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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियां
एक सौ तिरेपन
परंतु उक्त हिंसा के निमित्त से उस साधु को सिद्धान्त में सूक्ष्म भी कर्मबन्ध नहीं बताया है, क्योंकि वह अन्तर में सर्वतोभावेन उस हिंसाव्यापार से निर्लिप्त होने के कारण अनवद्य = निष्पाप है ।
९४. जो प्रमत्त व्यक्ति है, उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते हैं, वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है ।
परन्तु जो प्राणी नहीं मारे गये हैं, वह प्रमत्त उनका भी हिंसक ही है; क्यों कि वह अन्तर में सर्वतोभावेन हिंसावृत्ति के कारण सविद्य है, पापात्मा है।
९५. निश्चय दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा । जो प्रमत्त
है, वह हिंसक है और जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक ।
९६. केवल बाहर में दृश्यमान पापरूप हिंसा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता।
यदि साधक अन्दर में राग द्वेष से रहित शुद्ध है, तो जिनेश्वर देवों ने उसकी बाहर की हिंसा को कर्मबंध का हेतु न होने से निष्फल बताया है।
९७. जो यतनावान् साधक अन्तरंग-विशुद्धि से युक्त है, और आगमविधि के
अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा होने वाली विराधना (हिंसा) भी कर्मनिर्जरा का कारण है।
९८.
जो निश्चयदृष्टि के आलम्बन का आग्रह तो रखते हैं, परन्तु वस्तुतः उसके सम्बन्ध में कुछ जानते-बूझते नहीं हैं। वे सदाचार की व्यवहारसाधना के प्रति उदासीन हो जाते हैं, और इस प्रकार सदाचार को ही मूलतः नष्ट कर डालते हैं ।
९९. वैडूर्यरत्न काच की मणियों में कितने ही लम्बे समय तक क्यों न मिला
रहे, वह अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण रत्न ही रहता है, कभी काच नहीं होता। (सदाचारी उत्तम पुरुष का जीवन भी ऐसा ही होता है ।)
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