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________________ आचारांग की सूक्तियाँ ११५. ११६. ११७. ११८. ११९. १२०. १२१. १२२. १२३. १२४. १२५. जो विचारपूर्वक बोलता है, वही सच्चा निग्रंथ है । जो विचारपूर्वक नहीं बोलता है, उसका वचन कभी-न-कभी असत्य से दूषित हो सकता है । लोभ का प्रसंग आने पर व्यक्ति असत्य का आश्रय ले लेता है । सत्ताईस जो गुरुजनों की अनुमति लिए बिना भोजन करता है, वह अदत्तभोजी है, अर्थात् एक प्रकार से चोरी का अन्न खाता है । जो आवश्यकता से अधिक भोजन नहीं करता है, वही ब्रह्मचर्य का साधक सच्चा निग्रंथ है । यह शक्य नहीं है, कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएँ, अत: शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए । यह शक्य नहीं है, कि आँखों के सामने आने वाला अच्छा या बुरा रूप देखा न जाए, अत: रूप का नहीं, किंतु रूप के प्रति जागृत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए । यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आया हुआ सुगंध या दुर्गंध सूंघने में न आएँ, अत: गंध का नहीं, किंतु गंध के प्रति जगने वाली राग-द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए । यह शक्य नहीं है, कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आए, अतः रस नहीं किंतु स्पर्श के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए | यह शक्य नहीं है, कि शरीर से स्पृष्ट होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो, अतः स्पर्श का नहीं, किंतु स्पर्श के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए । अग्नि- शिखा के समान प्रदीप्त एवं प्रकाशमान रहने वाले अन्तर्लीन साधक के तप, प्रज्ञा और यश निरन्तर बढ़ते रहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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