ३१७ -इसि० ३.१० ६७. मणुस्सहिदयं पुणिणं, गहणं दुब्बियाणकं । ---इसि० ४।६ ६८. संसारसंतईमूलं पुण्णं पावं पुरेकडं । -इसि० ९।२ ६९. पत्थरेणाहतो कीवो, खिप्पं डसइ पत्थरं । मिगरिऊ सरं पप्प, सरुप्पत्ति विमग्गति ॥ -इसि० १५।२० ७०. अण्णाणं परमं दुक्खं, अण्णाणा जायते भयं । अण्णाणमूलो संसारो, विविहो सव्वदेहिणं ।। -इसि० २१११ ७१. सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साहुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥ --इसि० २२११३ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति कण ६१. मानवजाति बहुत विचित्र है । ६२. साधक को सर्वत्र सम रहना चाहिए । ६३. मूल को सींचने पर ही फल लगते हैं । मूल नष्ट होने पर फल भी नष्ट हो जाता है । ६४. दुःखों का मूल मोह है । ६५. जरा-सी खटाई भी जिस प्रकार दूध को नष्ट कर देती है, उसी प्रकार राग-द्वेष का संकल्प संयम को नष्ट कर देता है । ६६. बाहर में जलती हुई अग्नि को थोड़े से जल से शांत किया जा सकता है । किंतु मोह अर्थात् तृष्णा रूप अग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी शांत नहीं किया जा सकता । ६७. मनुष्य का मन बड़ा गहरा है, इसे समझ पाना कठिन है । ६८. पूर्व कृत पुण्य और पाप ही संसार परम्परा का मूल है । ६९. दो सौ उनतालीस ७०. पत्थर से आहत होने पर कुत्ता आदि क्षुद्र प्राणी पत्थर को ही काटने दौड़ता है ( न कि पत्थर मारने वाले को), किंतु सिंह बाण से आहत होने पर बाण मारने वाले की ओर ही झपटता है । [ अज्ञानी सिर्फ प्राप्त सुख-दुःख को देखता है, ज्ञानी उसके हेतु को । ] अज्ञान सबसे बड़ा दुःख है । अज्ञान से भय उत्पन्न होता है, सब प्राणियों के संसार भ्रमण का मूल कारण अज्ञान ही है । ७१. आत्म-धर्म की साधना में ध्यान का प्रमुख स्थान है जैसे कि शरीर में मस्तक का, तथा वृक्ष के लिए उसकी जड़ का । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ चालीस सूक्ति त्रिवेणी ७२. सुभासियाए भासाए, सुकडेण य कम्मणा । पज्जण्ण कालवासी वा, जसं तु अभिगच्छति ।। --इसि० ३३।४ ७३. हेमं वा आयसं वावि, बंधणं दुख्खकारणा। महग्घस्सावि दंडस्स णिवाए दुक्खसंपदा ।। -इसि० ४५।५ ७४. उप्पज्जति वियंति य, भावा नियमेण पज्जवनयस्स । दव्वट्ठियस्स सव्वं, सया अणुप्पन्नमविणळें ॥ -सन्मतिप्रकरण १।११ ७५. दव्वं पज्जवविउयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि । उपाय-ट्ठिइ-भंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ --सन्मति० १।१२ ७६. तम्हा सव्वे वि णया, मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोण्णणिस्सिया उ ण, हवंति सम्मत्तसब्भावा । --सन्मति० ११२१ ७७. ण वि अत्थि अण्णवादो, ण वि तव्वाओ जिणोवएसम्मि । ---सन्मति० ३।२६ ७८. जावइया वयणपहा, तावइया चेब होति णयवाया । जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया ।। --सन्मति० ३१४७ ७९. दव्वं खित्तं कालं, भावं पज्जाय देस संजोगे। भेदं पडुच्च समा, भावाणं पण्णवणपज्जा । -सन्मति० ३।६० ८०. ण हु सासणभत्ती मेत्तएण सिद्धंतजाणओ होइ। ण वि जाणओ वि णियमा, पण्णवणाणिच्छिओ णामं ॥ ---सन्मति० ३१६३ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति कण दो सौ इकतालीस ७२. जो वाणी से सदा सुन्दर बोलता है और कर्म से सदा सदाचरण करता है। वह व्यक्ति समय पर बरसने वाले मेघ की तरह सदा प्रशंसनीय और जनप्रिय होता है। ७३. बंधन चाहे सोने का हो या लोहे का, बंधन तो आखिर दुःखकारक ही है । बहुत मूल्यवान दंड (डंडे) का प्रहार होने पर भी दर्द तो होता ही ७४. पर्याय दृष्टि से सभी पदार्थ नियमेन उत्पन्न भी होते हैं, और नष्ट भी। परन्तु द्रव्य-दृष्टि से सभी पदार्थ उत्पत्ति और विनाश से रहित सदाकाल ध्रुव हैं। ७५. द्रव्य कभी पर्याय के विना नहीं होता है और पर्याय कभी द्रव्य के विना नहीं होता है । अत: द्रव्य का लक्षण उत्पाद, नाश और ध्रुव (स्थिति) रूप है। ७६. अपने-अपने पक्ष में ही प्रतिबद्ध परस्पर निरपेक्ष सभी नय (मत) मिथ्या हैं, असम्यक् हैं, परन्तु ये ही नय जब परस्पर सापेक्ष होते हैं, तब सत्य एवं सम्यक् बन जाते हैं। ७७. जैन दर्शन में न एकान्त भेदभाव मान्य है और न एकान्त अभेदवाद । (अतः जैन दर्शन भेदाभेदवादी दर्शन है।) ७८. जितने वचनविकल्प हैं, उतने ही नयवाद हैं और जितने भी नयवाद हैं, संसार में उतने ही पर समय हैं, अर्थात् मत मतान्तर हैं। ७९. वस्तुतत्त्व की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल', भाव, पर्याय५, देश६, संयोग और भेद के आधार पर ही सम्यक् होती है । ८०. मात्र आगम की भक्ति के बल पर ही कोई सिद्धान्त का ज्ञाता नहीं हो सकता और हर कोई सिद्धान्त का ज्ञाता भी निश्चित रूप से प्ररूपणा करने के योग्य प्रवक्ता नहीं हो सकता । १. पदार्थ की मूल जाति, २. स्थिति क्षेत्र, ३. योग्य समय, ४. पदार्थ की मूल शक्ति, ५. शक्तियों के विभिन्न परिणमन अर्थात् कार्य, ६. व्यावहारिक स्थान, ७. आस-पास की परिस्थिति, ८. प्रकार । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ बियालीस ८१. सुत्तं अत्थनिमेणं, न सुत्तमेत्तेण अत्यपडिवत्ती । अत्थगई पुण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा || ८२. णाणं किरियारहियं, किरियामेत्तं च दोवि एगंता । ८३. भदं मिच्छादंसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ ८५. अक्खेहि णरो रहिओ, ण मुणइ सेसिंदए हिं वेएइ । जूयंधो ण य केण वि, जाणइ संपुष्णकरणो वि ॥ ८६. पासम्मि बहिणिमायं, सिसुं पि हणेइ कोहंधो । ८४. जेण विणा लोगस्स वि, ववहारो सव्वहा ण णिघडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो, णमो अगंतवास्स || ८८. -सन्मति ० ३।६४ ८७. जम्मं मरणेण समं, संपज्जइ जुव्वणं जरासहियं । लच्छी विणाससहिया, इय सव्वं भंगुरं मुणह || सूक्ति त्रिवेणी - सम्मति० ३।६८ ८९. संकष्पमओ जीओ, सुखदुक्खमयं हवेइ कप्पो । ९०. अंतरतच्चं जीवो, बाहिरतच्चं हवंति सेसाणि । ९१. हिदमिदवयणं भासदि, संतोसकरं तु सव्वजीवाणं - वसुनन्दि श्रावकाचार ६६ - सम्मति० ३।६९ - सन्मति ० ३।७० सव्वत्थ वि पियवयणं, दुव्वयणे दुज्जणे वि खमकरणं । सव्वेसि गुणगहणं, मंदकसायाण दिट्ठता || -वसु० श्रा० ६७ -- कार्तिकेयानुप्रेक्षा ५ -कार्तिके ० ६० ९१ -- कार्तिक ० १८४ - कार्तिके० २०५ । -- कार्तिके० ३३४ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति कण दो सौ तेतालीस ८१. सूत्र (शब्द पाठ) का स्थान अवश्य । परन्तु मात्र सूत्र से अर्थ की प्रति पत्ति नहीं हो सकती । अर्थ का ज्ञान तो गहन नयवाद पर आधारित होने के कारण बडी कठिनता से हो पाता है । ८२. क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया-दोनों ही एकान्त हैं (फलतः जैन दर्शनसम्मत नहीं हैं। ) ८३. विभिन्न मिथ्यादर्शनों का समूह, अमृतसार = अमृत के समान क्लेश का नाशक और मुमुक्षु आत्माओं के लिए सहज सुबोध भगवान जिन-प्रवचन का मंगल हो। ८४. जिसके बिना विश्व का कोई भी व्यवहार सम्यग् रूप से घटित नहीं होता है, अतएव जो त्रिभुवन का एक मात्र गुरु (सत्यार्थ का उपदेशक) है, उस अनेकान्त वाद को मेरा नमस्कार है। ८५. आँखों से अंधा मनुष्य, आँख के सिवाय बाकी सब इंद्रियों से जानता है. किन्तु जूए में अंधा हुआ मनुष्य सव इंद्रियां होने पर भी किसी इंद्रिय से कुछ नहीं जान पाता। ८६. क्रोध में अंधा हुआ मनुष्य पास में खडी मां, बहिन और बच्चे को भी मारने लग जाता है। ८७. जन्म के साथ मरण, यौवन के साथ बुढ़ापा, लक्ष्मी के साथ विनाश निरंतर लगा हुआ है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु को नश्वर समझना चाहिए । ८८. सब जगह प्रिय वचन बोलना, दुर्जन के दुर्वचन बोलने पर भी उसे क्षमा करना और सबके गुण ग्रहण करते रहना- यह मंदकषायी (शान्त स्वभावी) आत्मा के लक्षण हैं। ८९. जीव संकल्पमय है और संकल्प सुखदुःखात्मक हैं। ९०. जीव (आत्मा) अन्तस्तत्त्व है, बाकी सब द्रव्य बहिस्तत्त्व हैं। ९१. साधक दूसरों को संतोष देने वाला हितकारी और मित--संक्षिप्त वचन बोलता है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ चौबालीस मूक्ति त्रिवेणी ९२. जो बहुमुल्लं वत्थु, अप्पमुल्लेण णेव गिण्हेदि । वीसरियं पि न गिण्हदि, लाभे थूये हि तूसेदि ।। --कार्तिके० ३३५ ९३. धम्मो वत्थुसहावो । कातिके० ४७८ ९४. निग्गहिए मणपसरे, अप्पा परमप्पा हवइ । ९५. मणणरवइए मरणे, मरंति सेणाई इन्दियमयाई । -आराधना० ६० ९६. सुण्णीकयम्मि चित्ते, णूणं अप्पा पयासेइ । -आराधनासार० २० • --आराधना०७४ ९७. सुजणो वि होइ लहुओ, दुज्जणसंमेलणाए दोसेण । माला वि मोल्लगरुया, होदि लहू मडयसंसिट्ठा ।। --भगवती आराधना० ३४५ ९८. अकहिंतस्स वि जह गहवइणो जगविस्सुदो तेजो। --भ० आ० ३६१ ९९. वायाए अकहंता सुजणे, चरिदेहि कहियगा होति । --भ० आ०३६६ १००. किच्चा परस्स णिदं, जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज । ___ सो इच्छदि आरोग्गं, परम्मि कडुओसहे पीए । -भग० आ०३७१ १०१. दळूण अण्णदोसं, सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ । -भग० आ० ३७२ १०२. सम्मइंसणलंभो वरं खु तेलोक्कलंभादो। --भग० आ० ७४२ १०३. गाणं अंकुसभूदं मत्तस्स हु चित्तहत्थिस्स । -~भग० आ० ७६० Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति कण दो सौ पैंतालीस ९२. वही सद् गृहस्थ श्रावक कहलाने का अधिकारी है, जो किसी की बहुमूल्य वस्तु को अल्पमूल्य देकर नहीं ले, किसी की भूली हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करे, और थोड़ा लाभ (मुनाफा) प्राप्त करके ही संतुष्ट रहे । ९३. वस्तु का अपना स्वभाव ही उसका धर्म है। ९४. मन के विकल्पों को रोक देने पर आत्मा, परमात्मा बन जाता है। ९५. मन रूप राजा के मर जाने पर इन्द्रियां रूप सेना तो स्वयं ही मर जाती है। (अतः मन को मारने-वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए।) ९६. चित्त को (विषयों से) शून्य कर देने पर उसमें आत्मा का प्रकाश झलक उठता है। ९७. दुर्जन की संगति करने से सज्जन का भी महत्त्व गिर जाता है, जैसे कि मूल्यवान माला मुर्दे पर डाल देने से निकम्मी हो जाती है। ९८. अपने तेज का बखान नहीं करते हुए भी सूर्य का तेज स्वत: जगविश्रुत ९९. श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणों को वाणी से नहीं, किंतु सच्चरित्र से ही प्रकट करते हैं। १००. जो दूसरों की निंदा करके अपने को गुणवान प्रस्थापित करना चाहता है, वह व्यक्ति दूसरों को कड़वी औषध पिला कर स्वयं रोगरहित होने की इच्छा करता है। १०१. सत्पुरुष दूसरे के दोष देख कर स्वयं में लज्जा का अनुभव करता है। (वह कभी उन्हें अपने मुंह से नहीं कह पाता)। १०२. सम्यक्दर्शन की प्राप्ति तीन लोक के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है । १०३. मन रूपी उन्मत्त हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान अंकुश के समान Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो सौ छियालीस सूक्ति त्रिवेणी १०४. सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं । --भग० आ० ७९० १०५. जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया, हविज्ज जा जदिणो । तं जाण बंभचेरं, विमुक्कपरदेह तित्तिस्स ।। --भग० आ०८७८ . १०६. होदि कसाउम्मत्तो उम्मत्तो, तध ण पित्तउम्मत्तो। -भग० आ० १३३१ १०७. कोवेण रक्खसो वा, णराण भीमो णरो हवदि । -भग० आ० १३६१ १०८. रोसेण रुद्दहिदओ, णारगसीलो णरो होदि।। --भग० आ० १३६६ १०९. सयणस्स जणस्स पिओ, णरो अमाणी सदा हवदि लोए । णाणं जसं च अत्थं, लभदि सकज्जं च साहेदि ।। -भग० आ० १३७९ ११०. सच्चाण सहस्साण वि, माया एक्कावि णासे दि । --भग० आ० १३८४ १११. मग्गो मग्गफलं ति य, दुविहं जिणसासणे समक्खादं । --मूलाचार २०२ ११२. मणसलिले थिरभूए, दीसइ अप्पा तहाविमले । --तत्वसार ४१ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ति कण दो सौ सेंतालीस १८४. अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ--उत्पत्ति स्थान १०५, ब्रह्म का अर्थ है--आत्मा, आत्मा में चर्या-रमण करना-ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचारी की पर देह में प्रवृत्ति और तृप्ति नहीं होती। १०६. वात, पित्त आदि विकारों से मनुष्य वैसा उन्मत्त नहीं होता, जैसा कि कषायों से उन्मत्त होता है । कषायोन्मत्त ही वस्तुतः उन्मत्त है। १०७. क्रुद्ध मनुष्य राक्षस की तरह भयंकर बन जाता है । १०८. क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है। वह मनुष्य होने पर भी नारक (नरक के जीव) जैसा आचरण करने लग जाता है । १०९. निरभिमानी मनुष्य जन और स्वजन-सभी को सदा प्रिय लगता है। वह ज्ञान, यश और संपत्ति प्राप्त करता है तथा अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध कर सकता है। ११०. एक माया (कपट)--हजारों सत्यों का नाश कर डालती है । १११. जिन शासन (आगम) में सिर्फ दो ही बातें बताई गई हैं-मार्ग और मार्ग का फल । ११२. मन रूपी जल, जब निर्मल एवं स्थिर हो जाता है, तब उसमें आत्मा का दिव्य रूप झलकने लग जाता है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रान्तिकारी चिन्तक एवं विचारक पू. उपाध्याय कविश्री अमरम निजी ने गत अर्धशताधिक वर्षों में आधुनिक विचारों से परिप्लुत शताधिक ग्रन्थों की निर्मिति की है। मानव सेवा एवं आधुनिक शिवषा का केन्द्र बिहार में राजगृहीस्थित वीरायतन आप ही की कल्पना शक्ति का सुफल है / 88 वर्ष की अवस्था में भी गुरुदेव को अध्ययनशीलता का परिचायक प्रतीक अथाह जैन-शास्त्र-सागर-मन्थन प्राप्त अनमोल रत्नों का यह खजाना सूज्ञ पाठकों की ज्ञान तृष्णा को तृप्त करेगा। साथ में आप पायेंगे, उनका भावानुवाद भी। उपाय